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“मैं अब भाजपा और मोदी के साथ क्यों नहीं हूं”

सिर्फ इसलिए नही कि मैं राहुल गांधी को प्रधानमंत्री बनते देखना चाहता हूं। बल्कि इसके  पीछे और भी बहुत महत्वपूर्ण वजहें हैं, जो प्रधानमंत्री के पद से ज़्यादा कीमती और ज़रूरी है।

यकीन मानिए, पिछले लोकसभा चुनाव में जब नरेंद्र मोदी जी, राष्ट्रवाद का मुकुट लगाकर और हिन्दुत्व के रथ पर सवार होकर मैदान में उतरे थे, तब मैं भी उनको लाल किले से भाषण देते हुए देखने के लिए उतावला हो उठा था।

तब तक जो शख्स प्रधानमंत्री की कुर्सी पर था, उसकी काबिलियत, ईमानदारी और देशप्रेम पर मुझे कोई संदेह नही था और आज भी नहीं है बल्कि और बढ़ गया है, किंतु फिर भी पता नहीं क्यों ऐसा लगता था कि शायद मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री के पद के साथ न्याय नहीं कर पा रहे हैं और आखिर में मोदी जी प्रधानमंत्री बन भी गए।

बीते 5 सालों में मोदी सरकार ने, उनकी पार्टी ने और उनके मातृ संगठन ने जिस तरह से भारत माता की जय बोलते हुए, बार-बार उसकी आत्मा पर आघात किया है, उससे ना सिर्फ मैं आहत हुआ बल्कि जो सम्मान मोदी जी के लिए मैं रखता था वह भी खत्म हो गया। आइये देखते हैं आखिर ऐसा क्यों?

मोदी सरकार ने सत्ता में आते ही गज़ब की इच्छाशक्ति दिखाई। मानो बस देश की सारी बुराइयां और बीमारियां बस एक साल के अंदर ही खत्म हो जाएंगी लेकिन समय बढ़ते-बढ़ते वह इच्छाशक्ति अहम और उतावलेपन में बदलती गई। प्रधानमंत्री का हर कार्यक्रम एक धमाकेदार मीडिया इवेंट बनता गया और धीरे-धीरे यह बात हिंदुस्तान के लोगों में फैलनी शुरू हो गई कि देश की सभी बुराइयों और बीमारियों की जड़ सिर्फ गांधी नेहरू परिवार हैं, फिर लगातार इसमे संघ का प्रॉपेगैंडा शामिल किया जाता रहा।

समय के साथ-साथ दम्भ और अहंकार इतना बढ़ गया, मोदी जी ने नेहरू-गांधी परिवार के साथ-साथ पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को भी ना बख्शा। भरी लोकसभा में उनका मज़ाक उड़ाया, यह जानते हुए भी कि जो भी पुल, सड़क और योजनाओं का शिलान्यास करने वह सीना चौड़ा करके जाते हैं, उनकी आधारशिला मनमोहन सिंह ने ही रखी है।

सत्ता की हवस इतनी बढ़ गई कि हर कीमत पर हर प्रदेश में, हर चुनाव में सिर्फ भाजपा की जीत ही ज़रूरी थी, नैतिक अनैतिक जैसे भी हो।काँग्रेस मुक्त भारत की बात करने लगे जबकि असम और उत्तराखण्ड जैसे राज्यों की भाजपा पार्टी ही काँग्रेसियों को मिलाकर बनी थी।

धनबल का खुलेआम प्रयोग होने लगा। असंवैधानिक तरीके तक प्रयोग होने लगे और कोर्ट से फटकार तक मिली। आज भी नॉर्थ ईस्ट के एक मुख्यमंत्री की खुदकुशी की सीबीआई जांच चल रही है।

कोढ़ में खाज तो प्रधानमंत्री का दोहरा रवैया बन गया। यूपीए सरकार की जिन योजनाओं को वह पानी पी-पी कर कोसते रहे, उन्हीं को लागू किया, वह भी बिना खास तैयारी और योजना के। चाहे वो बार-बार GST की दर बदलनी हो या नोटबंदी के समय पुराने नोटों को जमा करने की बार-बार तारीख बढ़ानी हो। FDI हो या आधार, कुल मिलाकर किया वही जो मनमोहन सिंह कर रहे थे।

सबसे ज़्यादा मुझे जिस बात ने झकझोरा है, वह खुलेआम भीड़ द्वारा लोगों को मार देना, वह भी सिर्फ धर्म के नाम पर। चाहे जुनैद हो, पहलू खान हो या पश्चिम बंगाल का ध्रुव हो या उत्तर प्रदेश का चन्दन। सरकार के नुमाइंदों ने ऐसा माहौल बनाया कि कल तक जो भारतीय थे, आज वे हिन्दू और मुस्लिम बन गए।

कट्टरवाद के इस होम में घी डालने का सबसे ज़्यादा योगदान भाजपा के मीडिया सेल की ही रही, जो तमाम तरह के घटिया और नीच प्रोपेगेंडा सोशल साइट्स पर प्रचारित करते रहे। अब भी फेक न्यूज़ के खिलाफ कोई कड़ा कानून सरकार की तरफ से नहीं बनाया गया।

अंत मे मैं यह कहूंगा कि भले ही मोदी सरकार ने पहले की सरकार से ज़्यादा साहस दिखाया हो और सुधारों के प्रति दृढ निश्चय दिखाती है मगर आज सरकार एक इवेंट कंपनी और प्रधानमंत्री एक टूरिस्ट से ज़्यादा की भूमिका में नहीं दिखते। हां, स्वच्छता और योग के क्षेत्र में ज़रूर अभूतपूर्व काम हुए हैं।

बावजूद इसके मैं देश के लोकतन्त्र, सहिष्णुता और बहुलवाद का गला सिर्फ पाकिस्तान और इस्लाम के नाम पर नही घोंट सकता। इसलिए मैं भाजपा की सरकार को दोहराने की गलती नहीं दोहराना चाहूंगा।

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