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“स्वरा, मुझे वीरे दी वेडिंग में दी गई गालियों से भयंकर दिक्कत है और मैं ट्रोल नहीं हूं”

वीरे दी वेडिंग जब से आई है तब से सोशल मीडिया पर दो ग्रुप बन चुके हैं। एक है जो कह रहा है कि फिल्म पाथ ब्रेकिंग है। यह चार लड़कियों की दोस्ती की कहानी है। औरतें शराब पी सकती हैं, घूमने जा सकती हैं, सेक्स की बातें कर सकती हैं और वाइब्रेटर भी इस्तेमाल कर सकती हैं। दूसरे ग्रुप में आने वाले लोग कह रहे हैं कि फिल्म का स्क्रीन प्ले बेहद खराब है, फिल्म की कोई कहानी नहीं है, स्वरा का कैरेक्टर कन्विंस नहीं कर पाया और फिल्म की जितनी अच्छे होने का प्रचार किया गया था, उतनी अच्छी नहीं निकली। फिल्म दोस्ती से ज़्यादा ब्रांड्स को प्रोमोट करने को लेकर बनाई गई है।

दो तीन दिन पहले ही फिल्म की लीड एक्ट्रेसेज़ ने राजीव मसंद के इंटरव्यू में क्लियर कर दिया है कि बॉक्स ऑफिस पर उनकी फिल्म 2018 की टॉप 5 फिल्मों में आ गई है। इसलिए यह संदेश देती है कि फीमेल सेंट्रिक फिल्में भी करोड़ों का बिज़नेस कर सकती हैं।

https://www.youtube.com/watch?v=QYKxr7gW8Ho

फीमेल सेंट्रिक फिल्मों की आलोचना क्यों ना हो?

राजीव मसंद ने इस फिल्म के रिव्यू में कहा था कि अच्छी फिल्म बनाने का अवसर मिस हो गया है। इस पर फिल्म की लीड एक्ट्रेसेज़ का जवाब था कि ऐसा रिव्यू करने वाले बेहद कम हैं तो इस बात से खासा फर्क नहीं पड़ता है। जब फिल्म पैसे कमा रही है तो मतलब है कि दर्शकों को पसंद आ रही है। और बात खत्म।

आलचोना करने वाले ट्रोल्स हैं, जिनके पास कुछ काम नहीं है – सोनम कपूर।

इस तर्क से फिल्मों की खामियां निकालनी बंद हो जाएंगी और उसके साथ ही बॉलीवुड से अच्छी फिल्मों की अपेक्षा भी।

गालियों का जस्टिफिकेशन क्यों?

फिल्म के शुरूआती प्रोमोशंस देखने पर पता चलता है कि इसे वीमेन एम्पावरमेंट बता कर प्रचारित किया जा रहा था। लेकिन जैसे ही फिल्म के ट्रेलर में इस्तेमाल हुई गालियों पर लोगों ने आपत्ति जताई, फिल्म का प्रमोशन चार लड़कियों की दोस्ती को लेकर करना शुरू किया गया। फिल्म की लीड एक्ट्रेसेज ने इंटरव्यूज में कहा कि ज़रूरी नहीं हर फिल्म महिला मुद्दों पर बनी हो।

ये बात तो सही है। बॉलीवुड में हर साल 800-1000 फिल्में बनती हैं, जिनमें से 4-5 ठीक ठाक होती हैं। हर फिल्म से उम्मीद नहीं की जा सकती। तो इस लिहाज़ से ‘वीरे दी वेडिंग’ से भी उस तरह की उम्मीद नहीं की जानी चाहिए। उम्मीद छोड़ रहे होते हैं, तभी मेकर्स का बयान आ जाता है कि इसमें स्वरा भास्कर का ऐतिहासिक सीन है।

अब यहां दिक्कत हो गयी है। इसे ऐतिहासिक और लिबरेटेड सीन तभी माना जाएगा, जब फिल्म औरतों के मुद्दे को लेकर गंभीर हो। सिर्फ सीन की बात करें तो बी-ग्रेड की तमाम फिल्मों में ऐसे सीन हैं और उनमें तमाम उन्मुक्त-नारी के कैरेक्टर गढ़े गए हैं। गालियां भी हैं, छोटे कपड़े भी हैं। पर तर्क और सेंसिबिलिटी नहीं होने की वजह से उन फिल्मों को गंभीरता से नहीं लिया जाता। उन्हें सिर्फ और सिर्फ मेल ऑडियंस को मद्देनज़र रखते हुए बनाया जाता है।

इस फिल्म की खास बात और रही, साक्षी का किरदार निभा रही स्वरा भास्कर को आलोचनाओं में ज़्यादा घेरा गया। बीते दिनों उन्होंने संजय लीला भंसाली को एक ओपन लेटर लिखा था और कहा था कि 21 वीं सदी में पद्मावत जैसी रिग्रेसिव फिल्म बनाने का कोई तुक नहीं है और इस फिल्म में औरतों की एग्ज़िस्टेंस को जननांग तक ला दिया गया है।

लेकिन उनकी अपनी ही फिल्म वीरे दी वेडिंग में इस्तेमाल की गई सारी गालियां महिलाओं के जननांगों और उनपर सेक्शुअल वायलेंस को लेकर है। कमाल की बात है उन्होंने उसे ‘आदमी भी तो देते हैं, उन्हें कोई कुछ क्यों नहीं कहता ‘ कहकर जस्टीफाई भी किया।

फिल्म का ट्रेलर

फिल्म में स्वरा भास्कर का किरदार कई बार सोनम कपूर के किरदार के बारे में ‘इसकी ले लो कोई’ जैसे शब्द इस्तेमाल करता है। क्या यह लाइन रिग्रेसिव नहीं है? ऐसा क्या है औरत के पास जो आदमी ले लेगा? क्या यह ‘औरत की योनि में उसकी इज़्ज़त है’ वाला मिथ ही स्थापित नहीं करती? मास्टरबेशन का सीन दिखाकर यह फिल्म एक कदम आगे बढ़ती है तो तमाम तरह की भद्दी गालियां देते हुए इसके महिला किरदार तीन कदम पीछे ले जाते हैं।

हीरोइनों से सवाल क्यों नहीं पूछे जाएंगे?

फिल्म के प्रमोशन के दौरान भी सोनम और स्वरा ने बार-बार रिपोर्टर्स से पूछा की गालियों को लेकर हमसे सवाल क्यों पूछ रहे हैं, आदमियों से क्यों नहीं पूछते?

“आप औरतें बराबर हैं, किसी से कम नहीं हैं ” वाली बात यहीं पर डिफीट हो जाती है जब आप चाहती हैं कि आपकी फिल्म में इस्तेमाल की गई गलियों पर आपसे सवाल ना पूछे जाएं क्योंकि आप एक फीमेल एक्ट्रेस हैं और आपने एक फीमेल सेंट्रिक फिल्म बना दी है।

इस फिल्म के प्रचार के दौरान यह भी सामने आया कि बॉलीवुड के लोग अपने कन्वीनियंस के हिसाब से महिला मुद्दों पर लड़ने वाले बन जाते हैं तो दूसरे ही पल “हम एक्टर्स हैं, हमें क्या” कह कर निकल भी लेते हैं। स्वरा भास्कर ने भी कुछ ऐसा ही किया।

एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा है कि दर्शकों के पास लैक ऑफ इमेजिनेशन है तो हम क्या करें? और गालियों से क्या दिक्कत है? सब देते हैं अपने घरों में गालियां।

आप इसका उल्टा सोचिए। कल को कोई ऐसी फिल्म आती है जिसमें एक्टर बोल रहे हैं कि फलां लड़की की तो मैंने मार ली, उसकी ले ली, क्या आपको सुनने में उतना ही चरम सुख मिलेगा जितना एक्ट्रेसेज के मुंह से यह सब सुनते हुए मिल रहा था?

क्या किसी फिल्म में औरतों पर डोमेस्टिक वायलेंस को जस्टिफाई करके दिखाया जाएगा और उसके लीड एक्टर बोलेंगे – ये स्क्रिप्ट की मांग थी। औरतें तो घरों में भी पिटती हैं। उससे दिक्कत क्या है? क्या आप उनसे सवाल नहीं करेंगे कि 21वीं सदी में ऐसे डॉयलग लिखे कैसे? और बोले भी कैसे?

बॉलीवुड का मॉडर्न औरत को एक इमेज में बांधना कितना सही?

वीरे दी वेडिंग, तनु वेड्स मनु, एंग्री इंडियन गॉडेसेज, लिपस्टिक अंडर माय बुर्का जैसी सब फिल्मों ने इंडियन मॉडर्न वुमन का एक स्टीरियोटाइप रोल बना दिया है। वह Wise ना होकर बेवकूफ हैं, वह Cunning हैं। तनु का किरदार मर्दों को कुछ नहीं समझता है। फिल्म में तनु अपने आसपास के लोगों को ज़्यादातर हैरेस करती है। वो अपने पति को मेंटल अस्पताल में छोड़कर चली आती है।

इन किरदारों ने कहीं ना कहीं मॉडर्न इंडियन वुमन की इमेज को Ridicule (उपहास करना) करके रख दिया है।

लिबरल तबके का रेस्पोंस शॉकिंग

जब भी लड़कियों के साथ छेड़खानी की घटनाएं सामने आती हैं, स्कूली बच्चों द्वारा महिला टीचर्स के साथ बदसलूकी की घटनाएं आती हैं, तब हम एक के बाद एक आर्टिकल्स लगाते हैं कि कैसे ये सब बचपन से सिखाया जाता है। कैसे गालियां सेक्शुअल हैरेसमेन्ट में तब्दील हो जाती हैं। कैसे एक लड़का यह सोच बना लेता है कि उसे लड़कियों की लेनी है। कैसे महिलाऐं सेक्स को सिर्फ ‘देने’ भर तक सिमित रखती हैं।

यह सब जानते हुए भी ज़्यादातर लिबरल फेमिनिस्ट महिलाओं ने लिखा है कि तो क्या हुआ गालियां दी गयीं। आदमी भी तो देते हैं।

फिल्म में दिखाई गईं औरतें कितनी रीयल हैं?

वीरे दी वेडिंग’ से दो महीने पहले एक फिल्म आई थी: ‘वीरे की वेडिंग।’ इस फिल्म के मेकर्स को जलील नहीं किया गया था, जबकि ऊपरवाली को किया जा रहा है क्या ये इसलिए है कि इनमें से एक लड़कों के ऊपर बनी फिल्म है और दूसरी लड़कियों के ऊपर?

लड़कों पर बनी फिल्म से कोई उम्मीद नहीं थी, पर लड़कियों पर बनी फिल्म से उम्मीद थी कि ये एक गंभीर विषय पर बनी हल्की-फुल्की/गंभीर पर समझदार/प्रोग्रेसिव फिल्म होगी। क्योंकि ऐसा प्रचारित किया जा रहा था कि पहली बार लड़कियों पर इस तरह की फिल्म बन रही है। हालांकि अब इसके मेकर्स कह रहे हैं कि हमने कुछ नहीं कहा था, फिल्म तो फिल्म है, कैरेक्टर्स और सिचुएशन कुछ भी चुना जा सकता है, इसका फेमिनिज़्म से कोई लेना-देना नहीं है।

‘वीरे दी वेडिंग’ में जिस चीज़ की कमी है, वो है भावनात्मक गहराई। करीना कपूर और सुमित व्यास का सीन जब खुद वॉशरूम जाती हैं और बॉयफ्रेंड इन्तजार कर रहा होता है, तो वो शादी के कॉम्प्लीकेशंस को लेकर एक गंभीर सीन होना चाहिए। लेकिन जो गहराई इस सीन में होनी चाहिए वो गायब थी। फिल्म में इस कमी से भरपूर और भी कई सीन हैं।

आखिर में यही कहूंगी कि फिल्म की ‘स्ट्रेंथ’ है: गन्दी गालियां। जिन गालियों का इस्तेमाल पुरुष करते हैं और जिन गालियों के खिलाफ फेमिनिज़्म आवाज़ उठा रहा है, वही गालियां।

अगर शुरू में ही डिस्क्लेमर आ जाता कि इस फिल्म का फेमिनिज़्म और स्वरा भास्कर के ट्वीट्स से कोई लेना-देना नहीं है तो शायद कोई कन्फ्यूजन नहीं होता। हम मान लेते कि ये ‘वीरे की वेडिंग’ पार्ट-2 है।

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