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बचपन में लड़के-लड़कियों के बीच काम का बंटवारा भी यौन शोषण का बन सकता है कारण

पिछले तीन महीनों से हम मध्य प्रदेश के इंदौर, उज्जैन और सिहोर ज़िले में 12 -18 साल के लड़के-लड़कियों से बात कर रहे हैं। कोशिश है कि उन सबके साथ मिलकर हम लोकल मीडिया के माध्यम से यौन हिंसा की रोकथाम के बारे में बात कर पाएं। इरादा है कि इस उम्र की लड़कियों और लड़कों को हम तैयार कर पाए कि वो खुद मीडिया का इस्तेमाल कर अपनी कहानी, अपनी ज़ुबानी सुना सकें जो उनकी अपनी भाषा, अपने अंदाज़ में है, जिसमें उनके आस-पास के संदर्भ की झलक दिखती है, जो उनकी अपनी सच्चाई है।

उम्मीद है कि इससे हम यौन हिंसा को और बारीकी से समझ पाएंगे। इसे सिर्फ कानूनी या स्वास्थ्य की नज़र से नहीं बल्कि रोज़ाना की ज़िन्दगी में इसके प्रभाव को देख पाएंगे। आखिर ये किसी घटना तक तो सीमित नहीं है, फिर क्यों हम इंतज़ार करते हैं कुछ होने का, इससे पहले हम आवाज़ उठाएं या बात ही करें।

यहां कोशिश है समझने की कि समाज में यह व्यवहार पनपता कहां से है और इसका आम ज़िन्दगी पर क्या असर पड़ता है?

हम इस उम्र की लड़कियों और लड़कों के साथ लगातार बात करके समझना चाहते हैं उनकी दुनिया, उनकी उधेड़-बुन, उनके डर और शर्म और अनकहे सवाल जो रोज़ाना की भाग-दौड़ में कहीं सुनाई ही नहीं देते।

किताबों में, नीतियों में इस उम्र को किशोरावस्था भी कहा जाता है। कौन हैं ये ‘किशोर’? कानूनी तौर पर देखें तो 14 से 18 साल की उम्र को किशोरावस्था बोलते हैं, लेकिन भारत के अलग-अलग कानून में इस उम्र के साल थोड़ा ऊपर-नीचे होते रहते हैं। देश में कई कानून हैं जो इस उम्र के लड़के-लड़कियों के अधिकारों की सुरक्षा करते हैं जो जुड़े हुए हैं उनकी शिक्षा, स्वास्थ्य, बाल श्रम, बाल विवाह और यौन हिंसा से। लेकिन ये बचपन और जवानी के बीच की उम्र अभी भी एक रहस्य है। इस बदलती उम्र में गिरने-संभलने, सही-गलत से झूझने के दबाव को पूरी तरह समझना बहुत मुश्किल है।

कानूनी तौर पर इस उम्र के लड़के-लड़कियों को नाबालिग मानते हैं। और सरकारी नीतियों में, संदेशों में अगर इनके बारे में कभी बात होती है तो वो ज़्यादातर स्वास्थ्य या शिक्षा से जुड़ी होती है। लेकिन, जब हमने इस उम्र की लड़कियों से पूछा कि वो इस उम्र को कैसे देखती हैं, क्या नाम है इस उम्र का तो उन्होंने अपनी दुनिया के कई रंग हमें दिखाये, किसी ने कहा,

लापता है ये उम्र, गुमनाम-जिसका कोई नाम नहीं। एक बंद दरवाज़ा है, कठपुतली है जिसकी डोर किसी और के हाथ में है।

ये है वो रहस्यमय दुनिया जिसमें ढेर सारे सवाल और सपने छुपे हैं। इस उम्र के शुरू होते ही कई बदलाव होते हैं, शारीरिक, भावनात्मक, मानसिक और सामाजिक और ये एक दूसरे से टकरा कर एक नई पहचान बना रहे होते हैं। क्या सोचा है कभी अगर किसी में इतने सारे बदलाव साथ में हो रहे हों, वो भी पहली बार, तो कितने सारे सवाल होंगे उस मन में, कितनी उलझने, कितना डर और खुलकर बात करने के लिये कोई जगह नहीं, जो उन्हें गलत और सही के पार समझ सके, जहां वो अपने सवाल बिना झिझक के पूछ सकें।

यही वो उम्र हैं जहां एक पहचान बननी शुरू होती है, आपकी अपनी एक सोच बनने लगती है और फिर समाज आपको एक पहचान दे देता है। इस उम्र में रोक-टोक और नियम हैं तो जोखिम और कुछ नया करने का जोश भी।

और ऐसा नहीं कि ये उम्र सबके लिए एक जैसी हो। आपकी जाति, वर्ग, धर्म और आपका जेंडर आपके इस वक्त के अनुभवों पर असर डाल रहे हैं। लड़कियों ने बताया कैसे माहवारी के बाद ना सिर्फ उनके शरीर पर बल्कि उनके जीवन पर रोकटोक बढ़ जाती है। इस उम्र में होने वाले बदलाव सब एक-दूसरे पर एक साथ असर डाल रहे होते हैं। शारीरिक बदलाव सिर्फ शरीर से जुड़ा नहीं है, माहवारी के बाद लड़की के बाहर आने-जाने पर टोक लग जाती है, उसकी तरफ सबका नज़रिया बदल जाता है, वो अब बाहर लड़कों के साथ पहले की तरह खेल नहीं सकती ।

लेकिन, यही वो उम्र है जहां मानते हैं कि उसका शरीर शादी के लिये तैयार है और उसे सारी ज़िम्मेदारियां सौंप देते हैं। एक तरफ बच्चों की तरह रोक-टोक और नसीहतें हैं तो दूसरी तरफ उन्हें ज़बरदस्ती बड़ा कर ज़िम्मेदारियां देने की ज़िद भी। इन सब बदलावों के साथ आता है दबाव, घर पर, दोस्तों के बीच, समाज में, शरीर, शादी, प्यार, काम, पैसे को लेकर।

हमारी कोशिश है इसी दुनिया को समझने की। इस उम्र में यौन हिंसा का क्या असर पड़ता है, अगर कहीं सुना है, देखा है तो कैसे समझते हैं यौन हिंसा को। एक बार उनकी नज़र से भी तो देखें रोकटोक को, सही-गलत को, प्यार को और हिंसा को। शायद इसी में कहीं इसका जवाब छुपा है कि यौन हिंसा हमारे समाज में कैसे पनपती है। हमारी कोशिश है कि यौन हिंसा के बारे में बात सिर्फ तभी ना हो जब कोई घटना होती है बल्कि इसकी रोकथाम के लिये हम शुरू से ही समझ पाएं कि किस तरह समाज हमारे लिये मर्दानगी और स्त्रीत्व के दयारे बना रहा है, जो आगे जाकर किसी ना किसी हिंसा का रूप लेते हैं।

इसलिए ज़रूरी है कि इस उम्र में जहां पहचान अभी बन रही है, सोच अभी विकसित हो ही रही है, वहीं हम लड़कियों-लड़कों के साथ बात करें यौन हिंसा के बारे में।

आगे आने वाले लेखों में हम बात करेंगे हमारे अनुभव इस उम्र के लड़कियों और लड़कों के साथ इन्हीं सब मुद्दों पर चर्चा करते हुए, कोशिश है कि इस उम्र की दुनिया के सपने, सवाल, चुप्पी, शर्म, डर और चाह का इंद्रधनुष आपके सामने ला सकें।

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घर की दुनिया, मेरा एक दिन

क्या आपको याद है पहली बार जब एहसास हुआ था कि आप लड़की हैं या लड़का? किसी ने पहली बार आपको ना  बोला हो, रोका हो सिर्फ इसलिए क्योंकि आप एक लड़की या लड़का हैं? कैसा महसूस हुआ था? गुस्सा आया था, समझ नहीं आया क्या हुआ, क्यों मना किया या ज़्यादा सोचा नहीं इस बारे में? मुमकिन है ये याद आपके घर से जुड़ी हो। अक्सर लड़के और लड़कियों के बीच भेदभाव घर से ही शुरू होते हैं। चाहे-अनचाहे रोज़ाना की ज़िन्दगी में कुछ काम हैं जो लड़के और लड़कियों में बट गये हैं।

जब मध्य प्रदेश में हमारी बातचीत के दौरान हमने गांव में रहने वाले लड़कियों और लड़कों से पूछा कि उनकी दिनचर्या क्या है, तो दोनों में ज़मीन-आसमान का फर्क था। सुबह उठने से लेकर रात को सबके सोने तक, दोनों का काम और समय बटा हुआ है। लड़कियां जहां सुबह 5 से 6 बजे के बीच उठकर घर के काम में मदद करती हैं वहीं लड़के अक्सर 8 बजे उठकर स्कूल के लिये तैयार होते हैं। लड़कियां भी घर का काम खत्म कर स्कूल जाती हैं, और ज़्यादातर लड़कियां जो स्कूल नहीं जाती वो दिन में घर के अन्य कामों में मदद करती हैं। शाम को स्कूल से वापिस आकर लड़कियां फिर एक घंटा घर की सफाई करती हैं या पानी भर कर लाती हैं।

लड़कों का कहना है कि वो स्कूल से आकर कुछ देर आराम करते हैं। फिर शाम हुई नहीं कि लड़के निकले दोस्तों से मिलने और लड़कियां आ गईं केंद्र, मिलकर पढ़ाई करने के लिये। देर शाम तक घर पहुंच कर लड़कियां मदद करती हैं रात का खाना बनाने और परोसने में और लड़के कुछ देर पढ़ते हैं या किसी ने घर का कोई काम बता दिया तो वो करते हैं। रात के खाने का समय है TV देखने का। बस यही सब करते-करते दस बज गए और फिर लड़कियों ने की तैयारी सबके सोने की, बिस्तर बिछाना, रसोई सिमटाना और फिर सोने से पहले कुछ होमवर्क करना। लड़के दूसरी तरफ दस बजे तक अपने बिस्तर पर फोन के साथ दोस्तों से गप्पे मारते हुए देर रात तक सो जाते हैं।

ये है लड़के और लड़की के जीवन का एक आम दिन। कुछ अजीब लगा क्या? फर्क लगा? क्या ऐसा लगता है जैसे कि लड़कियों को तैयार किया जा रहा है एक अच्छी बहु बनने के लिये, घर संभालने के लिये। और वहीं लड़कों को भी सिखाया जा रहा है ज़िम्मेदार मर्द बनना। ऐसा नहीं है कि माता-पिता ने बहुत सोच-समझ कर ये काम बाटें हैं। यह एक समाज का ढांचा है जिसको सब सलामत रखना चाहते हैं, इसलिए अब ये आम बन गया है।

लड़कियों के लिये एक तरह की ज़िम्मेदारियां हैं तो लड़कों के लिए दूसरी तरह की। आमतौर पर लड़के-लड़कियां भी इस पर सवाल उठाते हैं या उनसे उनकी मर्ज़ी पूछी जाती है, वो भी ढांचे का हिस्सा है और उनके सपने भी इसी ढांचे के अंदर समाये हैं। कहते हैं यह बस ऐसा ही है क्योंकि ज़माने से ऐसा ही चलता आ रहा है। कुछ लड़कियों ने बताया कि एक अच्छी लड़की कैसी होती है, उन्होंने कहा,

जो पलट कर जवाब नहीं देती, घर का काम करती है, पढ़ने में अच्छी है, सबसे सम्मान से बात करती है, छोटे भाई-बहन का ध्यान रखती है, ज़्यादा सवाल नहीं करती और बड़ों की बात मानती है।

तो कुल मिलाकर अच्छी लड़की वो होती है जो समझदार हो, सबका ध्यान रखे, भावुक हो और उसकी सभी ज़िम्मेदारियां और भूमिका घर के अंदर तक सीमित हैं।

वैसे ही जब हमने लड़कों से पूछा तो उन्होंने बताया,

एक अच्छा लड़का वो होता है जो काम करे, माता-पिता का सम्मान करे, घर के काम जैसे कि सब्ज़ी लाना, कुछ ठीक करना, बैंक का काम करना इत्यादि में मदद करे, बड़ों की बात माने, अच्छे से बोले, बुरी आदतें ना हों जैसे कि शराब पीना, बीड़ी पीना, तम्बाकू खाना, ताश खेलना।

तो अच्छा लड़का वो है जो घर के बाहर की दुनिया से झूझना जानता है, उससे अपेक्षा है कि वो मर्द की तरह ज़िम्मेदारी उठाये, जिसकी वजह से उस पर एक दबाव हमेशा बना रहता है।

ये सब वो सीमा रेखाएं हैं जो समाज ने हमें सिखाई हैं, क्या अच्छा है, क्या बुरा। कितनी आसानी से लड़के-लड़कियों की ज़िन्दगी घर के अंदर और बाहर बट जाती है। यहीं से जेंडर की समझ पैदा होती है, क्या कर सकते हैं क्या मना है, कहां जा सकते हैं कहां नहीं। इसी तरह धीरे-धीरे चारों तरफ एक लक्ष्मण रेखा बनने लगती है, बिना सोचे, बिना पूछे। और जैसे-जैसे हम बड़े होते हैं, यह और मज़बूत होती जाती है और हमारी दुनिया इसी के अंदर समाने लगती है।

मेरा परिवार

घर में कौन-कौन है? मम्मी-पापा, भाई-बहन, चाचा-चाची, मामा-मामी , यही तो हमारा सबसे पहला समाज है। इन्हीं रिश्तों से हमारी सबसे पहली पहचान बनती है। इन रिश्तों में जो हम देखते हैं दुनिया को भी वैसे ही देखते हैं। बातचीत के दौरान हमने लड़को से पूछा कि उनका रोले मॉडल या आदर्श कौन है? कई लड़कों ने बोला उनके पापा। पापा कमाते हैं, ज़्यादा बोलते नहीं, घर-बाहर का हर फैसला वही लेते हैं, और अगर कोई उनकी बात ना सुने, तो कभी-कभी हाथ भी उठा देते हैं।

इन सब क्रियाओं से पिता का एक चित्र बनता है। पापा के आगे घर में कोई नहीं बोलता, और पापा से रोज़ाना की बात, या भावनाओं से जुड़ी बात भी कम ही होती है। लड़कों के मन में ‘पापा’ को लेकर एक आकांक्षा है और डर भी। अगर पापा उनको मारें तो गुस्सा आता है, लेकिन कुछ लड़कों ने कहा कि यह ठीक भी है, क्योंकि पापा उनकी भलाई के लिये ही तो डांटते हैं, वो कभी गलत नहीं होते।

लड़के अपने पापा की तरह बनना चाहते हैं, तो वो उनके व्यवहार और आचरण को भी अपनाते हैं, खासकर उनका रवैया मां और बहनों के प्रति। एक 16 साल के लड़के ने बताया,

मुझे बहुत गुस्सा आता है जब मैं नहाकर बाहर आता हूं और मेरी बहन ने मेरे कपड़े तैयार नहीं रखे होते। कभी-कभी तो हाथ भी उठा देता हूं।

लड़के को बचपन से ही समझाया गया है कि बहन उसकी ज़िम्मेदारी है, और इस ज़िम्मेदारी को वह निभाता है परिवार की अपेक्षाओं के हिसाब से। क्या सही है, क्या गलत है, आदमी एक औरत की/बहन की सुरक्षा कैसे करता है उसने यह सब परिवार में देखा है, और वह भी ऐसे ही अपनी बहन की सुरक्षा करना चाहता है। पापा बहन को घर के अंदर ही रखते है, क्योंकि अगर कुछ हो गया, तो पूरे गांव में हम मुंह नहीं दिखा पायेंगे। परिवार की इज्ज़त लड़की की चाह से ज़्यादा मायने रखती है। लड़कियों को बेवजह नहीं घूमना चाहिये। मैं अपनी बहन को बोलता हूं कि वो घर में ही रहा करे, नहीं तो समाज का दबाव परिवार पर पड़ता है। सब हमसे ही सवाल-जवाब करते हैं।

लड़कों का कहना था कि कभी-कभी इस ज़िम्मेदारी से चिढ़ भी होती है। कभी अगर बड़ी बहन बाहर जा रही है तो छोटे भाई को साथ भेज देते हैं, जैसे कि एक लड़का ही लड़की को सुरक्षित रख सकता है किसी अनदेखे खतरे से, चाहे वो लड़का इसके लिये सक्षम हो या नहीं, बस उसका मौके पर मौजूद होना ही काफी है। इसी कारण लड़के भी कई बार इस ज़िम्मेदारी को एक तरह का नियंत्रण का हथियार समझ लेते हैं और बहन पर रोक-टोक करने लगते हैं। चाहे वो खुद कितना घर के बाहर घूमे या फोन पर बात करें, लेकिन बहन पर वो यही काम करने की रोक लगाते हैं।

एक 15 साल की लड़की ने बताया कैसे उसका भाई तो शाम को बिना पूछे कहीं भी जा सकता है लेकिन वो बिना इजाज़त के घर से बाहर कदम नहीं रख सकती। गुस्सा आता है कि भाई को तो कोई नहीं पूछता कि कहां जा रहा है, कब आएगा। पर ये गुस्सा सहन करना पड़ता है, और क्या कर सकती हूं मैं। एक बार मां ने भाई और मुझे पैसे दिए। भाई से तो कुछ नहीं पूछा लेकिन मां ने मुझसे पूरा हिसाब लिया कि मैंने पैसे कहां खर्च किये। लेकिन वो पैसे उसके लिये बहुत अनमोल थे, उसे आज भी याद है कि उस दिन उसने आइसक्रीम खाई और कुछ चुड़ियां खरीदी अपनी मर्ज़ी से। उसका कहना था कि भाई ने पता नहीं क्या किया उन पैसों का, वह तो कुछ भी कर सकता है।

इज्ज़त और लड़की का बड़ा दिलचस्प रिश्ता है जो सबने ज़बरदस्ती बना दिया है। घरवालों को और समाज को लगता इन्हें हमेशा साथ रहना चाहिए, ये इज्ज़त कहीं चली ना जाये। और इसके लिये सब भरपूर कोशिश करते हैं। लड़की को एक पोटली बनाकर घर में रखते हैं, और अगर बाहर निकले तो पोटली किसी के साथ ही जाएगी। इस पोटली को ज़्यादा खोलने की, हिलाने-डुलाने की ज़रूरत नहीं है, इज्ज़त जाने का डर हमेशा रहता है। तो यह घर की इज्ज़त का दारोमदार है लड़की पर, और ये फैसला करता है उसके पूरे जीवन का, वो कहां आएगी-जाएगी, क्या करेगी, किससे मिलेगी, कितना पढ़ेगी, सब कुछ।

अगर किसी लड़के ने गलती से भी लक्ष्मण रेखा पार कर दी तो बोलते हैं, अरे, लड़का है, बत्तमीज़ है, आवारा है। वहीं किसी लड़की से अगर लक्ष्मण रेखा पार हो गयी तो सीधे बात आती है इज्ज़त पर, बिगड़ी हुई है, घरवाले कुछ कहते नहीं इसको, रोकते क्यों नहीं। रोक-टोक ना लगाने पर सवाल उठते हैं।

बाहर की दुनिया

ये रोक-टोक, सवाल, शर्म, डर, घर की बाहर की दुनिया में भी उतने ही लागू होते हैं। बहन का कहना है कि भाई तो कुछ भी कर सकता है, उससे कौन पूछने वाला है? अगर स्मार्टफोन की बात करें तो, लड़का 12-13 साल का हुआ नहीं कि उसको दे दिया जाता है एक मोबाइल फोन इंटरनेट के साथ जिससे वो बाहर की दुनिया से हमेशा जुड़ा रहता है, जानकरी का एक रास्ता हमेशा खुला है। लेकिन लड़कियों के साथ ऐसा नहीं है, ज़्यादातर लड़कियों को अपना फोन तो शादी तय होने पर या शादी के वक्त ही मिलता है।

यहां सिर्फ पैसे की बात नहीं है, बल्कि एक सोची-समझी कोशिश है लड़कियों को घर के अंदर ही रखने की। मोबाइल फोन और लड़कियों को लेकर एक अविश्वास है कि वो बिगड़ जायेगी, लड़कों से बात करेगी और फिर इसे क्या ज़रूरत फोन की। यहां बात मोबाइल फोन के गलत या सही इस्तेमाल की नहीं है, बल्कि बात है लड़के और लड़की पर विश्वास और अविश्वास की। बात है लड़की पर इज्ज़त के भार की।

लड़की को मोबाइल फोन मिलता है शाम को सिर्फ दस मिनट के लिये जब भाई घर आकर कहता है, इसे चार्जिंग पर लगा दे। यह दस मिनट की खिड़की है लड़की के पास, बाहर की दुनिया की। इस दस मिनट में वो देखती है गाने, मैसेज, फोटो, रिश्तेदारों से फोन पर चैटिंग या बात, वीडियो देखना, नाच के, पकवान के, नये सिलाई के डिज़ाइन के। ये है उनकी दस मिनट की अपनी दुनिया। लेकिन कई बार इसके भी नामोनिशां मिटाने पड़ते हैं, अक्सर उन्होंने इंटरनेट पर जो भी देखा या किया उसकी हिस्ट्री वो मिटा देती हैं क्योंकि बाद में फोन की जांच होती है ये जानने के लिये कि उन्होंने किससे बात की, इंटरनेट पर क्या किया। घर के अंदर, बाहर या फोन पर, उन पर नज़र हमेशा बनी हुई है।

क्या ये अविश्वास की वजह से है? अगर हां, तो क्यों है ये अविश्वास? घर के अंदर कभी जानकर और कभी अनजाने में एक लकीर बन जाती है कि घर के बाहर के काम लड़कों के और घर के अंदर के काम लड़कियों के। और फिर दोनों इसी सीमा में जीना और खुद को समझना शुरू कर देते हैं। दुनिया को इसी नियम और कायदे से देखते हैं। और जो भी ये नियम तोड़ता दिखायी देता है वो गलत हो जाता है, अजीब हो जाता है। इसीलिए अगर कोई लड़की घर के बाहर ज़्यादा दिखे तो उसे कई नज़रों का सामना करना पड़ता है।और वहीं कोई लड़का घर के काम में, रसोई में कुछ ज़्यादा मदद कर दे तो अक्सर दोस्तों में हंसी पात्र बन जाता है।

यही तो दायरे हैं जो समाज ने हमारे लिये बना दिये हैं। और इस गुमनाम उम्र में हम इन दायरों में फंस कर रह जाते हैं और फिर उम्र भर इनमें जकड़े रहते हैं। यहीं से आदमी और औरत की समाज में भूमिका की एक समझ बनती है। पापा जैसे करते हैं, कहते हैं, वो है एक आदमी की भूमिका है और मम्मी जो करती हैं, दिखती हैं, वो है एक औरत की भूमिका। और फिर हम खुद को इन किरदारों में ढालना और समझना शुरू कर देते हैं। और यहीं से जन्म होता है धारणाओं का। इसलिए ज़रूरी है कि इन संवेदनशील मुद्दों के बारे में हम सिर्फ किसी घटना के होने पर ना बात करें बल्कि शुरू से ही इस उम्र में लड़कियों और लकड़ों के साथ एक चर्चा कर सकें जहां हम उनकी आवाज़ सुने, उन्हें समझें और इस गुमनाम, गुमशुदा उम्र का बंद दरवाज़ा थोड़ा सा खोल सकें।

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(ये लेख एक कोशिश है समझने की, यौन हिंसा समाज में कैसे पनपती है ताकि हमारी प्रतिक्रिया सिर्फ एक केस या घटना तक सीमित ना हो। ये लेख आधारित है जनसाहस और मरा द्वारा मध्य प्रदेश के तीन ज़िलों में किये गए फील्ड वर्क पर। जनसाहस संस्था जाति आधारित हिंसा और यौन हिंसा के मुद्दों पर काम करती है।  मरा एक मीडिया और आर्ट्स कलेक्टिव है जो जेंडर, जाति, वर्ग और मज़दूरी के विषय पर सामुदायिक और लोकल मीडिया के द्वारा काम करती है।)

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(नोट- फोटो प्रतीकात्मक है)

http://jansahasindia.org/

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