मेरे बचपन में मेरे पास वक्त के अलावा कुछ भी नहीं हुआ करता था और शायद ज़िन्दगी थोड़ी आसान भी हुआ करती थी इस इंटरनेट के बिना। मतलब चार बजे नहीं कि धूप से लड़ते-लड़ते हम निकल जाते थे अपने मौहल्ले के सचिन बनने।
खूब हल्ला होता था, मतलब कभी किसी को चोट लगी, कभी बैट वाला लड़का गुस्से में चला गया, कभी बॉल ढूंढने में किसी से दोस्ती हो गई, कभी चीटिंग करने पर पुरानी हिंदी फिल्मों वाली गाली चलने लगी। पर यार जो भी कहो बड़े अच्छे दिन हुआ करते थे वो, मतलब ना व्हाट्सएप था, ना फेसबुक, सिर्फ खुद से दोस्ती हुआ करती थी। ये आईआईटी वाईआईटी तो हमें क्लास 8th, 9th तक पता ही नहीं था कि क्या है। मसलन अगर हिंदी का पेपर हमसे तीन घंटे में खत्म हो जाता था तो अपनी नज़र में हम फन्ने खान थे।
वैसे ऐसा नहीं था कि सब कुछ अच्छा हुआ करता था, मतलब रात में दस बजे के बाद टीवी खोलने में डर लगता था, यहां तक कि आज तक मैंने घर पर स्टार प्लस पर रात में कोई पिक्चर पूरी नहीं देखी होगी, पता नहीं कब मम्मी की पीछे से आवाज़ आ जाए, ये क्या हो रहा है इतनी रात में।
हंसी आती है सोचकर उन दिनों के बारे में और ये सोचकर अजीब भी लगता है कि कैसे बिना मोबाइल के, बिना लैपटॉप के जो ज़िन्दगी आज अधूरी सी लगती है, कभी कितनी पूरी हुआ करती थी।
ना किसी की प्रोफाइल को खोजते रहना, ना कोई बीच वाला इश्क, बस या तो पूरी सी दोस्ती या फिर कुछ भी नहीं। शायद सच में उन दिनों वक्त के अलावा मेरे पास कुछ भी नहीं हुआ करता था।
वैसे मैं ये सब आज ही क्यों बोल रहा हूं। आज अपने घर आया हुआ था तो मेरे यहां जो किरायेदार रहते हैं उनके बेटे से मुलाकात हुई। उसकी उम्र मुश्किल से दस साल होगी और दिन में तीन बजे वो बड़ा सा बस्ता पीठ पर टांगे कहीं जा रहा था। मैंने उससे पूछा कि कहां जा रहे हो तो उसने कहा, “चाचू मैथ्स की कोचिंग करने”। मैंने पूछा किस क्लास में हो तुम, तो उसने तीन ऊंगली दिखाकर कहा, क्लास थ्री में। मैंने कहा तुम अभी तो एक घंटे पहले स्कूल से आये थे, ऐसा क्या पढ़ाने लगे आजकल कि तभी उसकी मम्मी आ गईं और बोलीं चलो-चलो देर हो रही है। वो जा रहा था तो मैंने कहा, “अच्छा शाम को मिलना क्रिकेट खेलते हैं छत पर।”
जब छह बजे मैं उसके यहां बैट लेकर पहुंचा तो देखा वो चश्मा लगाकर मोबाइल पर गेम खेल रहा है। मैंने कहा चलोगे नहीं छत पर, वो बोला, “चाचू ये वाला गेम बड़ा मस्त है, आप ने खेला है?” उसके दस-दस मिनट करने में अंधेरा हो गया और फिर मैंने उससे कहा कि तुम यहीं सब करते रहते हो तो बाहर खेलने कब जाते हो, कभी साइकिल वाइकिल चलाते हो या नहीं? तो उसने अपनी आखों को मलते हुए बड़ी मासूमियत से कहा, “चाचू थक जाता हूं, टाइम ही नहीं मिल पाता।”
आजकल का बचपन भी शायद मोबाइल की बैटरी की तरह होता जा रहा है, बिलकुल खत्म होता जा रहा है। अभी तो उसका फेसबुक और व्हाट्सएप वाला तमाशा भी शुरू नहीं हुआ, मैंने चेक नहीं किया क्या पता शुरू हो गया हो पर आज ये हाल है तो पता नहीं आगे क्या होगा। खैर, आखिर में मेरा प्वाइंट बस ये है कि मैं टेक्नोलॉजी के अगेंस्ट नहीं हूं, पर कभी-कभी ऐसा लगता है कि हम सही टाइम पर बड़े हो गए, और हां अगर हमने अपनी आने वाली पीढ़ी को कंट्रोल नहीं किया तो कहीं हम वापस वहीं ना पहुंच जाएं, जहां से कभी हम आये थे।
कहीं ना कहीं हम टेक्नोलॉजी को अपनाने के साथ-साथ बहुत कुछ पीछे छोड़ते जा रहे हैं। जैसे- बच्चे आज कल फोन में इतना व्यस्त रहते हैं कि उन्हें दूसरों के बारे में जानने का समय ही नहीं है, और कहीं ना कहीं बच्चों का शारीरिक विकास भी इसी कारण सही तरीके से नहीं हो पा रहा है, क्योंकि वो बाहर निकालने के बजाय घर में रहना ज़्यादा पसंद करते हैं। वो अकेले रहना ज़्यादा पसंद करते हैं। कहीं ना कहीं आज बच्चों के डिप्रेशन के आंकड़ों में भी बढ़ावा हो रहा है।