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इस हिंसक भीड़ को आखिर किसका समर्थन मिल रहा है?

सर, लिचिंग हो रही है।
व्हाट्सएप्प, खुद को ठीक करो।

सर, फिर लिचिंग हो गई।
मुसलमान था, गाय ले जा रहा होगा, कार्रवाई होगी।

सर आज भी लिचिंग हो गई।
ओफ्फो, ये व्हाट्सएप्प भी ना। दिन में थोड़े ही ना कोई बच्चा उठाता है।

सर, लिचिंग रुक नहीं रही है।
रुक जाओ, सुप्रीम कोर्ट भी कुछ कहना चाहती है।

सर, आज भीड़ ने फिर से हमला कर दिया। लोग बोल रहे थे ऐसा करने से मंत्री जी माला पहनाने आते हैं।

सर, कुछ तो करिए। भीड़ अनियंत्रित हो गई है ।
हां, जैसे पहले तो लिचिंग होती ही नहीं थी। सोशल मीडिया की वजह से सबको पता चल रहा है। ऐ व्हाट्सएप्प, कुछ कर ना।

आज यही सब चल रहा है। कुछ वर्ष पूर्व तक गलत लगने वाली घटना को आज उचित ठहराया जा रहा है। ऐसा होने की वजह है। पहले सिर्फ नेताओं पर आरोप लगते थे, आज कार्यकर्ता उसी शैली के अनुरूप काम कर रहे हैं और नेता उनका समर्थन कर रहे हैं। समर्थक और नेताओं ने आपस में जगह बदल ली है, पर ओहदा नहीं। यह समर्थन खतरनाक क्यों है? क्या हमें भयभीत होना चाहिए? क्या समय आ गया है कि हम इसके विरुद्ध खड़े हो?

उत्तर यह है कि हमें भयभीत होना चाहिए और हम देर भी कर चुके हैं। ज़रा गांधी को याद करिए। उन्होंने जिस “ओसेनिक सर्कल” की बात की थी वह बेहद मज़बूत जोड़ था, जिसमें छोटी-से-छोटी इकाई महत्वपूर्ण हैं और ये छोटी छोटी इकाइयां मिलकर एक बड़ी रचना को जन्म देती हैं।

यहां हर एक इकाई, एक दूसरे के पूरक हैं। सोचिए, सकारात्मक रूप में यह कितना अद्भुत है। पर नकारात्मक रूप में उतना ही भयावह। अब सांप्रदायिक नकारात्मकता के बीज को ज़मीनी स्तर पर फैलाया जा रहा है और उसके पेड़ों की छांव में सत्ता को पाल-पोसने की कोशिश की जा रही है। अगर यह सांप्रदायिकता घर कर गई तो वाकई हिंदुस्तान की जड़ें खोखली हो जाएंगी और हज़ारों वर्ष पुराना यह बरगद स्वतः ढह जाएगा।

इसे संवारना होगा। सभ्यता को बचाने के लिए, लोकतंत्र को जीवित रखने के लिए सांप्रदायिक ताकतों को सीमित करना समय की मांग हो गई है। दुर्भाग्य यह है कि सत्ता के लिए मुकाबला भ्रष्टाचार और सांप्रदायिकता में है। दोनों दोषों से मुक्त दल अभी बड़ी भूमिका के लिए जद्दोजहद कर रहे हैं। भ्रष्टाचार और सांप्रदायिकता की जंग में पिस रही जनता शायद किसी गठबंधन की तरफ जाए पर तब तक जनता को संगठित होना होगा।

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फोटो क्रेडिट- द इंडियन एक्सप्रेस

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