आज हमारा भारतीय जन संचार संस्थान में पहला दिन अच्छा बीता। वापसी में आते वक्त कश्मीरी गेट मेट्रो स्टेशन से बाहर आकर अंबेडकर विश्वविद्यालय के आसपास घूम ही रहे थे कि हमारे प्रिय अध्यापक, जिन्होंने हमें ग्रेजुएशन में पढ़ाया था, उनका फोन आ गया(चूँकि आज उनका जन्मदिन है इसलिए हमने उन्हें जन्मदिन की बधाई देने के लिये कॉल किया था लेकिन वे कॉलेज की व्यस्तता के कारण कॉल ले नहीं पाए इसलिए उन्होंने समय निकाल कर खुद ही हमें कॉल कर लिया)। अब काफी समय बाद हमारी बात हो रही थी तो थोड़ी लंबी चली। बातचीत समाप्त करके हम मेट्रो स्टेशन की ओर चले ही थे कि कश्मीरी गेट बस स्टैंड की ओर से शोर-शराबे की आवाजें सुनाई दीं।
उधर जाकर देखा तो एक गेरुआधारी बाबा दो लोगों से संवाद कर रहे थे। उनमें से एक सज्जन उम्रदराज़ सिख थे और दूसरे सज्जन अपने को हिन्दू क्लेम कर रहे थे। अच्छा इस पूरे समय हमारा एक दोस्त भी साथ था। सो हम दोनों की उस संवाद को सुनने में दिलचस्पी बढ़ी और हम वहीं कुछ देर के लिए ठहर गए। और सुनने लगे। डिबेट का मुद्दा ‘धर्म को लेकर ढोंग-तमाशा’ यानी पाखंडवाद को लेकर था। आज पहली बार हमने देखा कि कोई साधू भी इतनी तार्किकता के साथ अपनी बात रख सकता है। इस दृश्य ने हमें अपनी ओर आकर्षित किया।
अच्छा साधू बाबा का पूरा जोर इंसानियत को तरज़ीह देने पर था लेकिन बाकी दोनों सज्जन सिर्फ हिन्दू-हिन्दू और केवल हमारा हिन्दू धर्म श्रेष्ठ है, की रट लगाए थे। दोनों ने उन साधू बाबा को ढोंगी करार दे दिया कि उन्हें कुछ नहीं आता और हिन्दू धर्म कलंक हैं। उन लोगों के इस वक्तव्य से बाबा जी थोड़े आहत हुये। वे उन दोनों लोगों से गुस्से में लेकिन प्रेम से बोले, “माय डिअर! आपलोग गलत राह पर जा रहे हैं। दरअसल सभी धर्मों का एक ही ध्येय है और वो है मानवता को बढ़ावा देना। इसके अलावा कुछ नहीं।” पर वे दोनों लोग इसको समझने की ज़हमत नहीं उठा रहे थे। उल्टा साधू बाबा पर ही सवाल दाग दिया कि ‘हिन्दू’ का अर्थ बताओ और ‘हिन्दू धर्म’ का क्या मर्म है ये भी बताओ। इसपर बाबा जी बोले कि हिन्दू जैसा तो शब्द ही नहीं है और न ही इसका हमारे किसी वेद और धार्मिक ग्रंथ में कोई जिक्र है। पहले-पहल हिन्दू शब्द का प्रयोग अरबों और मुग़ल आक्रमणकारियों ने हम भारतवासियों को झूठा और लुटेरा साबित करने के लिए किया लेकिन बाद में हम भारतवासियों ने उन्हें भी अपना लिया जो यहीं के हो के रह गए और अब भारतीय हैं। ये है प्रेम का भाव जो हमारी मनुष्यता को और मजबूत करता है।
इस पर सरदार जी बोले कि हमारे इसी दयादृष्टि के भाव ने हम हिंदुओं को गुलाम बनबाया। बकौल सरदार जी, “मैं तो कहता हूँ कि चाहे कोई मरते मर जाये पर किसी की सहायता नहीं करनी चाहिए…उसपर कोई वात्सल्य नहीं दिखाना चाहिए…आखिर भगवान खुद उसको देखेगा जब उसने उसे पैदा किया है…हम क्यों भगवान का काम करें? जब हम ऐसा करेंगे तो कमजोर नहीं होंगे और भविष्य में हमें कोई गुलाम भी नहीं बना पायेगा और हम हिन्दू मजबूती से रहेंगे।”
सरदार जी के हमनवा साथी साधू बाबा को ढोंगी बोलते हुए चले गए।
इस प्री-क्लेम्ड हिन्दू सरदार की बात सुनकर बगल में खड़े दूसरे सरदार जी(कहा जाता है कि एक सरदार हमेशा सरदार की ही तरफदारी करता है किन्तु यहां मामला मुख़्तलिफ़ था) बोले कि,”सरदार जी आप बिल्कुल गलत बात कह रहे हैं जबकि बाबा जी सही कह रहे हैं और बुद्ध, नानक तथा कबीर जी का दर्शन तथा आचरण भी इसी की शिक्षा देता है।” और बाबा जी तो पहले ही मानवता के दर्शन को स्पष्ट करते हुए इन महापुरुषों को कोट कर चुके थे लेकिन धर्मांध सरदार जी इस बात को समझने का प्रयास ही नहीं कर रहे थे।
दुख की बात तो ये है कि हमारे देश में ऐसे धर्मांध लोग हजारों-लाखों की संख्या में होंगे जो सामाजिक स्थिरता को घृणा के बीज बोकर नष्ट करना चाहते हैं लेकिन लोगों को सजग होकर सही का दामन थामना ही होगा। ताकि हमारी हंसती-खेलती दुनिया को कोई सिरफिरा बिखेर न पाए।
बहरहाल, ये तो आंखों देखा हाल था। मगर खुशी इस बात की है कि अब सही को सही बोलने वाले सामने आने लगे हैं, अब चुप्पी टूट रही है। असल में यही भारतीय संस्कृति है और यही भारतीयता भी।
कश्मीरी गेट बस स्टैंड पर इंसानियत और नफ़रत की जंग में इंसानियत जीती
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