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गुम होते किताब घरों को बचाया जाए

किताबघर बड़े अनोखे होते हैं I जिस गांव में बड़ा हुवा वहाँ किताब के नाम पर केवल स्टेशनरी की ही दुकाने थी I ज्यों ही साईकिल चलाना सीखा, त्यों ही थोड़ी दूरी वाले, शहर में, मिठाई और कई प्रकार की दुकानों के बीच लाडनूं शहर के नामी किताब घर के दौरे आम हो गए I कॉलेज की लाइब्रेरी और लाइब्रेरियन दोनों ही संतोषजनक थे पर एक बार किताबों को संजोने और सजाने का चस्का लग जाए तो फिर उधारी नहीं भाती I सबसे ज़्यादा किताबें शायद रेलवे स्टेशन वाली दुकानों से पढ़ी – सस्ती, फड़फड़ाने वाले पन्नों पे कभी धुंधलाती हुई काली स्याही जो हाथों पर भी छप जाती थी, हिलती हुयी ट्रेन में घंटे कटवा देती थी I इसी बहाने पैसे का ज्ञान भी हो चला – जिन से भी मुझे पैसे मिलते ओर जो भी मुझे कुछ देना चाहते उपहारों की च्वाइस में किताबें ही किताबें नज़र आने लगी I दूजों को भी किताबें देना शुरू कर डाला, उसत्ताद जी से भी काफी किताबे मिली पढ़ने को और उस टाइम मेरी बाते भी कोई नही सुनता था उसत्ताद जी सुनते उससे मुझ में बोलने की कला भी पैदा हो गई। किताब घर के शेल्फ पर आई नयी किताब के चमकीले कवर से प्यार I लाइब्रेरी में ओशो ने मेरे दिल पर गहरी छाप छोड़ी ऐसी चाप जो कभी न मिटे। गुम होते हुए किताब घरों को बचाया जाए।

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