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बढ़ती आपराधिक घटनाए और हमारी सामाजिक जिम्मेदारियां

निर्भया काण्ड के बाद कठुआ और मंदसौर की घटनाओं ने पूरे देश के सभ्य समाज को झंझोर कर रख दिया है।

वेश्यावृति को दुनिया के सबसे प्राचीन धंधों में से एक माना जाता है। शायद बलात्कार भी विश्व के सबसे पुराने जधन्य अपराधों में से एक है। कई सल्तनतें और सरकारे आई और गई, सख्त से सख्त कानून बने, यहां तक कि कुछ इस्लामिक देशों ने तो अति क्रूर और अमानवीय दंड का प्रावधान भी किया लेकिन फिर भी इन आपराधिक घटनाओं को रोका नहीं जा सका है। कानून ने सिर्फ अपराधियों को सजा देने का काम किया है, अपराध को रोकने में असमर्थ रहा है।

एक प्रश्न उठता है मन में कि क्या सरकार या कानून ऐसे अपराधों को रोक सकते है? शायद कभी नहीं। मृत्युदंड का भय भी अगर अपराधी को गुनाह करने से नहीं बाधित कर सकता तो इसके आगे सरकार क्या कर सकती है? बेशक ये कानून व्यवस्था का अति गंभीर विषय है और कोई भी सरकार इसे हल्के से नहीं ले सकती लेकिन ये सरकार से ज्यादा सामाजिक प्रश्न है। सरकार की जिम्मेदारी स्त्रियों को सुरक्षा प्रदान करना हो सकती है, घटना के बाद अपराधी को सजा देना हो सकती है लेकिन अपने बच्चों में सभ्यता और सुसंस्कार का प्रतिरोपण सबसे पहले परिवार, विद्यालय और समाज के स्तर पर होता है।

अपने संतानो को सभ्य व संस्कारी नागरिक बनाना ये जिम्मेदारी सर्व प्रथम हरेक मां-बाप की होती है। बच्चों के जन्म के साथ ही हम उनको जरूरी टीके 【vaccination】 की व्यवस्था करते है ताकि उसे कोई घातक बीमारी न हो, उसके शिक्षण के लिए भी हम आवश्यक धन राशि का प्रावधान करने लगते है लेकिन मूलभूत संस्कारों के बारे में ज्यादातर परिवार निष्क्रिय ही रहते है। पहले दादा दादी की कहानियों भी बोधरूप हुआ करती थी लेकिन वो प्रथा ही विलुप्त हो गई। उसके विपरीत tv और सिनेमा से विकृत संस्कारों में बढ़ोतरी होती है। विज्ञान ने भी वियाग्रा की खोज की लेकिन मानसिक विकृति को संयमित करने का कोई उपाय नहीं खोजा है। इन विपरीत परिस्थितियों में बच्चोँ में अच्छे विचारों का निरूपण करना वास्तव में बहुत बड़ी चुनौती है लेकिन हर परिवार को ये जिम्मेदारी खुद ही उठानी पड़ेगी। इस संदर्भ में सरकार या अन्य सामाजिक संस्थाओं से कोई अपेक्षा करना व्यर्थ होगा।

इस मानसिक विकृति का शिक्षण, सामाजिक व व्यावसायिक पद या भौतिक समृद्धि से कोई संबंध नहीं है। चील आसमान में कितनी भी ऊँचाई पर उड़े उसकी नजर जमीन पर मरी हुई चुहियां पर ही रहती है और चंद्र को प्रेम करने वाला चातक पंख होते हुए भी उस तक पहुचाने की कोशिश नहीं करता लेकिन धरती पर से ही उसे देखता रहता है। ये ही फर्क है संस्कार और संस्कृति का।

विद्यालयों में भी 10-12 साल के बच्चों का चारित्र्य निर्माण हो ऐसे विशेष पाठ्यक्रम लाना चाहिए। साथ ही साथ जैसे मंदसौर में मुस्लिम समाज ने ऐसे गुनाहगारों को अपने कब्रस्तान में जगह न देने की बात कही है वैसे ही हर समाज को ऐसे अपराधियों का सामाजिक बहिष्कार करना होगा ताकि ऐसे जधन्य अपराध करने से पहले 100 बार सोचे। वैधानिक प्रावधानों से ज्यादा सामाजिक दंड का असर मानसिक रूप से ज्यादा असरकारक होता है और हर समाज को इसके लिए आगे आना ही पड़ेगा।

मीडिया के इस युग मे वो भी इस समस्या का निराकरण करने में महत्व पूर्ण योगदान कर सकते है। बलात्कार, रोमांच, रोमांस और मनोरंजन के स्थान पर कुछ चारित्र्य निर्माण के कार्यक्रमों को प्राधान्य मिले ये जरूरी है। बलात्कार नहीं बल्कि बलात्कार के बाद पीड़िता की क्या मनोदशा होती है, इसका विश्लेषण समाज के सामने पेश होना चाहिए।
बलात्कारी का परिवार कितना धृणित जीवन व्यतीत करता है, इसकी प्रस्तुति समाज के सामने सिर्फ मीडिया ही कर सकता है।

मीडिया के अलावा tv धारावाहिक व सिनेमा का भी इस संदर्भ में बहुत उपकारक योगदान हो सकता है। शायद आजतक कोई ऐसी मूवी नहीं बनी है जिसकी कहानी के केंद्र में बलात्कार पीड़िता को रखकर उसके मानसिक आघात, शारीरिक पीड़ा व सामाजिक परिस्थितियों का सचोट चित्रण किया गया हो और जिससे दर्शक के मन में इस जधन्य अपराध के प्रति धृणा उत्पन हो।

‌समापन से पहले एक बार फिर दोहराना चाहूंगा कि सरकार, समाज, स्कूल, टीवी, सिनेमा ये सब चारित्र्य निर्माण के कार्य मे सहायक हो सकते है लेकिन मुख्य भूमिका व जिम्मेदारी माता-पिता व परिवार की ही रहेगी। सभी को अपने संतानो के प्रति अपार स्नेह व लगाव रहता है लेकिन उन भावनाओ के प्रवाह में उनके चारित्र्य निर्माण का लक्ष्य नजर अंदाज नहीं होना चाहिए। कुंभार जब घड़ा बनाता है तो उसको सही आकार व रूप देने के लिए एक हाथ से अंदर से सराहता है और दूसरे हाथ से बाहर से चोट देता है, क्योंकि वह जानता है कि एक बार घड़ा पक गया उसके बाद उसमें कोई परिवर्तन नहीं हो सकता। हम सभी को कुंभार की इस सोच से प्रेरणा लेकर अपने समाज व राष्ट्र को अच्छे नागरिक प्रदान करने की जिम्मेदारी उठा लेनी चाहिए।

‌प्रकाश गणात्रा (jp)

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