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सरकारी स्कूल की कॉपी जांचते हुए मुझे बच्चों के साथ हो रहे खिलवाड़ का अंदाज़ा हुआ

आज एक वाकया पढ़िए और खुले दिमाग से समझिये। फरवरी में स्कूली बच्चों की वार्षिक परीक्षा हुई। मेरे एक बहुत करीबी व्यक्ति हैं जो सरकारी स्कूल में अध्यापक हैं और इन दिनों उनकी तबियत कुछ ज़्यादा ही नासाज़ चल रही है।

उन्होंने आठवीं कक्षा की अंग्रेज़ी के एग्ज़ाम की जो कॉपियों के कई बंडल जांचने के लिए घर लाये थे, तबियत खराब होने की वजह से उन्होंने वे कॉपियां मेरे छोटे भाई को जांचने के लिए दे दी। लेकिन मात्र कॉपी जांच कर अंक देने को कहा बाकी कॉपियों पर अंक मिल जाने के बाद हस्ताक्षर वही करेंगे उन्होंने स्पष्टता से कहा। ये काम करने की दो दिन की मियाद दी गयी थी। पहले दिन मेरा भाई अपने काम से समय निकालकर जितनी कॉपी जांच सकता था उतनी जांची।

कॉपियां कई बंडलों में थी। कॉपियों के कई बंडल होने की वजह ये थी कि आठवीं कक्षा में दो वर्ग थे और उन दोनों वर्गों के तीन अलग-अलग वर्ग और थे। अब आप समझ सकते हैं कि हर वर्ग की कॉपियों के कितने बंडल बनेंगे और सभी कॉपियां जांच कर अगले दिन मास्टर जी को देनी थी मतलब काम ज़्यादा और समय कम।

शाम को जब मास्टर जी आये और उन्होंने पूछा कि कितने बंडल जांच लिए तो मेरे भाई ने कहा अभी तो दो ही जांच पाए तो मास्टर जी ने कड़क आवाज़ में कहा कि यार परसों सारे बंडल जमा कराने हैं तो कल तक सभी बंडलों की कॉपियां जांच लेना और ज़रूरत पड़े तो तुम भी कॉपियां जंचवा लेना हिमांशु। उन्होंने मुझसे कहा।

इन सबके बीच उनकी एक बात का ज़िक्र करना बाकी है वो ये,

यदि बच्चों ने उत्तर-पुस्तिका में कुछ भी नहीं लिखा हो अथवा कम लिखा हो तो ऐसी स्थिति में कॉपियों में पहले खुद लिखना फिर अंक देना मतलब सभी बच्चों को उत्तीर्ण ही करना है अनुत्तीर्ण नहीं।

उनकी इस आखिरी पंक्ति को सुनकर मैं हैरान हो गया फिर भी मैंने कहा चलो इन कॉपियों को जंचवाने में मदद कर ही देता हूं।

मैंने कॉपियों का एक बंडल मांगा और पहली कॉपी जांचने के लिए खोली तो मुझे कुछ समझ ही नहीं आया कि कहां से और कैसे कॉपी जांचनी शुरू करूं। कॉपी में लिखा कुछ भी समझ नहीं आया तो मैंने सोचा ये कॉपी अंत में चेक करूंगा दूसरी से शुरू करता हूं। लेकिन ये क्या कुछ-कुछ एक जैसा ही हाल दूसरी कॉपियों में भी देखकर मेरी तो सिट्टी-पिट्टी गुम हो गयी, दिमाग चकराने लगा। मेरे दिमाग के साथ-साथ शरीर भी सुन्न हो गया। माने काटो तो खून नहीं बूझो तो जान नहीं।

मतलब भईया हर कॉपी में बच्चों के उत्तरों का हाल ये कि हर प्रश्न के उत्तर में वर्तनी (स्पेलिंग) तक ठीक नहीं थी। वाक्यों का तो हाल ही क्या बताएं कर्ता, क्रिया और कर्म में कोई सम्बन्ध ही नहीं बैठ रहा था। ऐसे जब कुछ समझ ही नहीं आयेगा तो उसके अनुरूप उत्तर के अंक क्या दिए जाते? कुछ बच्चों ने उत्तर में प्रश्नों को ही उतार दिया था। उसकी भी वर्तनी ढंग से नहीं लिख पाए और कुछ ने क्या किया कि प्रश्न का उत्तर तो दिया अंग्रेज़ी में और लिखा हिंदी में। मतलब अक्षर अंग्रेज़ी के और शब्द तथा वाक्यों का लहज़ा हिंदी में वैसे ही जैसे हमलोग अंग्रेज़ी की-बोर्ड से हिंदी में चैट करते हैं, एक नमूना देखिये-

Question: Where was Ram? Answer: Ram ghar par tha. और कुछ बच्चों ने तो अंग्रेज़ी प्रश्न का उत्तर देवनागरी लिपि में ही लिखा था।

आलम ये था कि कॉपी तो दूर की बात है, मैं तो एक उत्तर को भी नहीं जांच सका। मतलब मैंने हाथ खड़े कर दिए कि मैं ये कॉपियां नहीं जांच सकता। उन कॉपियों को देखकर और उन बच्चों के भविष्य के बारे में सोचकर मेरी हालत बहुत खराब हो चुकी थी। लेकिन मेरा भाई धन्य है कि उसने इस असहनीय यातना को झेलते हुए कॉपियों के सभी बंडलों को जांचा और समय से मास्टर जी को दे दिये। इतने समय तक ये पढ़ते हुए आपने यदि अपने दिमाग को खुला रखा होगा यदि इधर-उधर दौड़ाया नहीं होगा तो आप समझ गये होंगे कि ये कोई कहानी नहीं बल्कि हमारे सरकारी विद्यालयों के विद्यार्थियों का भयानक सच है। जिसके बारे में हम सभी को चिंतित नहीं बल्कि घोर चिंतित होना चाहिए।

यदि अंग्रेज़ी विषय में विद्यार्थियों का ये हाल है तो बाकी विषयों का कैसा होगा? जब देश की राजधानी दिल्ली के सरकारी विद्यालयों का ये हाल है तो देश के बाकि राज्यों के विद्यालयों का क्या होगा? ये सोचना कठिन नहीं है इसलिए ये विचार-मंथन का विषय है। ना केवल सोच-विचार का बल्कि शिक्षा तन्त्र को आवश्यक कदम उठाने की बहुत बड़ी ज़रूरत है।

शिक्षा का ये कैसा रूप है और ये कैसी शिक्षा पद्धति है। हमारे यहां, जहां विद्यालयों में बच्चों को कुछ भी नहीं आता फिर भी उन्हें उत्तीर्ण होकर अगली कक्षा में पहुंचना ही है। यदि बच्चों को उत्तीर्ण करके अगली कक्षा में नहीं पहुंचाया तो फिर अध्यापक-अध्यापिकाओं की आफत। अरे आफत क्या अध्यापकों को सख्त हिदायत है कि उनका रिज़ल्ट खराब नहीं होना चाहिए। यदि ऐसा हुआ तो फिर स्कूल का रिज़ल्ट खराब होगा और उसकी साख गिरेगी। यानी कि स्कूल का रिज़ल्ट अच्छा होना चाहिए और उसकी साख में चार चांद लगते रहने चाहिए पर विद्यार्थियों का क्या?

विद्यार्थियों को कुछ आता हो या ना आता हो, उनका रिज़ल्ट उत्तीर्ण ही रहेगा, फिर भले ही विद्यार्थी इस अज्ञानता के साथ अपने जीवन में असफल क्यों ना हो जाएं? अभी एक सरकारी स्कूल में एक बच्चे के दाखिले के चक्कर में जाना हुआ तो पता चला कि आठवीं कक्षा तक विद्यार्थियों के बिना फेल होने की प्रक्रिया के चलते नौवीं कक्षा में सेक्शन (वर्ग) A से लेकर सेक्शन J, K और L तक बन गये हैं। अरे बन गये क्या मजबूरी में बनाने पड़े और हुआ ये कि कुछ महीनों बाद विद्यार्थियों ने विद्यालय में आना ही छोड़ दिया क्योंकि उन्हें नई कक्षा में कुछ समझ ही नहीं आता था।

यदि पिछली कक्षा में चीज़ें अच्छे से सीखी-समझी होतीं तो नयी कक्षा में कुछ अच्छे से समझ आता। लेकिन ऐसा हुआ नहीं तो वे सम्भवत: ज़हनी तौर पर पढ़ाई से डर गये और विद्यालय जाना छोड़ दिया। विद्यार्थियों द्वारा ये कदम उठाया जाना शिक्षा व्यवस्था और हम सभी के लिए एक बड़ी त्रासदी है। वैसे भी हमारे यहां बच्चों को स्कूल में जाना नसीब नहीं होता। आठवीं कक्षा तक बच्चों को पास करने की नीति के कारण साक्षरता के आंकड़े तो बेहतर हुए हैं लेकिन शिक्षा की गुणवत्ता का क्या? क्या शिक्षा पद्धति ऐसे ही चलती रहेगी? क्या कभी शिक्षा तन्त्र इस गंभीर समस्या के बारे में विचार भी करेगा या नहीं। ऐसे कोई आसार तो नज़र नहीं आते।

किसी भी समाज में शिक्षा का महत्व इसीलिए होता है कि वहां के नागरिक शिक्षित बनें। चीज़ों को समझने की उनकी समझ विकसित हो और वे अपने कर्तव्यों का पालन ठीक और अनिवार्य रूप से करें। परन्तु यदि हमारी शिक्षा व्यवस्था में गड़बड़ी ऐसे ही विद्यमान रहेगी तो फिर समाजिक समझ कैसे बढ़ेगी और कैसे नागरिक अपना भला-बुरा सोच पायेगा? ये बहुत बड़ा प्रश्न है जबकि हमारे देश में अभिभावक अपने बच्चों को निजी विद्यालयों से ज़्यादा सरकारी विद्यालयों में शिक्षा प्राप्त करने के लिए भेजते हैं। इसका कारण ये भी है कि सभी अभिभावक निजी विद्यालयों की फीस भरने में समर्थ नहीं हैं। लेकिन अब अभिभावकों ने अपने बच्चों के भविष्य को लेकर सरकारी विद्यालयों से मुंह मोड़कर निजी विद्यालयों की ओर रुख करना शुरू कर दिया है और इसके लिए वे कैसे भी करके फीस का इंतज़ाम करने को तैयार हैं। इस तरह अभिभावकों और विद्यार्थियों दोनों ने ही सरकारी विद्यालयों पर से अपना भरोसा खोया है।

क्या इस प्रकार ही विद्यार्थी देश का भविष्य बनायेंगे या ये मान लिया जाना चाहिए कि निजी अथवा कॉन्वेंट विद्यालयों से निकले विद्यार्थियों पर ही देश के भविष्य को बनाने का सारा दारोमदार है। देश के सरकारी विद्यालयों के विद्यार्थियों की ऐसी हालत का ज़िम्मेदार कौन है?
क्या इस अवस्था के लिए केवल देश की शिक्षा व्यवस्था ज़िम्मेदार है, जिसमें देश के आठवीं तक के सभी विद्यार्थियों को उत्तीर्ण करना आवश्यक है अथवा शिक्षा व्यवस्था, अध्यापक और अभिभावक तीनों समान रूप से इस अवस्था के लिए ज़िम्मेदार हैं?

ये भी एक विचारणीय प्रश्न है। तीनों में से अकेले तो कोई भी ज़िम्मेदार नहीं है। स्कूलों में सभी विषयों के अध्यापकों की कमी भी कम ज़िम्मेदार नहीं है। अधिकतर विद्यालयों में गेस्ट टीचर माने अतिथि शिक्षक नियुक्त हैं। उनका वेतन भी कम है। स्थायी नौकरी ना होने से अधिकतर अतिथि शिक्षक विद्यार्थियों को मन से नहीं पढ़ाते हैं। इससे विद्यार्थी अपने विषय में कमज़ोर हो जाते हैं। लगातार आठवीं कक्षा तक पास होने की नीति के चलते विद्यार्थियों में ये डर भी कम हुआ है कि वे पढ़ें या ना पढ़ें फेल तो होंगे नहीं। तो इस नीति का भी प्रभाव है कि बच्चों ने पढ़ाई पर ध्यान देना कम कर दिया और स्थिति बिगड़ती चली गयी।

केवल अध्यापक ही विद्यार्थियों को समझा, सिखा और पढ़ा सकें ये ज़रूरी नहीं है। इसके लिए अभिभावकों को भी शिक्षकों के साथ विद्यार्थियों पर समान रूप से मेहनत करनी पड़ेगी। अभिभावकों को ये देखना समझना पड़ेगा कि उनके बच्चे कैसे पढ़ रहे हैं और क्या समझ व सीख रहे हैं अथवा वे समझने और सीखने में समर्थ भी हैं। यदि नहीं तो कमी कहां है? इसका कारण भी खोजना पड़ेगा। यदि ऐसा प्रयास दोनों पक्षों की ओर से नहीं किया गया तो वही ‘ढाक के तीन पात’ वाली कहावत चरितार्थ होगी।

विद्यालयों में सुधार की गुंजाइश क्या है?

अभी के हालात ऐसे हैं कि यदि स्कूलों में शिक्षक विद्यार्थियों को डांट-डपट देते हैं तो मां-बाप अपने बच्चों के साथ अध्यापक से लड़ने विद्यालय ही पहुंच जाते हैं। कई बार तो अभिभावक शिक्षकों से हाथापाई तक पर उतर आते हैं कि तुमने मेरे बच्चे को डांट कैसे दिया या हाथ कैसे लगा दिया। वैसे सरकार ने स्कूलों में माह के अंत में PTM यानी पेरेंट्स-टीचर मीटिंग (हिंदी में अभिभावक-शिक्षक मिलन समारोह कह सकते हैं), के आयोजन का प्रावधान भी किया हुआ है। जिसमें शिक्षक अभिभावकों से विद्यार्थियों की पढ़ाई और नतीजे कैसे हैं और बेहतर कैसे हों आदि विषयों पर बात करते हैं।

परन्तु क्या सभी अभिभावक हमेशा इतने सजग होते हैं कि वे अपने बच्चों की पढ़ाई पर अनिवार्य रूप से ध्यान दे सकें, नहीं हमेशा ऐसा नहीं होता। खासकर ऐसे अभिभावक जो निम्न मध्यम वर्ग से आते हैं या फिर जो थोड़े कम पढ़े-लिखे होते हैं। इसके लिए सरकार क्या ऐसा प्रावधान नहीं कर सकती कि PTM में ही विद्यार्थियों की पढ़ाई की बात के साथ-साथ अभिभावकों को भी काउंसलिंग क्लास यानी सलाह व्याख्यान की आधे से एक घंटे की कक्षा आयोजित करायी जाये। जिसमें अभिभावकों से इस बारे में चर्चा की जाये कि कैसे बच्चों की पढ़ाई की गुणवत्ता पर ध्यान देना है, मार्गदर्शन करना है आदि।

इस काम के लिए सरकार प्रत्येक विद्यालय में उच्च स्तर के शैक्षिक सलाहकारों की नियुक्ति भी कर सकती है और साथ ही जिन विषयों के शिक्षकों की कमी है उनकी नियुक्ति भी की जाये।

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(फोटो प्रतीकात्मक है)

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