बात उन दिनों की है जब मैं अपनी नानी के घर सुल्तानपुर उत्तर प्रदेश में रहा करता था। एक मुस्लिम और धार्मिक परिवार से आने के कारण धर्म मेरी पहचान थी। दुनिया मेरा नाम बाद में जानती थी, पहले यह जानती थी कि मैं एक मुसलमान हूं।
हमारे यहा मौलाना साहब जो मस्जिद के इमाम भी थे उनकी बहुत इज्ज़त थी। कुर्बानी के लिए बकरे से लेकर बहन की शादी तक आखिरी फैसला वही लेते थे। रोज़ शाम को उनके घर मैं तरबियत सीखने जाता था। खाने-पीने से लेकर शौचालय जाने तक के सारे ढंग उन्होंने ही मुझे सिखाये। कैसे बोलना है कैसे गाना हैं।
“अब्दुल बेटा नाक से नात शरीफ नहीं पढ़ते” कुरान, उर्दू सब उन्होंने सिखाया। ऐसा नहीं था कि सब अच्छा-अच्छा ही था, बल्कि मेरा माता-पिता से ज़्यादा उन्होंने मुझे मार होगा। मेरी अम्मी मुझे हदीस बताती थी कि एक मौलाना 100 शहीदों के बराबर होता है।
जब मैं 8वीं के लिए दिल्ली आया तो यहां एक अलग माहौल था। यहां आपका धर्म की किसी को फिक्र नहीं थी और अगर आप अपने आपको धार्मिक दिखलायेंगे तो खुद मुस्लिम समाज भी आपको पिछड़ा और रूढ़िवादी सोच का मानेगा। धीरे-धीरे मेरे अंदर के मुसलमान को बड़े शहर की चकाचौंध ने पीछे धकेल दिया। हाथ से खाना अब चम्मच में बदल चुका है और झटका मीट दिल को अब परेशान नहीं करता है। मैं भी अपने भाइयों और दोस्तों के साथ बैठकर मौलानाओं को उल्टा सीधा जो मन में आये बोलने लगा हूं। अब मौलाना शहीद से बढ़कर नहीं बल्कि शहीद करने लायक बन चुका है।
मुझे अपने एक रिश्तेदार की शादी में सुल्तानपुर जाना है। शायद मैं इमाम साहब से मिलूं या ना मिलूं क्योंकि अम्मी के बाद जिसने सबकुछ सिखाया उसको इतना भला बुरा कह चुका हूं कि मेरे अंदर उनकी आंखों में देखने की हिम्मत नहीं है। और अगर उन्होंने कलमा सुन लिया तो फिर क्या करूंगा।