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सहकारिता बैंक के निदेशक अमित शाह थे, इस वजह से हटाई गई वहां जमा काले धन की खबर?

मुंबई के आरटीआई कार्यकर्त्ता मनोरंजन एस.रॉय द्वरा आरटीआई के तहत प्राप्त जानकारी के अनुसार 8 नवंबर 2016 को नोटबंदी लागू होने से लेकर 14 नवंबर 2016 तक अहमदाबाद ज़िला सहकारिता बैंक में 745.9 करोड़ और राजकोट के ज़िला सहकारिता बैंक में 693 करोड़ जमा हुए हैं। यह खबर 22 जून 2018 को समाचार एजेंसी आईएएनएस ने प्रकाशित की थी।

साधारण सी यह खबर चर्चा में इसलिए आई क्योंकि बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह अहमदाबाद ज़िला सहकारी बैंक लिमिटेड (एडीसीबी) के निदेशक हैं।

यह बेहद अजीब बात है कि कई समाचार पोर्टलोंं ने पहले तो इस खबर को प्रकाशित किया फिर बिना कोई कारण बताए पोर्टल से हटा दिया। क्या इस तरह से खबरों को गायब करने वाली मीडिया संस्थान खुद को निष्पक्ष और विश्वसनीय होने का दावा करने का हक भी रखती हैं?

इस आरटीआई खुलासे पर औपचारिक बयान जारी करते हुए नाबार्ड एक सरकारी संस्था जो सहकारी बैंकों की निगरानी करती है, ने नोटबंदी के दौरान अहमदाबाद बैंक की प्रतिबंधित नोटों को बदलने की प्रक्रियाओं को सही ठहराया।  8 नवंबर 2016 की रात को सभी 500 रुपये और 1,000 रूपए के नोटों को वापस लेने की घोषणा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने की थी।

नोटबंदी का उद्देश्य बताया गया कि इससे देश के अंदर छुपे कालेधन का पता चलेगा लेकिन 99 प्रतिशत पुराने नोट वापस बैंक में जमा हो गए। कालेधन का तो पता नहीं लगा लेकिन राजनैतिक नौटंकी जमकर हुई।

नोटबंदी की घोषणा के बाद पूरे देश में पुराने नोट बदलने के लिए हलचल सी मच गई थी और लोगों को पुराने नोट को नए नोटों से बदलने के लिए, बैंकों की लंबी लाइनों में घंटों खड़े रहकर संघर्ष करना पड़ा।

जहां आम जनता और बैंक कर्मचारी नोट बदलने के काम से परेशान दिखे वहीं एक छोटे सहकारी बैंक में 745.9 करोड़ की बड़ी राशि का जमा होना क्या संदिग्ध नहीं लगता? वो भी महज़ पांच दिनों में।

नाबार्ड ने अपने औपचारिक बयान में बताया कि अहमदाबाद ज़िला मध्यवर्ती सहकारी बैंक में 100% सत्यापन किया गया, जिससे यह तथ्य सामने आया कि बैंक ने विमुद्रीकृत नोटों को स्वीकार करते समय भारतीय रिज़र्व बैंक के सभी केवाईसी दिशानिर्देशों का अनुपालन किया था। विद्यमान दिशानिर्देशों के अंतर्गत अपेक्षा के अनुरूप नाबार्ड द्वारा किए गए सत्यापन की रिपोर्ट के अनुसार बैंक ने जहां भी अपेक्षित था एफआईयू-इंडिया को अपेक्षित नकदी लेनदेन रिपोर्ट (सीटीआर) और एसटीआर भी प्रस्तुत की थी।

सवाल यह है कि जब एडीसीबी द्वारा नकदी लेनदेन की रिपोर्ट एफआईयू-इंडिया को भेजी गई थी जिसमें बड़ी जमा राशि को हाइलाइटकर प्रस्तुत किया गया था तो क्या किसी ज़िम्मेदार अधिकारी ने पूछताछ की और कार्यवाही हुई?

नाबार्ड ने कहा है कि एडीसीबी को कुल 16 लाख जमा खातों में से केवल 1.60 लाख यानी 9.37% ग्राहकों ने ही नोट बदलने/ जमा करने का काम किया। इनमें से भी जिन खातों में नोट जमा किए/ बदले गए उनमें से 98.66% में रु. 2.5 लाख से कम रकम जमा की गई। बैंक के कुल खातों में से 0.09 % खाते ही ऐसे थे जिनमें रु. 2.5 लाख से अधिक रकम जमा की गई।

क्या उन सभी को चिहिन्त कर उनकी जांच की गई, क्या पांच दिनों में सभी 16 लाख खाताधारकों ने अपने पुराने नोट जमा कर दिए? यदि ऐसा नहीं तो किस आधार पर नाबार्ड ने 750 करोड़ रुपए जमा होने के बाद भी जामा राशि को औसत कहा?

ज़िला सहकारी बैंकों में जमा की घोषणा के 5 दिनों के भीतर प्रतिबंध लगा दिया गया था। जब सभी नियम का पालन हो रहा था, तो प्रतिबंध क्यों लगाया गया? एडीसीबी ने इन पांच दिनों में लगभग 745.9 करोड़ रुपये का कारोबार किया, जो 31 मार्च 2017 को 5050 करोड़ रुपये की कुल जमा राशि का लगभग सातवां हिस्सा है। क्या एडीसीबी के खाताधारक को यह जानकारी पहले से थी कि सहकारी बैंक में पुराने नोट का लेनदेन सिर्फ पांच दिनों तक होगा?

सरकार ने अभी हाल ही में नोटबंदी के बाद 20 लाख रुपये से ज़्यादा जमा करके चुप्पी साधने वाले 2 लाख लोगों को नोटिस थमाया है। गड़बड़ी करने वालों पर कार्रवाई करना इनकम टैक्स डिपार्टमेंट (सीबीडीटी) की इस वर्ष की एक महत्वपूर्ण प्राथमिकता है। इसके अतिरिक्त, सेंट्रल बोर्ड ऑफ डायरेक्ट टैक्सेज़ देशभर में छापे मार रहा है ताकि नोटबंदी में खेल करने वाले बेफिक्र होकर घूमते नहीं रहें। क्या इन 2 लाख लोगों में एडीसीबी के भी खाताधारक हैं?

कुल मिलाकर नाबार्ड के स्पष्टीकरण के बाद आरटीआई से उठे सवाल और उलझ गए ऐसा लगता है। नाबार्ड यदि इस बात का स्पष्टीकरण देता है कि अमित शाह जो देश के प्रभावशाली व्यक्ति हैं उन्होंने बतौर निदेशक एडीसीबी को प्रभावित किया था या नहीं तो शायद कुछ वाज़िब बात लगती।

नोटबंदी करने के जो मकसद सरकार ने गिनाए वो सब जुमला साबित हुआ। ना तो कोई काला धन मिला, ना नकली नोट मिले, ना आतंकवादी गतिविधियां कम हुई और ना ही नक्सलियों की कमर टूटी। कैशलेस की बात भी हवा हवाई ही निकली। नोटबंदी के दौरान कष्ट भोगी देश की आम जनता अब जानना चाहती है कि आखिर नोटबंदी से हासिल हुआ क्या? कहीं ऐसा तो नहीं कालेधन को सफेद करने का यह राजनैतिक खेल था जिसमें सैंकड़ों गरीब की बलि दे दी गई?

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