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दिव्यांका की कविता: “आओ आज फिर से बच्चे बन जाए”

लहरों को छूने की बेताबी के साथ पानी के करीब जाए,

पर उनके पास आने पर चिल्लाकर दूर भाग जाए

आओ आज फिर से बच्चे बन जाए।

 

फेरीवाले से बुलबुले खरीदे लाए, खोमचे वाले से गुब्बारे,

बुलबुलों और गुब्बारों के साथ पूरे घर में धूम मचाए

बेफिक्र हो सड़कों पर दौड़ लगाए और जब गाड़ी आए रेत के टीले पर चढ़ जाए

आओ फिर वे बच्चे बन जाए।

 

मां की डांट से बचने साईकल ले गलियों में घूम आए

और गिर पड़े तो रोकर उसी के आंचल में छुप जाए

दोस्त से लड़कर मुंह फुलाकर बैठ जाए

पर अगले ही दिन उसी के साथ क्रिकेट में सबको हराए

आओ आज फिर से बच्चे बन जाए।

 

बड़े-बड़े आंसू टपका कर कुल्फी के लिए शोर मचाये

और फिर एक मासूम मुस्कान के साथ छुपकर मज़े से खाये

देर रात तक पापा के साथ पिक्चरों के मज़े उठाये

और जब नींद आ जाए

उन्हीं की गोद में सर रखकर, सपनों की दुनिया में कहीं गुम हो जाए।

 

एक बुरा सपना देखकर, पलंग के नीचे छुप जाए,

कोई जब फुसलाने आए तो, उनकी आगोश में ही खो जाए

आओ आज फिर से बच्चे बन जाए।

 

हर घड़ी, हर पल, आज़ाद पंछी की तरह,

ज़िन्दगी जीते जाए,

ठोकर लग जाये तो ज़ख्म पोछकर

आगे बढ़ जाए

उलझने बहुत बढ़ गयी हैं ज़िंदगी में

उन्हें कोई जिगसॉ पज़ल की तरह मिनटों में सुलझाये

क्या करेंगे बड़ों की ज़िन्दगी जीकर

खिलौनों और चॉकलेट्स की उसी दुनिया में वापस चले जाए

आओ आज फिर से बच्चे बन जाए।

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