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सैनेटरी पैड्स से जुड़े वे मुद्दे जो इसके GST फ्री होने पर हमें भूलने नहीं चाहिए

पैडमैन फिल्म के बाद सैनेटरी नैपकीन एक बार फिर से चर्चा का विषय बना हुआ है। जीएसटी काउंसिल की 28वीं बैठक के फैसले पर महिलाएं शुक्रिया अदा कर रही हैं, क्योंकि सैनेटरी पैड पर जीएसटी 12 फीसदी से घटाकर शून्य कर दिया गया है।

गौरतलब है कि मौजूदा सरकार ने ही सैनेटरी पैड को जीएसटी के दायरे में रखकर इसपर 12 प्रतिशत टैक्स वसूल करने का फैसला किया था और सैनेटरी पैड को लग्ज़री आइटम में रखा था। सरकार के इस फैसले का महिलाओं द्वारा व्यापक विरोध किया गया था। देश के न्यायालयों में जनहित याचिका डाली गई थी और सोशल मीडिया पर #LahuKaLagaan, #DontTaxMyPeriod जैसे अभियान चल रहे थे, जिसमें आम लोगों के साथ-साथ सेलिब्रिटीज़ ने बुलंद आवाज़ में सरकार के फैसले पर विरोध दर्ज किया था।

पिछले दिनों केंद्रीय वित्त मंत्री पीयूष गोयल ने जीएसटी काउंसिल की 28वीं बैठक में सैनेटरी नैपकिन को जीएसटी के दायरे से बाहर कर दिया है। इसके पहले सरकार और विपक्ष दोनों की तरफ से ही इसके लिए सिफारिश की जा रही थी। अब इस फैसले का महिलाओं के बीच व्यापक स्वागत किया जा रहा है।

यहां मेरा सवाल यह है किन महिलाओं के बीच इस फैसलों का स्वागत हो रहा है? ज़ाहिर है उन महिलाओं के बीच जो सैनेटरी नैपकीन का इस्तेमाल कर पाती हैं। जो कमोबेश देश की कुल महिलाओं की आबादी में मात्र 12% हैं। क्योंकि शेष 88% महिलाएं आज भी माहवारी के दौरान परंपरागत साधनों का उपयोग करती हैं, जो महिलाओं के स्वास्थ्य के नज़रिये से हानिकारक है।

वास्तव में समझने वाली बात यह है कि सैनेटरी पैड्स की पहुंच भारत की हर महिलाओं तक है ही नहीं। सैनेटरी पैड्स का जीएसटी टैक्स के दायरे से बाहर आ जाना महिला स्वास्थ्य की दिशा में बहुत छोटी सी सफलता है, यह लड़ाई बहुत बड़ी है।

आंकड़ें बयां करते हैं कि महिलाओं की कुल जनसंख्या का 75% आज भी गांवों में है और उनमें सिर्फ दो प्रतिशत ही सैनेटरी नैपकिन का इस्तेमाल करती हैं। सामाजिक परिवर्तन की दिशा में कार्यरत संस्था डासरा की 2016 की रिपोर्ट के अनुसार भारत में करीब 20 करोड़ लड़कियां मेंस्ट्रुअल हाइजीन और शरीर पर पड़ने वाले प्रभाव से अनजान है।

सैनेटरी पैड्स की जागरूकता के लिए “मुहीम” संस्था की स्वाति सिंह बताती हैं,

हमें यह समझने की ज़रूरत है कि पीरियड्स का संबंध सिर्फ कपड़े और सैनेटरी पैड्स तक सीमित नहीं है। ना ही यह सिर्फ दाग और दर्द का मामला है। यह सामाजिक और सांस्कृतिक विरोधाभास का भी एक अहम मसला है, इसके लिए बहस का दायरा अधिक बड़ा करने की ज़रूरत है।

बिहार में महिला सशक्तिकरण प्रोग्राम के तहत ग्रामीण महिलाओं से संवाद कायम करने के दौरान एक महिला साथी ने मुझे बताया कि सशक्तिकरण प्रोग्राम की ट्रेनिंग के दौरान एक महिला बार-बार तबीयत खराब होने के कारण घर जाने की इजाज़त मांग रही थी। पता चला कि पीरियड्स की वजह से उस औरत की तबीयत खराब है। इसके बाद मेरी दोस्त ने उस औरत को पैड थामाया। पैड देखते के साथ ही उस ग्रामीण महिला ने मेरी दोस्त से पूछा, “दीदी, ये क्या है? इसका क्या करना है?” ये सुनकर मेरी दोस्त भौचक्का रह गई।

फिर मेरी उस दोस्त ने उस ग्रामीण महिला को पैड इस्तेमाल करने का तरीका बताया और मन ही मन यह सोचने लगी कि पीरियड्स के दिनों में गरीब महिलाओं की हकीकत, तरक्की के दावों के सारे पेंच खोल देती है। जो महिला अपने स्वास्थ्य के बारे में, मेंस्ट्रुअल हाइजीन के बारे में, सैनेटरी पैड के बारे में जानकारी नहीं रखती है, वो सशक्त किस परिभाषा से हो सकती है?

मेंस्ट्रुअल हाइजीन और निम्न आय वर्ग की महिलाओं के लिए सैनिटरी पैड उपलब्ध कराए जाने पर सालों से बहस चल रही है। कुछ राज्य सरकारें इस तरफ काम भी कर रही हैं परंतु, आर्थिक कारणों से निम्न आय वर्ग की महिलाओं तक पैड्स की पहुंच, जानकारी के अभाव और पारंपरिक टैबूज़ के कारण अभी भी महिलाओं के स्वास्थ्य के लिए एक अनसुलझी पहेली की तरह है।

ज़ाहिर है समाज और सरकार को स्वच्छता अभियान के साथ-साथ इन महिलाओं की सुरक्षा के बारे में गंभीरता से सोचकर कुछ उपयोगी कदम उठाने होंगे। पैड्स हर किसी के लिए उपलब्ध नहीं है, लोगों को जानकारी नहीं है, सस्ते पैड्स बाज़ार में उपलब्ध हैं, घर-घर बन भी रहे हैं, लेकिन कहां? उनके बारे में कोई प्रचार प्रसार नहीं है, जिसकी वजह से महिलाओं को ये नहीं पता कि उन्हें खरीदें कहां से? माहवारी जागरूकता के विषय पर पैड्स का लग्ज़री आइटम्स से बाहर आना बहुत छोटी जीत है यह लड़ाई अभी बहुत बड़ी है।

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