पिछले हफ्ते एक साक्षात्कार परीक्षा में चयनकर्ता की भूमिका निभायी। अन्य साक्षात्कारों की तरह यहां भी आरंभ में सभी अभ्यर्थियों से कहा गया कि वे अपने बारे में बताएं। इस साक्षात्कार के प्रतिभागी विद्यार्थियों द्वारा पहचान के बारे में दी गयी सूचनाओं का विश्लेषण युवाओं और उनकी पहचान के बारे में काफी कुछ कहता है। उनकी ये पहचान केवल उनका संदर्भ नहीं थी बल्कि वे ऐसे सामाजिक चलन का हिस्सा थीं जहां खुद की प्रस्तुति और पहचान को अधिक मूल्यवान सिद्ध करने की चाह थी।
संवाद के दौरान विद्यार्थियों ने परिवार, क्षेत्र, शैक्षिक पृष्ठभूमि, अकादमिक उपलब्धियों आदि का उल्लेख किया। इन पहलुओं में महत्ता का एक क्रम था। महानगरीय पृष्ठभूमि वाले विद्यार्थियों के लिए अपने महानगर और उस महानगर में स्थित विश्वविद्यालय से पढ़े होना महत्वपूर्ण था। ऐसे विद्यार्थी परिचय के शुरूआत में ही बताते कि वे महानगर में पढ़े-लिखे और बड़े हुए हैं। ग्रामीण या कस्बाई परिवेश के अधिकांश विद्यार्थियों ने परिचय के आरंभ में परिवार की पृष्ठभूमि बतायी। इसमें पिता का नाम और व्यवसाय मुख्य संकेतक थे। अपनी शैक्षणिक पृष्ठभूमि को इन विद्यार्थियों ने माध्यमिक कक्षा से लेकर स्नातक तक प्राप्तांकों के प्रतिशत के साथ बताया।
इन दोनों पैटर्नों से स्पष्ट है कि नगरीय पृष्ठभूमि वाले विद्यार्थियों का नगरीय होना व किसी प्रतिष्ठित संस्थान का विद्यार्थी होना उनकी पहचान का मूल्य है जबकि ग्रामीण और कस्बाई पृष्ठभूमि के विद्यार्थियों के लिए परिवार, गांव और शैक्षिक उपलब्धि पहचान का सबल पक्ष है जिसके मूल्य को वे भुनाना चाह रहे हैं। तभी तो नगरीय परिवेश के विद्यार्थी संस्थान के नामोल्लेख से संतुष्ट थे जबकि ग्रामीण परिवेश के विद्यार्थी प्राप्तांक का प्रतिशत बताने को उतावले थे।
नगरीय विद्यार्थी शिक्षितों के बीच पहचान व्यक्त करने की कुशलता के विशेषज्ञ थे। इसी कारण वे औपचारिक संवाद में परिवार की पहचान को अधिक महत्व नहीं दे रहे थे। खुद को अधिक स्वतंत्र रूप से परिभाषित कर रहे थे। यह प्रवृत्ति शिक्षित व्यक्ति की निगोसिएशन दक्षता का प्रमाण है जो उन्होंने अपने संस्थानों या परिवार से सीखी होगी। जबकि ग्रामीण परिवेश के विद्यार्थियों ने आम बातचीत की शैली में परिवार, भाई-बहन और गांव के नाम आदि का उल्लेख किया।
संवाद की दक्षता के अलावा ये जवाब सामाजिक ताने-बाने में व्यक्ति की स्थिति को रेखांकित करते हैं। नगरीय परिवेश के विद्यार्थी जो एकल परिवारों से हैं या जो एक लंबे समय से परिवार से दूर छात्रावास में विद्यार्थी जीवन व्यतीत कर रहे हैं उनमें एक आधुनिक स्वायत्त व्यक्ति ने जन्म लिया है जो सामाजिक बंधनों से अपेक्षाकृत स्वतंत्र है लेकिन ग्रामीण पृष्ठभूमि का विद्यार्थी जैविक परिपक्वता के बावजूद सामाजिक निर्भरता और संबद्धता को स्वीकार रहा है।
इन युवाओं ने खुद की उपलब्धियों या क्षमताओं पर पृष्ठभूमि का मुखौटा भी लगाने का प्रयास किया। एक छात्रा के पिता अधिकारी थे और उसने एक केन्द्रीय विश्वविद्यालय से पढ़ाई की थी। अपना परिचय देते हुए उसने पिता की पहचान को संस्थान के बदले अधिक महत्व दिया। इससे उलट एक अन्य छात्र के पिता किसान थे उसने भी केन्द्रीय विश्वविद्यालय से पढ़ाई की थी। उसने परिचय में पिता की अशिक्षा और बेराज़गारी का उल्लेख करते हुए सहानुभूति पाने की कोशिश की। ये दोनों विद्यार्थी अपनी निजी उपलब्धियों और अभिप्रेरणाओं के बदले पिता की पहचान के सहारे खुद की विशिष्टता सिद्ध करना चाह रहे थे। पहली छात्रा जहां पिता के अधिकारी होने से अपनी सामाजिक श्रेष्ठता की ओर इशारा कर रही थी वहीं दूसरा छात्र पिता के किसान होने के कारण अपने को कमज़ोर और याचक की मुद्रा में प्रस्तुत कर रहा था। ये दोनों तरह की पहचानें चरम स्थितियों को दिखाती है जहां प्रस्तोता खुद में शून्य है और ऐसा संबल खोज रहा है जिससे ताकत का रौब या सहायता की सहानुभूति पा सके।
किसी विद्यार्थी द्वारा अपने पिता की प्रभावपूर्ण पहचान का सहारा लेना खुद उसके वजू़द को कमज़ोर करता है। एक युवक द्वारा अपनी पृष्ठभूमि का हवाला देकर अपनी असफलताओं और कमजोरियों को छुपाना खुद उसे कमज़ोर सिद्ध करता है। इस तरह के विचार रखने वाले युवाओं को सोचना चाहिए कि एक वयस्क के रूप क्या उनकी कोई ऐसी उपलब्धि है जो उनकी पहचान को विशिष्ट बनाए? मैंने खुद से यही सवाल किया। मेरे उत्तर में भी शैक्षिक पृष्ठभूमि और पारिवारिक परिवेश के घटक थे। इन युवाओं के स्थान पर यदि मैं होता तो मैं भी अपनी योग्यता के प्रमाण में शक्ति सूचक शैक्षिक उपाधियों और उपलब्धियों का उल्लेख करता। मैं भी उन युक्तियों का प्रयोग करता जिससे साक्षात्कार में मेरी पहचान इतनी मज़बूत सिद्ध हो कि सफलता सुनिश्चित हो जाये।
इस दिशा में सोचने पर नया सवाल पैदा होता है कि यदि हम युवाओं के पास औपचारिक शिक्षा से संबंधित डिग्रियां ना हो तो हमारी पहचान क्या होगी? शिक्षा ने हमारी पहचान को एक फ्रेम दिया है जिसमें हम अपनी तस्वीर देखते हैं। इस तस्वीर की चमक, धुंधलापन और लंबाई-चौड़ाई व्यक्ति के वास्तविक रूप को ना दिखाकर संशोधित (एडिटेड) रूप को दिखाते हैं। मानो कि किसी फोटो स्टूडियो (शैक्षिक संस्थान) ने काट-छांट कर एक सज्जित फोटो फ्रेम सौंप दिया हो।
हम युवा इस फ्रेम का खरीददार खोजने में अच्छी-खासी ऊर्जा का निवेश कर रहे हैं। साक्षात्कार जैसे अवसरों पर खुद की मार्केंटिंग कर रहे हैं। पर्दे के पीछे जोड़-तोड़ का रास्ता तलाश रहे हैं। यह चलन हमारे समय की स्थापित प्रक्रिया जैसा स्वीकार्य होता जा रहा है। हमारी मूल्यवान पहचान का बिकना हमें और मूल्यवान बना रहा है। इस नये मूल्य को हम अपनी सी.वी. (आत्मवृत्त) में जोड़कर पहचान के फ्रेम को मज़बूत करने में व्यस्त है। ऐसा जान पड़ता है कि पहचान का मूल्य निर्धारण, इसकी खरीद-फरोख्त ही आज के सार्वजनिक जीवन की सच्चाई है।