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“क्या है धारा 377, इसका इतिहास और वर्तमान बहस”

भारत एक लोकतांत्रिक देश है जहां संविधान हर नागरिक को मूलभूत अधिकार देने का विश्वास दिलाता है। पर सच्चाई यह है कि इस विशाल लोकतंत्र में नागरिकों को अपनी मर्ज़ी का हमराही चुनने का भी अधिकार नहीं है। अगर तीखे लहज़े में कहूं तो भारत मे प्यार करना जुर्म है।

जी हां, मेरा इशारा LGBTQ समुदाय की ओर है, जो भारत के नागरिक होते हुए भी यहां के संविधान से मिलने वाले अपने अधिकारों से वंचित हैं। इतना ही नहीं, भारत के संविधान मे IPC (इंडियन पीनल कोड) धारा 377 के तहत समलैंगिकता को अपराध ठहराया गया है।

भारत के कानून की धारा 377 पर कोई भी टिप्पणी करने से पहले बेहतर होगा कि आप इसके कुछ महत्वपूर्ण पहलुओं और तत्वों से वाकिफ हो जाएं। अगर हम इतिहास में जाएं तो यह जान पाएंगे कि धारा 377 को रानी विक्टोरिया के ब्रिटिश शासन के दौरान सन् 1861 में जबरन लागू किया गया था। इसके तहत अगर कोई इंसान स्वेच्छा से अप्राकृतिक शारीरिक संबंध किसी महिला, पुरूष, या जानवर के साथ स्थापित करता है तो उसे 10 साल से लेकर आजीवन कारावास के साथ जुर्माने का भी प्रावधान है। सबसे कठोर तत्व तो यह है कि धारा 377 के अंतर्गत समलैंगिकता, एक गैरजमानती अपराध है।

इस कानून के खिलाफ जारी संघर्ष के इतिहास की बात करें तो, दिल्ली हाईकोर्ट ने जुलाई 2009 मे समलैंगिक सेक्स को यह कहते हुए वैध करार दिया था कि, “धारा 377 असंवैधानिक है और यह भारत के संविधान द्वारा अपने नागरिकों को दिए मूलभूत अधिकारों का अतिक्रमण है।” कोर्ट ने LGBTQ समुदाय के हक में फैसला सुनाते हुए धारा 377 को समाप्त कर दिया था।

फिर दिसंबर 2013 में आए सुप्रीम कोर्ट के महत्वपूण निर्णय ने दिल्ली कोर्ट के फैसले को खारिज करते हुए धारा 377 को वापिस बहाल कर दिया। सुप्रीम कोर्ट के इस यू-टर्न ने एक बार फिर LGBTQ समुदाय को कानून के कटधरे मे खड़ा कर दिया। हाईकोर्ट के उस बेंच की अगुआई करते जस्टिस जी.एस सिंघवी ने फैसले पर दलील पेश करते हुए कहा था कि, कानून में बदलाव करने का हक सिर्फ कानून बनाने वालों का है, जजों का नहीं।”

लोगों की भीड़ मे दबी LGBTQ समुदाय की हक की आवाज़, धीरे-धीरे खुलकर सामने आने लगी। 11- दिसम्बर 2013 को LGBTQ समुदाय ने प्रर्दशन किया और नाज़ फाउंडेशन ने कोर्ट मे समलैंगिकता को जुर्म करार देने वाले फैसले के खिलाफ उपचारात्मक याचिका (क्यूरिटिव पिटिशन) दायर की। नाज़ फाउंडेशन और LGBTQ समुदाय की कानून के खिलाफ जंग वर्षों से जारी है। और फिलहाल इसपर सुनवाई भी सुप्रीम कोर्ट में चल रही है।

LGBT समुदाय का यह संघर्ष सिर्फ भारत में ही नही बल्कि पूरी दुनिया मे जारी है, तो आईए कुछ विकसित देशों में LGBTQ समुदाय के अधिकारों पर गौर करते हैं। इस क्रम मे सबसे पहले रुख संयुक्त राज्य अमेरिका का करते हैं, जहां की कुल जनसंख्या लगभग 32.31 करोड़ है, जिसमें करीब 3% लोग LGBTQ समुदाय से आते हैं। अमेरिका में सन् 2013 से वयस्कों के लिए समलैंगिकता वैध है। सितंबर 2011 में बने “डोंट आस्क, डोंट टेल” नीति के तहत समलैंगिकों को देश की सैन्य सेवाओं में नौकरी करने का अधिकार है। अमेरिका के कई राज्यों में समलैंगिक जोड़ों को शादी कर परिवार बनाने का भी अधिकार प्राप्त है।

अब अगर यू.के. (यूनाइटेड किंगडम) या ब्रिटेन की बात करें तो वहां की कुल जनसंख्या लगभग 6.49 करोड़ है और कुल जनसंख्या का 1.5% LGBTQ समुदाय से आता है। समलैंगिकता, इंग्लैंड और वेल्स में 1967 से, स्कॉटलैंड मे 1981 से और नार्थन आयरलैंड में 1982 से वैध है। सन् 2005 से पूरे यू.के. के संविधान मे समलैंगिक जोड़ों को पहचान देने का प्रावधान है।

सन् 2000 से LGBT+ वर्ग को यू.के. की सैन्य सेवाओं में नौकरी करने का अधिकार प्राप्त है। मूलभूत अधिकार को मद्देनज़र रखते हुए सन् 2014 से इंग्लेंड, वेल्स और स्काटलैंड में समलैंगिक जोड़ों को शादी कर परिवार बसाने का अधिकार है। साथ ही में यह भी उल्लेखनीय है कि इंग्लेंड और वेल्स में सन् 2005, स्कॉटलैंड में सन् 2009 और नॉर्दन आयरलैंड में सन् 2013 से समलैंगिक जोड़ों का संयुक्त रूप से बच्चा गोद लेना कानूनी रूप से वैध है।

इसी कड़ी में अगर चीन में कानून की बात करें तो पूरे चीन में 2002 से समलैंगिकता वैध है। दक्षिण अफ्रिका के कानून की बात करे तो वहां भी समलैंगिकता, समलैंगिक जोड़ों का विवाह और बच्चे गोद लेना कानूनी तौर पर वैध है।

भारत सरकार ने 2012 में सुप्रीम कोर्ट को एक आंकड़ा मुहैया कराया था, जिसके मुताबिक भारत मे लगभग 25 लाख समलैंगिक लोग दर्ज किए गए थे। यह धारा 377 जिसके शासन काल मे लागू किया गया था, उस रानी विक्टोरिया के अपने देश ने भी इसे समाप्त कर दिया है। पर हमारा दुर्भाग्य है कि हम आज भी उसी मैले कानून का पालन कर रहे हैं जिसका आस्तित्व अंतराष्ट्रीय स्तर पर समाप्त करने के प्रयास जारी हैं। भारत के कानून को अब यह समझना होगा कि इतने बड़े समुदाय के अधिकारों को अनदेखा करना लोकतंत्र की गरिमा का अपमान होगा।

आज भारत हर राह पर विकास तो कर रहा है पर कहीं ना कहीं लोगों की सोच आज भी ज़्यादा बदली नहीं है। धारा 377 के सर्मथन में कुछ कथित तौर से महान पुरुषों नें अपना तर्क रखा है, जैसे समलैंगिकता अप्राकृतिक है, समलैंगिकता पश्चिमी सभ्यता की देन है, समलैंगिकता वैध करने से एक दिन पूरा देश समलैंगिक हो जाएगा, समलैंगिकता वैध करने से बच्चों और युवा पीढ़ी पर गलत असर पड़ेगा आदि।

योग गुरू बाबा रामदेव का कहना है कि समलैंगिकता एक रोग है जिसका कोई उपचार नहीं है। ऐसे महान बुद्धिजीवियों को कोई इतनी सी बात क्यों नहीं समझाता कि समलैंगिकता एक प्राकृतिक तथ्य है यह केवल इंसानो में ही नहीं, बल्कि जानवरों में भी पाया गया है। समलैंगिकता कोई सभ्यता नहीं जिसे अपनाया गया है बल्कि यह हज़ारों सालों से चला आ रहा एक प्राकृतिक तथ्य है। किसी निर्धारित उम्र में नहीं बल्कि समलैंगिक रूझान बचपन से देखा जा सकता है।

आज भारत मे कुछ समलैंगिक लोग समाज के डर से और कुछ आई.पी.सी. की धारा 377 के डर से अपनी पहचान छुपा कर खुद में ही घुट-घुट कर जी रहे हैं। एक दिन समाज में पहचान छुपाने के लिए शादी के बंधन मे भी बंध जाते हैं। इस झूठे दिखावे के चलते दो ज़िंदगी बरबाद हो जाती है। अगर हिम्मत करके वे अपने परिवार से बता देते हैं कि वे समलैंगिक हैं तो उनका परिवार समाज में प्रतिष्ठा खोने के डर से पहचान छुपाए रखने का दबाव डालता है। अगर परिवार उनका सर्मथन कर भी देता है, तो फिर लोग उस इंसान के साथ उसके परिवार का भी जीना मुश्किल कर देते हैं। ऐसा कानून, ऐसी दूषित सोच, जिसकी भेंट हज़ारों मासूम जिंदगियां सालों से चढ़ती आई हैं आज भी हमारे समाज मे उसका सम्मान क्यों ?

हम अपनी सोच कब बदलेंगे? सच्चाई यही कहती है कि आज हमारा समाज समलैंगिकता से जुड़े दुराग्रहों की जंग मे इंसानियत को खो रहा है। क्या फर्क पड़ता है अगर कोई समलैंगिक है, यह तो उसका व्यक्तित्व है। हमे तो इस बात से प्रभावित होना चाहिए कि वो किस तरह का इंसान है।

भारत मे दो कानून चलते हैं पहला भारत के संविधान मे लिखा कानून और दूसरा “समाज का कानून”। कभी कभी कुछ लोग संविधान के कानून मे बेगुनाह साबित हो जाते हैं पर समाज का यह मैला कानून उन्हें फिर भी जीने नहीं देता है। एक सत्य यह भी है कि भारत के संविधान में तभी बदलाव आ सकता है, जब भारत के समाज की सोच मे बदलाव आएगा। किसी देश का संविधान हमेशा समाज की सोच का ही प्रतिबिम्ब होता है।

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