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“दूध पिलाती मॉडल के रैम्प वॉक पर बहसों के बीच असली मुद्दा खो गया है”

1. अपने बच्चे को स्तनपान कराती हुई औरत अश्लील लगती है क्या?

2. क्या ये चित्र समाज के अस्तित्व को खतरा पहुंचाती है?

3. क्या चल रहा होता है औरत के दिमाग और शरीर में जब वो बच्चे को स्तनपान करा रही होती है?

इस समय इंटरनेट पर एक तस्वीर वायरल हो रही है। अमेरिकी मॉडल मारा मार्टिन अपनी 5 महीने की बच्ची को स्तनपान कराती हुईं रैम्प वॉक कर रही हैं। बच्चे के कानों पर हेडफोन लगा है ताकि वो शोर से अप्रभावित रहे। फैशन शो को आयोजित करने वाली संस्था ने मारा को अपने बच्चे के साथ देखा था तो उनके दिमाग में इसका आइडिया आया। उनका कहना है कि इससे दुनिया में स्तनपान के प्रति लोगों की जागरूकता बढ़ेगी। न्यूज़ के लिए हंग्री वेबसाइटों ने तुरंत इसे सशक्तीकरण और ब्रेकिंग स्टीरियोटाइप्स, नॉर्मलाइज़ ब्रेस्टफीडिंग की हेडिंग्स से प्रोमोट किया। वहीं गाली देने को बेताब लोगों ने इसपर जमकर गाली भी दी कि ये क्या ड्रामा हो रहा है।

इसके कुछ महीने पहले इंडिया में भी एक तस्वीर छपी थी। केरल में प्रकाशित होने वाली गृहलक्ष्मी मैगज़ीन के कवर पर मॉडल गिलु जोसफ बच्चे को छाती से लगाए कैमरे की ओर देख रही हैं। इस तस्वीर के साथ लिखा है, “माएं केरल से कह रही हैं, घूरो मत, हम स्तनपान कराना चाहती हैं”। इस तस्वीर को लेकर भी कुछ ऐसे ही डिबेट हुए थे।

अंत में हुआ यही कि बच्चे को दूध पिलाने जैसी नैसर्गिक और डी-सेक्सुअलाइज़्ड घटना सेक्सुअल एंगल से देखी जाने लगी। इसमें दूध पिलाने के पीछे की शारीरिक और मानसिक ज़रूरतें पीछे रह गईं।

अमेरिका और यूरोप में स्तनपान को लेकर बहस उठती रहती है। वहां का समाज पब्लिक प्लेस में दूध पिलाने को गलत मानता है। अक्सर वहां से खबरें आती हैं कि रेस्टोरेंट्स, बैंकों इत्यादि से दूध पिलाती औरतों को बाहर कर दिया गया। हालांकि यूनाइटेड स्टेट्स के कई राज्यों ने मांओं को ब्रेस्ट फीडिंग के लिए कानूनी अधिकार दिए हैं पर समाज ने अभी तक पूरी तरह इस चीज़ को स्वीकार नहीं किया है।

इन देशों में ऑफिस जाने वाली महिलाएं ज़्यादा हैं। अधिकांश महिलाएं बच्चा जनने के बाद तुरंत काम पर लौट आती हैं। तो वहां स्तनपान के प्रति नकारात्मक सामाजिक अवधारणा के चलते औरतों को बहुत दिक्कत होती है। समय-समय पर वहां इस प्रथा के खिलाफ प्रोटेस्ट भी होते हैं।

ये आश्चर्य की बात है कि औरतों के कम कपड़ों और क्लीवेज़ दिखाने जैसे मुद्दों पर मॉडर्न अप्रोच रखने वाले देशों में स्तनपान को लेकर इस प्रकार की बहस हो रही है। अब तो अमेरीका में बहस बच्चे पैदा ना करने पर पहुंच गयी है। बच्चा ना पैदा करना अब औरतों का अधिकार बन रहा है। नेशनल सेंटर फॉर हेल्थ स्टैटिक्स के मुताबिक साल 2017 में अमेरिका में पैदा होने वाले बच्चों की संख्या पिछले तीस सालों में सबसे कम थी। पर भारत में ये बात नहीं है। यहां अलग ही मुद्दे हैं।

क्या भारत में पब्लिक स्पेस में स्तनपान सच में एक टैबू है?

राजस्थान से संबंध रखने वाले बिश्नोई समाज की महिलाएं हिरण के बच्चों को भी दूध पिलाती हैं। इंसान के बच्चे को स्तनपान कराते हुए ढककर रखना आसान बात हो सकती है लेकिन, एक हिरण के बच्चे को ढककर स्तनपान कराना संभव नहीं है। इस समाज की महिलाओं की तस्वीरें सोशल मीडिया पर वायरल होती रहती हैं। इन तस्वीरों को देखकर कहीं से भी यह नहीं लगता है कि इन औरतों को पब्लिक प्लेस में स्तनपान को लेकर कोई शर्मिंदगी है।

गांवों और छोटे कस्बों की महिलाएं स्तनपान को लेकर शहरी महिलाओं की बजाय ज़्यादा सहज हैं। आप खेतों में काम करने वाली औरतों को खुले में स्तनपान कराते हुए देख सकते हैं। हमें कंस्ट्रक्शन की जगहों, बजरी और सीमेंट के ढेर के पास, रोडवेज़ बसों, रेलगाड़ियों से लेकर ऊंट गाड़ियों तक में स्तनपान कराती महिलाएं दिख जाएंगी।

मैंने बचपन से अपने आस-पास के घरों में नानाओं-दादाओं तक को पोते-पोती को दूध पिलाने की बात कहते सुनी है। “ऐ बेटा, इसनै भूख लाग री है, इसने दूध पिला दे”।

इस वाक्य को मैंने कभी सेक्सुअलाइज़ तरीके से नहीं सुना। ना ही इसको लेकर कोई शर्म है। ये घरों में होने वाली नॉर्मल बात है। इंडिया में बहुत हद तक यह टैबू आपको शहरी औरतों के लिए लगेगा। मैंने अपने गांव के लोगों से बात की तो उनका कहना था कि जब से टीवी और वेब की दुनिया गांव-गांव तक फैली है, वहां के लोग भी इस ‘शहरी मैनरिज़्म’ से प्रभावित हो रहे हैं। इसलिए अब उन्हें बड़ों के सामने स्तनपान कराना असभ्यता की निशानी लगने लगी है। पर यहां एक बात ध्यान देने लायक है, इंडिया में स्तनपान कराना टैबू नहीं है, बल्कि खुले में स्तन का दिखना टैबू है। समाज अपेक्षा करता है कि दूध पिलाती औरत अपने स्तनों को ढककर रखें।

स्तनपान कराते समय ढकना क्या व्यक्तिगत चुनाव है?

यह मुद्दा सब्जेक्टिव है। जिस तरह आपको स्तनपान कराती महिलाएं दिख जाएंगी वैसे ही आपको ढककर बच्चे को दूध पिलाने वाली महिलाएं और खुले में बच्चे को स्तनपान कराने वाली महिलाएं मिल जाएंगी। यहां कई चीज़ें काम करती हैं। सबसे पहली तो यह मान्यता कि दूध पीते बच्चे को नज़र लग जायेगी इसलिए ढककर रखो। ज़्यादातर महिलाएं सचेत रहती हैं कि उनके बच्चे को कोई देख लेगा तो उसे टोक लग सकती है। दूसरा पहलू यह भी है कि जैसे दिल्ली में ही रहने वाली हर दूसरी लड़की के कपड़ों की च्वॉइस अलग है, कोई टॉप फुल स्लीव पहनती है तो कोई क्रॉप टॉप। कौन अपने शरीर से कितना सहज है, इस बात से फर्क पड़ता है। कुछ महिलाओं का मानना है कि वो पीठ फेरकर स्तनपान कराने में ज़्यादा सहज हैं। कुछ दुप्पटे से तो कुछ अपने हाथों से ही बच्चा ढक लेती हैं।

स्तनपान एक भावनात्मक काम है

गुरुग्राम में रहने वाली सविता जो एक प्रोफेसर हैं अपने बच्चे के जन्म के ढाई महीने बाद ही उन्होंने अपने काम पर जाना शुरू कर दिया था। उन्होंने बताया कि स्तनपान एक इमोशनल एक्ट है। यह कोई जॉब नहीं है। बच्चे को दूध पिलाकर उन्हें जो सैटिस्फैक्शन मिलता है, उतना उन्हें दूसरे काम से नहीं मिलता। सविता ने पब्लिक स्पेस में भी अपने बच्चे को दूध पिलाया है। उनका व्यक्तिगत चुनाव है कि वो बच्चे को ढककर दूध पिलाए। हालांकि यहां भी च्वॉइस का मसला है। कुछ माएं अपने बच्चों को स्तनपान नहीं कराना चाहती हैं। इसके पीछे कुछ लोग तर्क देते हैं कि इससे फिगर खराब होता है। हालांकि ये बिलकुल व्यक्तिगत बातें हैं और इनका कोई डाटा उपलब्ध नहीं है।

हमारे यहां समस्या इन बहसों से बिल्कुल ही अलग है

भारत में स्तनपान औरतों के स्वास्थ्य का मसला ज़्यादा है। बच्चे को दूध पिलाने के लिए मां का स्वस्थ होना ज़रूरी है। पर हमारे यहां रोज़मर्रा की ज़रूरी कैलोरी ही पूरी नहीं हो पाती है, बच्चे के लिए क्या ही कुछ बनेगा। कमज़ोर औरतों को देखने के लिए हमें किसी डाटा की ज़रूरत नहीं, हम अपने आस-पास ही देख सकते हैं। अगर आंखें बंद करके अपने रिश्तेदारों के बारे में ही सोचें तो एक-दो को छोड़कर ज़्यादा औरतें बीमारियों से ग्रसित ही मिलेंगी। वहीं एक दूसरी समस्या भी है कि कुछ मांओं का दूध अपने बच्चे के लिए काफी होता है और कुछ मांओं में दूध बन ही नहीं पाता है। वहीं कुछ महिलाओं ने बताया कि कई स्त्रियों की छाती में एक्स्ट्रा दूध बन जाता है, जिसे बच्चा पी नहीं पाता है। यह सब बहुत पेनफुल होता है और उन्हें खास दिक्कतें होती हैं। इन चीज़ों के लिए प्राथमिक चिकित्सा केंद्र पर सलाह-उपाय होना चाहिए।

फोटो आभार Flickr

खुले में स्तनपान कराना कितना सुविधाजनक है?

इंडिया अभी औरतों के वॉशरूम को लेकर ही जूझ रहा है। इसलिए कामकाजी औरतों के बच्चों की दिक्कतों को दरकिनार ही कर दिया गया है। खुले में दूध पिलाने को लेकर सारी औरतें सहज भी नहीं हैं। क्योंकि सिर्फ दूध पिलाने तक का ही मसला नहीं है। छोटे बच्चे एक दिन में कई कई बार पेशाब-पॉटी करते हैं। इसके लिए हमारे ऑफिसों में कोई जगह नहीं होती। हमें हर जगह इस चीज़ से जूझती औरतें दिख जाती हैं। हैरान-परेशान, जैसे इस समस्या का कोई निदान ही नहीं है। दिल्ली की वकील नेहा ने हाईकोर्ट में पब्लिक जगहों पर ब्रेस्टफ़ीडिंग सेंटर बनाने के लिए अपने नौ महीने के बच्चे के नाम पर जनहित-याचिका डाली है। इसके बाद दिल्ली हाईकोर्ट ने केंद्र सरकार, दिल्ली सरकार और नगर निकायों को इस संबंध में नोटिस भेजकर जवाब मांगा है।

इनसे जुड़ी 2016 की एक अच्छी खबर भी है। जयपुर मेट्रो ने दूध पिलाने के लिए स्टेशन पर अलग कमरे बनवाए हैं। इन्हें ‘अमृत कक्ष’ कहा जाता है। इसके अलावा अपनी सभी ट्रेनों के पहले औरआखिरी कोच में गर्भवती महिलाओं और दूध पिलाती माताओं के लिए दो-दो सीटें भी आरक्षित की हैं।

फैशन मैगज़ीन्स और वीडियोज़ स्तनपान की किन समस्याओं को संबोधित करती हैं?

मॉडल मारा मार्टिन के रैंपवॉक को कुछ यूं प्रचारितकिया गया कि A woman can do it all. एकऔरत सबकुछ कर सकती है। और ये कोई नई चीज़ नहीं है। पितृसत्ता में ये चीज़ें पहले से ही विद्यमान हैं।

मां बनाकर पराठों की तारीफ, उनके मौजे ढूंढ लाने को जीनियस कह देना, एक ही साथ पापा के चश्मे खोजना और दादी की खिचड़ी बनाना, औरतें सब कामों में मल्टी टास्किंग हैं। इनमें कोई दैवीय शक्ति है, इन्हें हर काम तुरंत, फटाफट और एक साथ करना है। ये बच्चे को पाल-पोसकर बड़ा भी करेंगी और दफ्तर भी जाएंगी। इनके कोई अधिकार नहीं हैं।

अब मार्केट अपने तरीके से इस ‘दैवीय नॉर्म’ को तोड़ मरोड़ कर पेश कर रहा है। जैसे कोई ऐड आएगा दफ्तर जाती प्रेग्नेंट औरत, पेट में सात महीने का बच्चा लिए मेट्रो में जाती औरत, स्तनपान कराती मिनिस्टर। 2017 में ऑस्ट्रेलियन सांसद लैरिसा वाटर्स ने संसद में अपने बच्चे को दूध पिलाते हुए बिल पेश किया था।

इसलिए समय-समय पर आपको ऐसी वीडियोज़ दिखाई देती रहती हैं जिनमें औरतों को कमतर ना दिखाते हुए उन्हें मल्टी टास्किंग दिखाया जाता है। चाहे कपड़ों के ब्रांड हों या ज्वेलरी या फिर सैंडल का। हर ad उन्हें कमतर ना दिखाने की कोशिश में मल्टीटास्किंग इमेज गढ़ देता है जो पहले से ही भारतीय परिवारों में बनी हुई है।

अगर आप भारत के ग्रामीण इलाकों में जाएंगे तो आपको थर्ड जनरेशन की औरतों से यह सुनने को मिल जाएगा कि कैसे वो अपनी प्रेगनेंसी के आठवें महीने में भी पानी भरकर लाती थीं। मैंने खुद अपनी मम्मी और दादी के मुंह से प्रेगनेंसी के दौरान के किए गए सभी कामों की लिस्ट सुनी है, जिमसें फसल की कटाई से लेकर 5 भैंसों के काम तक हैं।

अगर महिलाएं पहले से ही एक साथ यही काम कर रही हैं तो बाज़ार की इन नई वीडियोज़ का औचित्य मुझे समझ नहीं आया। औरतों पर प्रेगनेंसी के दौरान अतिरिक्त ज़िम्मेदारियों का बोझ क्यों? क्यों एक मिनिस्टर 20 मिनट की संसदीय मीटिंग छोड़करअपने बच्चे को दूध नहीं पिला सकती? उसे मीटिंग के दौरान सबके तर्क सुनते हुए ही दूध पिलाना है? क्या यह उसका अधिकार नहीं है कि वह अपने बच्चे को इत्मीनान से स्तनपान कराए?

फैशन मैगजीन्स और शोज इन चीजों को लेकर कितनी गंभीर हैं?

जब से ये फैशन मैगज़ीन्स प्रचलन में हैं, वो औरतों को सेक्स ऑब्जेक्ट की तरह परोसती हैं। दूध पिलाती मांएं भी मर्दों को ललचाती हुई तस्वीरों के साथ मैगजीन में छापी जाती हैं। कसे हुए स्तन जोकि मर्दों की फैंटेसी है, वो इन मांओं के भी दिखाये जाते हैं, जैसे उनके चेहरे की हर खामी को छुपाया जाता है, वैसे ही उनके स्तनों के साथ भी किया जाता है। कहीं से ये दूध पिलाती हुई मां नहीं लगतीं। ऐसा लगता है कि ये कोई चैलेंज पूरा कर रही हैं।

मार्केट फेमिनिज़्म को अपने हिसाब से ढालकर इस्तेमाल कर रहा है, दूध पिलाने को ढाल बनाकर ये नया मार्केट गढ़ने में लगे हैं। पहले दूध पिलाने को प्रमोट करेंगे, फिर कहेंगे कि दूध पिलाने से झूले हुए स्तन सर्जरी से ‘ठीक’ किए जा सकते हैं। फिर यही मैगज़ीन सर्जरी के डॉक्टर्स का प्रचार करेंगे, फिर सर्जरी के बाद फिर से सुडौल स्तनों वाली मांओं की तस्वीरें लगाकर इस सफलता का गुणगान करेंगे।

मतलब चाहे कितनी भी बात कर लें, ये स्तनों को बिना सेक्शुअलाइज़ किये नहीं दिखा सकते।

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