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बाबा की गुड ब्वॉय इमेज गढ़ने की अच्छी कोशिश है फिल्म संजू

‘जब तुम और सत्य मुझसे बातें करते हैं तो मैं सत्य की नहीं सुनता, तुम्हारी सुनता हूं।’
– अंतोनियो पोर्चिया

फिल्म ‘संजू’ पोर्चिया के इस कथन का विस्तार है। सिनेमाहॉल में हम संजय दत्त की बातें सुन रहे हैं। एक इंसान ड्रग एडिक्ट हो सकता है, अपराधी हो सकता है, हत्यारा हो सकता है, रेपिस्ट हो सकता है- पर हर इंसान की तरह सारी घटनाओं का उसका अपना वर्जन होगा, जिसे वो सुनाएगा। कुछ सुनाएगा, कुछ छुपायेगा।

ये सच भी हो सकता है, ये सच्चाई से भागकर बनी फंतासी भी हो सकती है। ये भी हो सकता है कि वो इंसान अपनी क्रूर सच्चाई से भली-भांति अवगत हो, वो जानता हो कि वो कितना भयावह इंसान है, पर ये भी हो सकता है कि वो एक बार खुद को एक इंसान के तौर पर देखना चाहता हो, कहानी में ही सही। और जब वो इंसान किशोरावस्था में ही ड्रग एडिक्ट बन जाता है तो उसकी कहानी ध्यान से सुननी चाहिए, चाहे हम उसे सच मानें या झूठ। क्योंकि इस आधी-अधूरी/पूरी/सच्ची-झूठी कहानी से बहुत कुछ सीखा-समझा जा सकता है।

‘संजू’ के केंद्र में है बाप-बेटे का रिश्ता। एक परंपरागत मॉरलिस्ट बाप जिसने जीवन के हर क्षेत्र में नाम कमाया है। एक बेटा जो बाप की हर कही बात को खुद से तुलना समझ लेता है और हर बार बाप के सामने छोटा निकलता है। वो जबर्दस्ती बोर्डिंग स्कूल भेजा हुआ लड़का है, वो सिगरेट पीने पर डांट खाया हुआ लड़का है। जो अपने जीवन में की गयी हर गलती को बोर्डिंग स्कूल पर मढ़ देगा। ये लड़का 50 साल का होने पर भी जीवन की सबसे बड़ी ख्वाहिश रखता है कि सबके सामने अपने बाप को लिखा हुआ लेटर पढ़ के सुनाये।

इसकी लाइफ की सबसे बड़ी ट्रैजेडी यही है कि ये लड़का अपने बाप के मरने के बाद ही बड़ा हो पाता है। शादी निभाता है, बच्चों की ज़िम्मेदारी लेता है। अपना काम सही से करता है, अपने अपराधों से मुक्ति पाता है। वरना इससे पहले वो eat, drink, fornicate की फिलॉसफी रखता है, क्योंकि उसे बोर्डिंग स्कूल भेजा गया था।

सुनील दत्त का कैरेक्टर बहुत अच्छा लिखा गया है। परेश रावल ने बहुत अच्छा निभाया भी है। ये कैरेक्टर भी संजू बाबा की निगाह से ही लिखा गया है, इस कैरेक्टर में कोई फ्लॉ नहीं है, परफेक्ट इंसान। रणबीर कपूर ने ठीक-ठाक अभिनय किया है। डांस का सीन आते ही वो रणबीर कपूर बन जाते हैं, संजय दत्त की तरह डांस नहीं करते। ये चीज़ मिस हो गयी डायरेक्टर से।

फिल्म में मेलोड्रामा लेकर आते हैं विकी कौशल। संजय दत्त के कई दोस्तों की आत्मायें इस कैरेक्टर में डाली गयी हैं। शायद इसीलिए अच्छी एक्टिंग के बावजूद विकी हर जगह ड्रामा ही करते नज़र आते हैं। हद तब होती है जब वो फिल्म के आखिर में 30 साल पुरानी ‘दोस्ती की जैकेट’ पहने खड़े हो जाते हैं। कहीं-कहीं ये भी लगता है कि विकी का कैरेक्टर संजय दत्त के जीवन में मौजूद नशे का कैरेक्टर है। एक हैल्यूसिनेशन, जिसे संजय अपनी फंतासी में जीते हैं।

फिल्म के एक सीन में विकी कौशल

फिर ‘मुन्नाभाई mbbs’ के साथ शुरू हुआ बोमन ईरानी और संजय दत्त का रिश्ता इस फिल्म में भी है। ये पता ही नहीं चल पाता कि ये सीन मुन्नाभाई सीरीज से लिए गए हैं या रियल लाइफ से। ये भी नहीं समझ आता कि इस सीन को सेक्स कॉमेडी बनाने की क्या ज़रूरत थी? यहाँ राजू हिरानी गुजराती-पारसी के बॉलीवुड कैरीकेचर से आगे नहीं बढ़ पाते हैं।

वहीं सोनम कपूर का कैरेक्टर संजू को ‘निर्दोष जालिम’ साबित करने में लगा रहता है। अपने आखिरी सीन में सोनम 70’s की फिल्मों के डायलॉग बोल के जाती हैं। यही काम मनीषा कोइराला भी करती हैं। नरगिस दत्त का कैरेक्टर और अच्छा लिखा जा सकता था। संजय जिस इंटेंसिटी से अपनी मां का ज़िक्र करते हैं, उसे छोड़ इसे ओवर ड्रामैटिक बना दिया गया है।

विडंबना है पियूष मिश्रा का कैरेक्टर। रियल लाइफ में ‘साला भगत सिंह’ कहते हुए पियूष ने खुद को भगत सिंह का सबसे बड़ा फैन बना लिया है। वहीं फिल्म में महात्मा गांधी और संजू बाबा की बड़ाई करते वो बुरी तरह बेइज्ज़त होते हैं। भगत सिंह और गांधीजी के फैंस की राइवलरी चलती है देश में। पलड़ा नहीं बदलना चाहिए था।

यहां ये बात ध्यान देने लायक है कि ‘लगे रहो मुन्नाभाई’ से गांधीगिरी की शुरुआत कर संजय की छवि खूब चमकाई गयी थी। कोर्ट की दलीलों में भी इसे मेंशन किया गया था। पर फिल्म के शुरुआत में ही संजू बाबा, गांधी के साथ तुलना पर हम्बल हो जाते हैं। ये रील और रियल का फर्क है।

फिल्म में संजय के जीवन की दो महत्वपूर्ण घटनाओं का ही ज़िक्र है- ड्रग एडिक्शन और 1993 का बम ब्लास्ट। ड्रग वाले पार्ट को अच्छा दिखाया गया है। इसमें वो अपनी गलती मानते हैं और उससे उबर जाते हैं। संजू बाबा को अब टेड टॉक्स में ड्रग के ऊपर बोलने के लिए बुलाया जाना चाहिए। पर बम ब्लास्ट के मामले में एक साइड ही दिखाई गयी है, दूसरी साइड मीडिया सालों से दिखा रही है।

फिल्म में ड्रग एडिक्शन का एक सीन

वो बम ब्लास्ट पेचीदा था भी, मुम्बई को अपनी महबूबा कहनेवाले दाऊद ने ब्लास्ट कराया था। ये आतंकवाद का अभिनव रूप था। हो सकता है कि संजय को इसके बारे में उस वक्त ना पता हो, पर आपराधिक लोगों के साथ उठना-बैठना तो चल ही रहा था। इसे डिफेंड करने के लिए और इंटेंस कहानी चाहिए।

सुकेतु मेहता की लिखी ‘मैक्सिमम सिटी’ की निराशाजनक बातों के बिलकुल विपरीत संजय इस फिल्म के माध्यम से अपने जीवन की पॉजिटिविटी को रखते हैं कि मुझसे गलती हुई थी, मानता हूं पर मैं आतंकवादी नहीं था, मुझे मालूम ही नहीं था। ये बात हो सकती है क्योंकि संजय देश छोड़कर भाग भी सकते थे, भागे नहीं। राजू हिरानी ने इस चीज़ को बहुत अच्छे से दिखाया है। वो अपनी फिल्मों में हर बात हंसते खेलते कह जाते हैं।

संजय के जीवन के कुछ हिस्से नहीं दिखाये गए हैं, जिनमें जनता को दिलचस्पी हो सकती थी। उनके ‘लव अफेयर्स’ और दो शादियां और फिर मान्यता दत्त से शादी के बाद बदली ज़िंदगी। सुनील दत्त के बाद मान्यता ने ही संजय को सबसे ज्यादा संभाला है। मान्यता से शादी होने पर संजय की बहनें भी नाराज़ थीं। खबर थी कि मान्यता की वजह से ही संजू-सलमान की लड़ाई हुई थी। बेटी त्रिशला का भी कोई ज़िक्र नहीं है। शायद तीन घंटे में इसकी जगह नहीं थी।

फिर माफिया के साथ संबंधों को बहुत लाइटली दिखाया गया है। बॉलीवुड यहां पर मुम्बई माफिया और ग्लैमर को अलग नहीं कर पाता। फिल्म में सुनील दत्त जिस तरीके से गैंगस्टर हाजी मस्तान का ज़िक्र करते हैं, डर लगने लगता है कि कहीं उनकी फाइल भी ना खुल जाए। माफिया के मामले में बॉलीवुड रील और रियल में फर्क नहीं कर पाता।

फिल्म में सल्लू भाई को कहीं नहीं दिखाया गया है। बिना भाई के बाबा की बॉयोपिक कैसे?

एक बात अच्छी नहीं लगी, औरतों को लेकर फिल्म की फिलॉसफी खराब है। जैसे ड्रग के बारे में बात की, पछतावा किया, वैसे ही लड़कियों के प्रति भी विचार बदलने चाहिए थे। शायद बाबा ने सीखा नहीं है अभी तक, इसके लिए एक और फिल्म बनानी पड़ेगी।

अगर कुछ चीजों को इग्नोर करें तो ‘संजू’ मनोरंजक फिल्म है। राजू हिरानी ने बड़ी चालाकी से संजय का वर्जन कहने के लिए बॉयोग्राफी राइटिंग को ही कहानी का माध्यम चुना है। क्योंकि फिल्म इंडिपेंडेंट रिसर्च से बनी नहीं है, संजू के श्रीमुख से ही निकली है।

सबसे अलग है फिल्म के अंत में बाबा का आइटम सॉन्ग। 2017 के वर्ड ‘फेक न्यूज़’ को लेकर 1993 की घटनाओं को समझाया है बाबा ने। संजू बाबा पूरे स्वैग में हैं इस गाने में। बात सही कहते हैं पर गाली मां की ही देते हैं पत्रकारों को।

*पोर्चिया का कथन ‘सदानीरा’ मैगज़ीन के ग्रीष्म 2018 अंक में पढ़ा था।

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