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“इंस्टीट्यूट ऑफ एमिनेंस” देश के स्टूडेंट्स के बड़े हिस्से के साथ धोखा है

आज देश की प्राथमिक व उच्च शिक्षा व्यवस्था का हाल लगभग भारतीय रेल की तरह है। जिस तरह हमें भारतीय रेल की काया पलटने के लिए बुलेट ट्रेन के सपने दिखाये जाते हैं, ठीक उसी प्रकार उच्च शिक्षा व्यवस्था की काया पलटने के लिये हमें “इंस्टीट्यूट ऑफ एमिनेंस” के माध्यम से विश्वस्तरीय उच्च शिक्षा व्यवस्था बनाने के सपने दिखाये जा रहे हैं। आम जानता को यह विश्वास दिलाया जाता है कि बुलेट ट्रेन के आने मात्र से हमारी भारतीय रेल जापान के रेल की बराबरी कर लेगी और “इंस्टीट्यूट ऑफ एमिनेंस” के टैग की वजह से हमारे कुछ विश्वविद्यालय विश्व के सर्वश्रेष्ठ विश्वविद्यालयों में शामिल हो जाएंगे।

लेकिन, योजनाकार यह भूल जाते हैं कि उन विश्वविद्यालयों का क्या जिनमें देश के लगभग 90% स्टूडेंट्स पढ़ रहे हैं, जहां कैम्पस के नाम पर सिर्फ कैंपस की अस्थायी व्यवस्था है, प्रयोगशाला के नाम पर कमरा तो है लेकिन उनमें उपकरण है ही नहीं या अगर हैं भी तो उनकी स्थिति दयनीय है, जिनको चलाकर स्टूडेंट्स जुगाड़ी तो बन जाएंगे परंतु प्रैक्टिकल शिक्षा से वंचित रह जाएंगे। शिक्षकों के नाम पर एड हॉक शिक्षक की अस्थायी व्यवस्था भी हमारी उच्च शिक्षा की पहचान बन गयी है। इन एड हॉक शिक्षक से काम एक स्थायी शिक्षक के बराबर बल्कि उससे ज़्यादा ही लिया जाता है, परंतु वेतन के नाम पर हमेशा से ही इनकी उपेक्षा की गयी है।

केंद्रीय विश्वविद्यालयों में 35% शिक्षकों के पद खाली हैं। जी हां 35% तो आप अंदाज़ा लगा सकते हैं कि इन विश्वविद्यालयों में पढ़ने वाले स्टूडेंट्स के भविष्य के साथ आखिर खेल कौन रहा हैं? क्या आप अपने किसी भी परिजन को ऐसे विश्वविद्यालयों में पढ़ाना चाहेंगे जहां 35% शिक्षकों के पद खाली हो? जहां आये दिन एड हॉक शिक्षक अपनी स्थायी नियुक्ति के लिए आंदोलन करते हो? हर किसी का जवाब नहीं होगा। लेकिन, क्या हमारे पास और कोई विकल्प है तो इसका जवाब भी नहीं है। लेकिन बुनियादी ढांचे पर ज़ोर ना देकर हमें रैंकिंग के खेल में उलझाने की कोशिश की जाती है।

“इंस्टीट्यूट ऑफ एमिनेंस” का खेल भी कुछ ऐसा ही है। “इंस्टीट्यूट ऑफ एमिनेंस” के अंतर्गत आने वाले प्रत्येक सरकारी इंस्टीट्यूशन्स को अधिकतम 1000 करोड़ की फंडिंग दी जायेगी। इस “इंस्टिट्यूट ऑफ एमिनेंस” का लक्ष्य है इन श्रेष्ठ इंस्टीट्यूट्स को विश्व के सर्वश्रेष्ठ इंस्टीट्यूट्स की श्रेणी में लाना। लेकिन अब सवाल यह उठता है कि “इंस्टीट्यूट ऑफ एमिनेंस” की यह योजना सफल हो पायेगी या नहीं?

इस सवाल का उत्तर ढूंढना उतना ही अनुचित होगा जितना की यह योजना है। बल्कि हमारा सवाल तो यह होना चाहिए कि क्या इस समय हमारी प्राथमिकता रैंकिंग की होड़ में लगने की होनी चाहिए थी? जहां एक तरफ बड़ी संख्या में हमारे देश के विश्वविद्यालयों में फंड अपर्याप्त है या यूं कहें कि है ही नहीं और दूसरी तरफ हम कुछ श्रेष्ठ विश्वविद्यालय को सर्वश्रेष्ठ बनाने की होड़ में लगे हुए हैं। ऐसे विश्वविद्यालय जिनको सरकार इंस्टीट्यूट ऑफ एमिनेंस का दर्जा देकर सालाना 1000 करोड़ की फंडिंग देगी उनमें पढ़ने वाले स्टूडेंट्स की संख्या उच्च शिक्षा का लगभग 1% है। जी हां सिर्फ 1%, तो क्या यह बाकी 99% के करीब छात्रों के साथ अन्याय नहीं है।

क्या इस समय हमारी प्राथमिकता यह नहीं होनी चाहिए थी कैसे हम अपने हाशिये पर पड़े विश्वविद्यालयों को छात्रों के अनुकूल बनाये, कैसे उनमें शिक्षकों की कमियों को पूरा किया जाए। रैंकिंग के खेल में कही ना कही हमारी उच्च शिक्षा व्यवस्था में पड़ने वाला लगभग 90% तबका पिछड़ जायेगा।

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