Site icon Youth Ki Awaaz

क्या एंटरटेनमेंट चैनल्स अब TRP के लिए दलित विमर्श का सहारा ले रहे हैं?

‘सौरभ वाल्मीकि’ सोनी टीवी पर प्रसारित होने वाले ‘इंडियन आइडल 2018’ के एक प्रतिभागी हैं, जिन्होंने ‘छुआछूत’ नामक सामाजिक बीमारी की बात को राष्ट्रीय मंच पर उठाकर इसके अस्तित्व को नकारने वालों में खलबली मचा दी है।

आमतौर पर वाल्मीकि समाज को सफाई के काम से जुड़ा समझा जाता है जो कि एकमात्र फैक्ट नहीं है। बहुत से परिवारों का पुश्तैनी काम शादियों में दुक्कड़-शहनाई, बैगपाइपर, ट्रम्पेट, डग-तंबूरा, ढोल-ताशा (अब डीजे भी), नौटंकी में नक्कारा, ढोलक, हारमोनियम और ‘देबी-देउता पुजइया’ (देवी-देवता पूजा) में ‘बधइया’ (एक खास धुन) बजाने का रहा है, जिसमें एक मेरा भी परिवार है।

दस्तकारी की बात की जाय तो सूप, चलनी, ढोल, नगाड़ा, डफली, डफला भी बेहतरीन कारिगरी के साथ बनाया जाता है। सूप जिसका ‘बंधना’ (तांत) बड़े जानवर के आमाशय की चमड़ी से बनता है, हमेशा ज़्यादा डिमांड में रहता है और मंहगा बिकता है। इसी सूप से लोग अपना अनाज पछोरते हैं, और इसी को बनाने वाले से छूत मानते हैं।

खैर! मेरे कहने का उद्देश्य यह था कि संगीत और दस्तकारी हमारे लिए कोई नई चीज़ नहीं है। हम पीढ़ियों से ऐसा करते आ रहे हैं, वो भी न्यूनतम संसाधनों में, बिना किसी औपचारिक शिक्षा के, खुद की लगन और अभ्यास से। इन सबके बावजूद हम क्षेत्रीय स्तर तक ही सीमित हैं, और इसके लिए मैं अशिक्षा और सामाजिक पिछड़ेपन को ही ज़िम्मेदार मानता हूं।

ज़्यादातर लोगों को पता भी नहीं होता कि संगीत की पढ़ाई भी होती है। मैं कुछ बच्चों को व्यक्तिगत रूप से जानता हूं जो कि अपनी कोशिशों से बहुत अच्छा कर रहे हैं लेकिन, औपचारिक शिक्षा की तरफ वो भी नहीं जा रहें। इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में B.A (Music) और ‘प्रयाग संगीत समिति’ में ‘प्रभाकर’ जैसे पाठ्यक्रम उपलब्ध हैं लेकिन, शायद ही इस समाज से कोई यहां दिखे।

सौरभ, इंडियन आइडल में बताते हैं कि उन्हें किसी ने संगीत नहीं सिखाया। सौरभ अपने साथ हुए भेदभाव और छुआछूत की बात को भी बेबाकी से उठाते हैं। इसी तरह की बात ज़ी-सारेगामापा के प्रतिभागी ‘सचिन वाल्मीकि’ भी बताते हैं। इस बात से मैं सहमत हूं, मेरा भी अनुभव कुछ ऐसा ही रहा है। लेकिन सौरभ, सचिन या किसी भी म्यूज़िक आकांक्षी से मैं ये कहना चाहूंगा कि अगर संभव हो सके तो संगीत की औपचारिक शिक्षा के लिए किसी यूनिवर्सिटी या संस्थान की तरफ रुख ज़रूर करें।

टीवी चैनल वाले बिना TRP के लालच के कुछ भी नहीं करते। अजीब बात है कि ऐसे शोज़ के विनर कहीं नज़र ही नहीं आते जबकि टॉप 10 में जगह बनाने वाले आज स्थापित कलाकार हैं, जैसे मोनाली ठाकुर, नेहा कक्कड़ और अरिजीत सिंह।

बात काफी पुरानी है, लगभग 2004-2005 के आसपास की। इसी इंडियन आइडल की, जब सीज़न वन के ‘अभिजीत सावंत’ और ‘अमित साना’ टीवी पर छाए हुए थे। लगभग उसी समय कोलकाता के एक लड़के ‘राजू हेला’ की एंट्री हुई थी। राजू हेला अच्छा गा रहे थे और कोलकाता में काफी प्रसिद्ध भी हुए थे। लेकिन सोनी टीवी ने उस समय ऐसा तगड़ा नैरेटिव खड़ा नहीं किया, जैसा कि वह आज ‘सौरभ वाल्मीकि’ के केस में कर रहा है, जबकि राजू हेला भी इसी समाज से आते हैं।  

‘दिलीप सी मंडल’ लिखते हैं कि वो ज़माना ‘कचरा’ (हिंदी फिल्म ‘लगान’ का एक अछूत, विकलांग पात्र) का था और ये ज़माना ‘काला’ (‘पा रंजीत’ की एक बेहतरीन फिल्म) का है। सच बात है, 12 – 13 सालों में काफी कुछ बदल गया। जागरूकता बढ़ी है और काफी बच्चे संगीत के इन राष्ट्रीय मंचों तक अपना जलवा बिखेर चुके हैं, जैसे-ज़ी-सारेगामापा में ‘सचिन वाल्मीकि’, कलर्स-राइज़िंग स्टार पर ‘निशा श्रवण’ और ‘पीयूष पंवार’।

आज दलित विमर्श सोशल मीडिया की मदद से काफी आगे जा चुका है, इतना आगे कि सोनी टीवी, ज़ी टीवी और कलर्स जैसे राष्ट्रीय चैनलों को भी TRP के लिए ही सही दलित विमर्श को जगह देनी पड़ रही है।

Exit mobile version