तुम जब आना
इस संसार में
देखना सब कुछ
लेकिन अपनी नज़र से।
मत सौंपना अधिकार
खुद के वैचारिक निर्धारण का
किसी और को।
चाहे तुम्हें उसकी कोई भी कीमत
क्यों ना चुकानी पड़े।
तुम खुद से देखना
अपने ऊपर फैले अनंत आकाश को
खुद से समझना
उसके अपरिवर्तनीय स्वरूप को
एक शाश्वत से अपरिवर्तन की साकार प्रतिमा।
वह ज़मीन जिस पर तुम खड़े होना
खुद से जानना उसके जीवंत अस्तित्व को,
उसे छूकर महसूस करना।
जब मिलना लोगों से
सुनने से ज़्यादा पढ़ना,
उनके भाव, उनकी भंगिमाएं।
और फिर तय करना कि क्या लेना है उनसे,
और क्या छोड़ना।
दुनिया की आवाज़ें जब
बिखरी हों चारों तरफ,
और उनमें से कोई तुम्हें सुकून ना दे सकें
तो, बिना देर किए
अपने कदमों को दिशा देना, किसी
निर्जन की तरफ
कोई पेड़, जो नदी के तट पर हो
बैठ जाना उनके साथ
और देखना उनकी बनावट
एकदम मूक होकर
और फिर स्पर्श, आंखें बंद करके।
जब पढ़ना कोई किताब
सावधान रहना
शब्दों के आकर्षण से
उनकी बुनावट से
सचेत रहकर सीखना, मायने
विचारों के।
जब तुम इस दुनिया में आओगे तो तुम पाओगे
खुद को घिरे हुए कुछ शब्दों से
जो तुम पर थोपे जाएंगे, तुम्हें बनाने के लिए
एक सभ्य नागरिक,
लेकिन, वो नहीं जानते कि
तुम्हारी खुद की स्वाभाविकता
किसी भी तथाकथित सभ्यता से बहुत बड़ी है
क्योंकि तुम्हारे स्रोत से पवित्र कुछ भी नहीं
तुम पूर्ण होते हो, खुद में,
और बाहर से थोपी जाती है सिर्फ अपूर्णता,
संस्कारों के नाम पर।
हां, संस्कार विधायक नहीं, नकार है,
सिर्फ एक बचाव।
इसलिए तुम भी कर लेना बचाव
अगर ज़रूरत पड़े तो।
एक और शब्द टकराएगा तुमसे, ‘धर्म’,
और यहीं तुम्हारी सबसे बड़ी परीक्षा होगी।
तुम्हें सिखाया जाएगा
इस शब्द को पकड़ना
इस शब्द से चिपकना
लेकिन तुम
हाँ, तुम खुद धर्म के अजस्र स्रोत हो
बस बाहरी उत्तेजना से, उसे खुद में फूटने देना।
प्रेम, हां बस यही है
जिसकी ज़रूरत है सबको।
तुम्हारे द्वारा
इसके निवेश का तरीका
और तुम्हारी रुचि
तय करेंगी तुम्हारी उपादेयता
इस संसार के लिए,
और यही होगा तुम्हारे लिए,
सफलता का मानक।