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भारत के भीड़तंत्र का निशाना अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक दोनों समाज है

बीते कुछ सालों से हम और आप भीड़ के द्वारा एक व्यक्ति को पीट-पीट कर मार डालने जैसी घटनाओं को बारहा देखते आ रहे हैं। चाहे झारखण्ड हो बिहार हो राजस्थान हो या बंगाल और चाहे उत्तर प्रदेश हर सूबा कहीं न कहीं इसकी चपेट में है। आखिर ये उन्मादी भीड़ है कौन और आती कहां से है? इस भीड़ का निशाना केवल अल्पसंख्यक समाज ही नहीं है बल्कि बहुसंख्यक समाज भी इसका निशाना बन रहा है।

कहीं गौ तस्करी जैसी अफवाह पर भीड़ का इकठ्ठा होना और पीट-पीटकर एक व्यक्ति की हत्या कर देना। मैं ये नहीं कह रहा की गौ तस्करी जायज़ है लेकिन उसके लिए संविधान है, पुलिस है, कोर्ट है, आप पुलिस के पास जाइये उस व्यक्ति पर केस कीजिये और अगर वह दोषी पाया जाता है तो अदालत उसको सज़ा देगी लेकिन ये तालिबानी मुल्क तो नहीं है न की आप उसको सड़क पर ही सजा देने लग जाएं।

इस भीड़ का शिकार बहुसंख्यक समाज भी है जिसका उदाहरण बंगाल में देखने को मिला है कि कैसे एक बच्चे की एक धर्म विशेष के बारे में अनुचित टिप्पणी पर भीड़ एकदम बौखला गई। पूरे शहर में हंगामा खड़ा कर दिया उसको उसके घर पर ही सज़ा देने पहुंच गई। तो मेरा यहां भी यही कहना है कि आप खुद से मत तय कर लीजिये की कौन दोषी है और खुद सज़ा देने लग जाएं, उसके लिए कानूनी प्रक्रिया है उसको कोर्ट सज़ा देगी। तो मेरा यही कहना है कि भीड़ का निशाना केवल एक समुदाय नहीं है।

कहीं प्रशासनिक चूक तो नहीं?

आये दिन घट रही इस तरह की घटनाओं को देखकर कभी-कभी तो प्रशासन की भूमिका पर भी सवाल उठने लगता है। और इसका एक ताज़ा उदाहरण अभी देखने को मिला है कि उप्र के हापुड़  में एक व्यक्ति को कैसे उन्मादी भीड़ ने गौ हत्या के शक में पीट-पीटकर मार डाला। आखिर में पुलिस पहुंची भी  तो उस व्यक्ति को स्ट्रेचर पर ले जाने के बजाए गाँव के कुछ लोगों द्वारा उसको टांगकर पुलिस की गाड़ी तक पहुंचाया गया।

इस तस्वीर को देखकर आप प्रशासनिक खोखलेपन का अंदाज़ा लगा सकते हैं। ये बात भी सच है कि कहीं न कहीं उम्मीद भी इसी प्रशासन से है और उसका उदाहरण हमने उत्तराखण्ड में देखा कि कैसे एक पुलिस वाले ने अपने जान पर खेल कर अपने कर्तव्यों को पूरा करते हुए एक लड़के को भीड़ के हाथों पिटने से बचा लिया। हमें ऐसे बहादुर पुलिस वालों को सलाम करना चाहिए और इन्ही जैसे पुलिस वालों से उम्मीद भी रहती है कि ये जहाँ भी रहेंगे अपने कर्तव्यों का पालन करेंगे।

नेताओं के साम्प्रदायिक बयान भी हैं ऐसी घटनाओं के लिये ज़िम्मेदार

राजनीति और धर्म दोनों का चोली दामन का साथ है कोई भी राजनेता हो किसी भी दल का हो किसी भी संप्रदाय से ताल्लुक रखता हो जब तक धार्मिक कार्ड न खेल ले वो अपने को मुकम्मल राजनेता नहीं समझता है।

लोहिया जी कहा करते थे, धर्म दीर्घकालीन राजनीति है और राजनीति अल्पकालीन धर्म।

लोहिया जी यह भी कहते थे जब धर्म और राजनीति का अविवेकी मिलन होता है तब साम्प्रदायिकता का जन्म होता है। आज आये दिन राजनेता साम्प्रदायिक बयान देते रहते हैं और ऐसे बयानों से ही भीड़ का मनोबल बढ़ता है और फिर उसका परिणाम भी सामने आता है।

तो मुझे कहने में कोई अतिश्योक्ति नहीं है कि ऐसी घटनाओं का ज़िम्मेदार केवल भीड़ ही नहीं है बल्कि उन राजनेताओं के साम्प्रदायिक बयान भी हैं जिससे भीड़ के अंदर नफरत पनपता है।

तो अब आप सोच रहे होंगे कि ये भीड़ है कहां और अचानक आती कहां से है, तो आपको मैं बता दूं ये भीड़ कोई मंगल ग्रह से नहीं आती बल्कि ये हमारे ही समाज से हैं। उनके दिमाग में नफरत भर चुकी है, उनको साम्प्रदायिकता ने दृष्टिहीन कर दिया है और ऐसे लोग हर समुदाय में बराबर हैं।

आखिर में इतना ही कहूंगा कि किसी शायर ने क्या खूब कहा है

जलते घर को देखने वालों फूस का छप्पर आपका है
आपके पीछे तेज हवा है आगे मुकद्दर आपका है,
उसके कत्ल पे मैं भी चुप था  नंबर मेरा अब आया,
मेरे कत्ल पर आप भी चुप हैं अगला नंबर आपका है!

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