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“सिर्फ एक व्यक्ति की पूजा या प्रतिरोध में हमारे 4 साल गुज़रना खतरनाक है”

आज जब भी कुछ पल रुककर अपने स्याह सफर को पीछे मुड़कर देखनी की कोशिश करता हूं, एक लंबा खालीपन दिखाई देता है। वास्तव में जब मेरे अज़ीज मित्र वाक युद्ध के समर में अपने रथ का पहिया बदल आगे बढ़ रहे थे, मैं भटकाव के डर से दूर जा खड़ा हुआ। यही वजह है कि मैं अपने इस सफर को दो हिस्सों में देखता हूं। प्रथम हिस्सा 2014 के पूर्व का है, और द्वितीय हिस्सा जो 2014 के पश्चात का जो अब तक जारी है।

अगर हम सिर्फ सोशल मीडिया विशेषकर फेसबुक पर अपने प्रथम हिस्से को याद करने की कोशिश करें तो, जैसे हम रास्ता ही भटक गये हैं और अब यह भटकाव हमें निगलने लगा है। हालांकि तब भी सोशल मीडिया के विभिन्न मंचों पर बहुत सी अफवाहें उड़ती रहती थी। हनुमान, शिव, दुर्गा, काली आदि की तस्वीरों के जादुई चमत्कार के काफी किस्से हवा थे। साथ ही अश्लीलता के विरुद्ध भी एक जंग जारी रहती थी। लेकिन, इन सबके बावजूद हम उस दौर को सोशल मीडिया का स्वर्णकाल कह सकते हैं।

तब हम सोशल मीडिया को नए समाज के निर्माण की प्रयोगशाला मान, सार्थक विमर्श की सतह तैयार किया करते थे। बड़े-बड़े रचनाकारों, साहित्यकारों को पढ़ना, उनके साथ अपने विचारों को साझा करना, रात्रि के दो-दो बजे तक चर्चाएं करना, वाकई सामाजिक विमर्श अपने उत्कर्ष पर होता था। लोग तब भी मतभेद रखते थे लेकिन, उसे शिष्टता से प्रकट करने का धैर्य भी था।

हालांकि तब सोशल मीडिया के मंचों पर चर्चा के विषय भी आज से काफी भिन्न थे। भ्रष्टाचार, जातिवाद, कन्या भ्रूण हत्या, बाल मज़दूरी, अंधविश्वास, गरीबी, दहेज प्रथा, बेरोज़गारी, अपराध, महिला सशक्तिकरण, जनसंख्या वृद्धि, मानव अधिकार, शिक्षा व्यवस्था, महंगाई, और सरकार की नीतियां, ये तमाम विषय थे, जिनपर हम दिन-रात बहस करते थे। यहां ‘हम’ से तात्पर्य सिर्फ मुझसे नहीं, मेरी एक पूरी बिरादरी थी, एक परिवार था।

जैसा कि मैंने ऊपर कहा, हम सभी मान कर चलते थे कि हम समाजवाद की सबसे उत्कृष्ट प्रयोगशाला में नये समाज की विकृति रहित आकृति तैयार कर रहे हैं। हालांकि, कालांतर में समाज की उस आकृति को कितनी स्वीकृति मिली, यह एक अबूझ पहेली है। मुझे अब भी याद है हमारे मित्रों का वह काव्यधार एवं शब्द प्रहार। किसी मां की कोख में मारी जा रही दुर्गा का भीषण अवतार दिखता था, तो कहीं नेताओं के मुंह पर खरा प्रतिकार दिखता था।

गौर करने की बात है कि तब भी हम चुनावी राजनीति के तहत किसी ना किसी राजनेता को अपना मत ज़रूर देते थे। लेकिन, “फैन/भक्त” जैसे शब्दों का राजनैतिक जन्म नहीं हुआ था

मत देने के पश्चात, हम लोक बनाम तंत्र के विमर्श में सिर्फ सत्ता के स्थायी विपक्ष थे। हर दिन मनमोहन सरकार और उसके मंत्रियों पर खुली बहस होती थी।

लेकिन, आज जब हम वर्तमान को देखते हैं तो लगता है, जैसे सृष्टि ने एक करवट ले ली हो। अब ना तो वह सामाजिक क्रांति है, और ना ही वैचारिक शांति है। अब ना तो सोशल मीडिया समाज की प्रयोगशाला दिखता है और ना ही अब वे प्रयोगी दिखते हैं। ऐसा नहीं है कि लोगों ने सोशल मीडिया छोड़ दिया है, अलबत्ता वे और मज़बूती से पकड़े हुए हैं या, शायद कुछ व्यवस्था में जकड़े हुए हैं। लोग बोल रहें हैं, कहीं ज़ोर से बोल रहें हैं, लेकिन आवाज़ बदल गयी है। लोगों की प्राथमिकताएं और प्रतिबद्धताएं बदल चुकी हैं। हमारे बुद्धिजीवी मित्रों की नज़र में वो तमाम विषय अब या तो हल हो चुके हैं या तुच्छ हो चुके हैं।

अब भी किसी मां के गर्भ में बेटी मारी जाती है, लेकिन हमारी कलम की स्याह सिर्फ गौ-हत्या पर पिघलती है। अब भी इस देश में दहेज के नाम पर हज़ारों बहनों को ज़िंदा जलाया जाता है, महिलाओं के साथ घरेलू हिंसा और पाखंडियों के द्वारा लूट के मामले बढ़ रहे हैं। लेकिन, मेरे साथ इन तमाम विषयों पर बोलने वाली बहनें भी अब मौन हैं।

मुझे लगता है कि हम सभी लेखक, पत्रकार बुद्धिजीवीयों को एक बार रुकना चाहिये और सोचना चाहिये, आखिर ऐसा क्या हुआ, जो सामाजिक विमर्श के तमाम मुद्दे, हमसे दूर हो गये?

समाज की बुनियाद से जुड़े उन मुद्दों को मारकर कैसे आपके और हमारे मस्तिष्क में कृत्रिम मुद्दों की खूंटी ठोंकी गयी? अगर हम इसे भी समझ पाने में असमर्थ हैं तो बुद्धिजीवी के नाम पर हम खोखले हो चुके हैं।

पिछले कुछ वर्षों में कई बार मेरे कुछ अज़ीज मित्रों ने मुझपर निष्पक्ष ना होने का आरोप लगाया है। वास्तव में वैचारिक धरातल पर निष्पक्षता एक बहुत बड़ी ढोंग है। लोकतंत्र में कलम सत्ता के सानिध्य में सिर्फ दलाली और नौकरी करती है। अन्यथा अपने स्वतंत्र चरित्र के साथ वह सर्वथा स्थायी विपक्ष होती है। याद कीजिये जब हम आप मिलकर मनमोहन सरकार की धज्जियां उड़ाते थे। कॉंग्रेस सरकार की नीतियों के विरुद्ध कलम हांकते थे अर्थात कल हम और आप सत्ता के विपक्ष में थे। लेकिन, जैसे ही सरकार बदली शब्दों के स्वयंवर में आप नई माशूका ढूंढने निकल पड़े। कल हम सभी मनमोहन सरकार के खिलाफ थे लेकिन, आज हम सभी मोदी सरकार के खिलाफ नहीं हैं। लोक बनाम तंत्र के इस संघर्ष में हम आज भी लोक के पक्ष में एवं सत्ता के विपक्ष में खड़े हैं लेकिन, आज आप कहां खड़े हैं? आप खुद तय कर सकते हैं।

आज हम खुद को कितना भी बड़ा लेखक विचारक कह लें, हम सिर्फ अलग-अलग राजनैतिक परियोजनाओं के प्रचारक भर शेष हैं। आज हमारे लेखन-चिंतन का हर विषय नेताओं का दिया हुआ है। जनता के मुद्दों को तो हम चार वर्ष पूर्व ही बलि चढ़ा चुके हैं। आरक्षण, दलित उत्पीड़न, सेकुलरिज़्म, गौ-हत्या, हिंदू राष्ट्र, सेना, पाकिस्तान, कश्मीर, चीन, ब्राम्हणवाद, मंदिर-मस्ज़िद, लव-जिहाद जैसे मुद्दे आज हमारी चर्चाओं का हिस्सा हैं। इसी प्रकार पुराने मुद्दों की लाश पर एक और बड़ा मुद्दा खड़ा किया गया “मोदी”।

वास्तव में पिछले पांच वर्ष में देश का हर व्यक्ति या तो मोदी-समर्थक था, या मोदी-विरोधी था लेकिन, मोदी से अलग नहीं था। हम इस षड्यंत्र को नहीं समझ पाये कि ‘मोदी’ ना तो दीर्घकालिक समस्या हो सकते हैं और ना ही मूलभूत समस्याओं का दीर्घकालिक हल हो सकते हैं। समाज के जो वास्तविक विषय, जो चिंताएं हैं उनकी उम्र कहीं ज़्यादा बड़ी और हालात बेहद गंभीर हैं। यकीन नहीं होता कि हमने पिछले चार वर्ष सिर्फ एक व्यक्ति की पूजा या प्रतिरोध में व्यतीत किया है।

मुझे लगता है कि, हमें रुकना होगा, रुककर सोचना होगा। हम कहां चले थे और कहां आ गये हैं? क्या हमने इसी लक्ष्य के लिये, इसी परिणाम के लिये कलम उठायी थी? हमें सोचना होगा कि कैसे हम जनहित के मुद्दों से भटकते चले गये और राजनीति के प्रायोजित चक्रव्यूह में उलझते चलें गये। तब मुझे अपनी ही कुछ पुरानी पंक्तियां याद आती हैं-

कांप रही है, रूह कलम की,
तड़प रहा है रंग स्याह!
खुद के शब्दबाण से घायल,
कागज़ से भी निकल रही है आह

आइये, अब लौट चलते हैं, उस सफर को जिसे हमने अधूरा छोड़ दिया था। पुनः नए सिरे से उन पन्नों को खोजा जाए उनमें अपने शीतल स्याह भर उन विषयों को नव-जीवन देने का प्रयास हो सके। यही समय की ज़रूरत है वास्तविकता से भटकाव एक राष्ट्र और समाज के रूप में हमें खोखला कर रहा है।

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