मैं नहीं जानता कितना दर्द होता है महीने में
और कैसे क्या सहना होता है मां बनने में,
कवि सी चाह भी नहीं है स्त्री हो जाने की
आसान है इस ज़िक्र से संवेदना जीतना।
पुरुष होने के तमाम कीड़े किलबिलाते हैं मुझमें
बहुत बार बर्दाश्त नहीं हुआ लड़कियों का बोलना,
सीने से हटी चुनरी को भी घूर के देखा है
शरीर के छुअन मात्र से भी कांपा हूं,
लड़की से नज़रें मिलाकर बात करने की हिम्मत भी नहीं हुई।
लेकिन आज एक बात जानता हूं
जो कुछ बन पाया हूं तो औरतों की वजह से,
पैदा हुआ, भाई-बेटा बना
दोस्त-प्रेमी बना, पति या पिता बना
जानवर से मानव बना तो औरत की वजह से ही
ज़िन्दगी अधूरी रही इन बिना।
मैं नहीं चाहता पूजना औरतों को
नहीं बख्शा हमने उन्हें, जिनको कभी पूजा था,
बस एक शुक्रिया और एक चाह है
पुरुषों को इंसान बनाए रखें, औरतें
मुझे मानव बनाती रहें औरतें।
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फोटो क्रेडिट- गूगल