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18 सालों में उत्तराखंड में विकास के नाम पर सिर्फ विनाश हुआ है

खूबसूरती के बीच भी सूनापन, ज़मींदोज होते मकान, लुप्त होती बोली-भाषा। बूढ़े चेहरों की झुर्रियां इस दर्द को बखूबी बयां करती हैं।

बेहतर भविष्य की तलाश में उत्तराखंड के गांव लगातार खाली हो रहे हैं। आज स्थिति यहां तक पहुंच गई है कि कई गांव भूतहा तक घोषित हो गये हैं। लगातार होते इस पलायन को रोकने के लिए पलायन आयोग का राग तो अलापा जा रहा है, लेकिन उसका भी अता-पता-लापता ही हैं।

18 वर्षीय राज्य को जहां इस उम्मीद से बनाया गया था कि इस क्षेत्र का विकास होगा, परंतु इतने वर्षों में यहां सोच से कई गुना विनाश देखा गया है। प्राकृतिक संसाधनों के दोहन से लेकर प्रकृति के हर नियम से छेड़छाड़।

विकास के नाम पर राज्य के हर धार्मिक स्थल पर सीमेंट व कंक्रीट का जंगल खड़ा मिलेगा।जिसका परिणाम पांच वर्ष पूर्व केदारघाटी में देखने को मिला। स्थिति इस कदर बिगड़ चुकी है कि यहां के जनमानस बाहर जाकर कोई भी नौकरी करने को तैयार हैं। परंतु कूड़ी-पुंगड़ी (घर और खेत) की तरफ देखने तक को तैयार नहीं हैं।

मूलभूत सुविधाओं की कमी के कारण केवल लोग ही इन गांवों से लुप्त नहीं हो रहें, उनके साथ गुम हो रही है राज्य की सांस्कृतिक विरासत। यहां के तीज-त्यौहार, लोकसंस्कृति और वास्तुकला। जो कुछ लोग यहां रहकर काम कर रहे हैं, उन्हें मात्र प्रशंसा के कुछ और नहीं मिलता। और इसी आर्थिक तंगी के कारण वह बाहर का रास्ता ढूढ़ते हैं।

यह तो तय है कि सरकार को केवल एसी कमरों में  योजनाएं बनाने से उठकर धरातल पर कार्य करने होंगे। क्योंकि गरीबी और रोज़गार की परेशानी ही किसी को उसके मूल स्थान से प्रवास करने को बाध्य करती हैं। वरना कौन अपनी जन्मभूमि और संस्कृति को छोड़ना चाहेगा।

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