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UGC को खत्म कर एक नई व्यवस्था लाने से उच्च शिक्षा में सुधार हो पाएगा?

एक शोधार्थी होने के नाते जबसे यह खबर पढ़ी है कि यूजीसी का कायापलट हो रहा है, बहुत सारे सवाल मन में उथल-पुथल किए जा रहे हैं। क्या यह वास्तव में कायापलट है या संस्था का नाम बदलने की औपचारिकता मात्र। मूलभूत अंतर जो मुझे लगा, वह यह कि विश्वविद्यालयों से जुड़े वित्तीय मसविदों का अधिकार अब सीधे मानव संसाधन विकास मंत्रालय के पास होगा, जो कि पहले यूजीसी के पास था। इसमें विश्वविद्यालयों को समय-समय पर दी जानेवाली ग्रांट्स और शोधार्थियों को मिलने वाली फेलोशिप शामिल हैं।

यह पहला मौका नहीं है जब यूजीसी को समाप्त करने की बात सामने आई है, इससे पहले वर्ष 2009 में मानव संसाधन मंत्रालय ने ये संकेत दिए थे कि सरकार यूजीसी और अखिल भारतीय तकनीकी शिक्षा परिसद को समाप्त करना चाहती है और उनके स्थान पर ज़्यादा अधिकार प्राप्त एक संस्था बनाना चाहती है।

2011 में उच्च शिक्षा एवं शोध विधेयक तैयार किया गया जिसमें यूजीसी की जगह राष्ट्रीय उच्च शिक्षा एवं शोध आयोग बनाने का प्रावधान था। कुछ राज्य सरकारों द्वारा विरोध किये जाने पर यह विधेयक वापस ले लिया गया था। परंतु समिति ने अपनी रिपोर्ट में ये सिफारिश की थी कि अगर यूजीसी को समाप्त करना संभव न हो तो उसकी जगह राष्ट्रीय उच्च शिक्षा प्राधिकरण बनाना चाहिए।

यूनिवर्सिटी अनुदान आयोग भारत उच्च शिक्षा अधिनियम 2018 के लिए इस मार्ग को प्रशस्त करने के लिए तैयार है। मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने यूजीसी को उच्च शिक्षा के लिए नए नियमों के साथ एक अधिनियम तैयार किया है। नए अधिनियम को भारतीय उच्च शिक्षा आयोग अधिनियम, 2018 कहा जाएगा। इस अधिनियम के तहत पहली बार अकादमिक गुणवता मानकों की जांच और लागू करने की शक्तियां होंगी। नियामक के पास उपमानक और फर्ज़ी संस्थानों को बंद करने की शक्ति भी होंगी।

वर्तमान में यूजीसी के पास इन संस्थाओं के खिलाफ कार्रवाई करने की कोई शक्ति नहीं थी बल्कि ये जनता को सूचित करने के लिए इस तरह के उपमानक और फर्ज़ी संस्थानों की सूची जारी किया करते थे।

नया आयोग संस्था खोलने और बंद करने के लिए मानदंड विकसित करेगा और अधिक लचीलेपन के साथ प्रदर्शन आधारित प्रोत्साहनों के लिए मापदंड भी निर्धारित करेगा। साथ ही साथ प्रवेश, शुल्क और नियुक्तियों के लिए मानक भी बनाएगा।

समिति ने यूजीसी की पारदर्शिता और प्रक्रिया पर भी सवाल उठाए हैं। यूजीसी का काम-काज अस्थायी है और विभिन्न विभागों के बीच कोई तालमेल नहीं है, जिससे संसाधनों की बर्बादी हो रही है। उम्मीद की जा रही है कि ये समिति उन तमाम त्रुटियों को संशोधित कर यूजीसी की तमाम प्रक्रियाओं को नए मानकों के साथ क्रियान्वित करने के लिए काम करेगी।

एक तथ्य अभी तक स्पष्ट नहीं है कि नैक प्रणाली (राष्ट्रीय मूल्यांकन एवं प्रत्यायन परिषद) का मापदंड मंत्रालय खुद करेगा या हायर एजुकेशन कमीशन ऑफ इंडिया एक्ट 2018 के सुपुर्द होगा। आखिरकार विश्वविद्यालयों की गुणवत्ता तय करने के लिए शासन के पास नैक के अलावा और कोई प्रक्रिया नहीं है। सवाल यह भी उठता है कि हायर एजुकेशन कमीशन ऑफ इंडिया नैक के बिना गुणवत्ता कैसे तय करेगा और किसी विश्वविद्यालय पर अंकुश लगाने अथवा आंशिक या पूर्ण प्रतिबंध किस तरह लगाएगा, जिसका कि इस एक्ट के प्रावधान में उसे अधिकार दिया गया है।

सरकार ने सामान्य और प्रबुद्ध नागरिकों, विश्वविद्यालयों से जुड़े तंत्र और शैक्षणिक संगठनों से इस प्रस्ताव पर अनुशंसाएं और विचार-प्रतिक्रिया 7 जुलाई तक मांगें हैं। स्पष्ट है कि इसके लिए इस तरह की अल्पाविधि रखना कागज़ी कार्रवाई के अलावा कुछ नहीं है।

भारतीय विश्वविद्यालयों में भारत की कई प्रादेशिक भाषाओं में उच्च शिक्षा दी जाती है। पता नहीं हिंदी और अंग्रेजी की पत्रकारिता के सिवाए अन्य भाषाओं में प्रकाशित होने वाले समाचारपत्रों में सरकार के इस प्रस्ताव को कितना और कैसा छापा गया है। सरकार जिस तरह से स्वच्छ भारत अभियान, वीर सावरकर जयंती, योग दिवस इत्यादि को क्रियान्वित करने के लिए सभी सरकारी विभागों और केंद्रीय विश्वविद्यालयों को तयशुदा कार्यक्रमों के अनुसार मनाने के लिए बकायदा आदेश जारी करती है, तब हायर एजुकेशन कमीशन ऑफ इंडिया के प्रस्ताव पर विचार-विमर्श के लिए क्यों कोई परिपत्र केंद्रीय विश्वविद्यालयों को जारी नहीं किया गया।

आखिर यह पूरा मामला भारतीय विश्वविद्यालयों से जुड़ा है और उच्च शिक्षा की संस्कृति को संवर्धित करने के लिए ही है। जितना विमर्श व प्रतिक्रियांए विश्वविद्यालयों से मिलती, उतनी इस विधा से दूर का भी संबंध नहीं रखने वालों से मिलने के आसार नहीं है। यह अपारदर्शिता खुद अपने भीतर ही नहीं झांकने की प्रवृति की तरफ इंगित करती है।

उच्च शिक्षण की संस्कृति केवल नए कमीशन की स्थापना से संवर्ध नहीं हो सकती। इसके लिए बहुत गहरे पैठ चुकी इस व्यवस्था की जड़ों को टटोलना भी है और उनका रुख सकारात्मक दिशा में मोड़ना भी है।

वर्तमान उच्च शिक्षा प्रणाली में तेज़ी से रिसर्च स्कॉलर गाइड के रोबोट बनते जा रहे हैं, ऐसा होना विभिन्न और बहुआयामी विषयों पर शोध के स्तर को लगातार गिरा रहा है। नए कमीशन को इस मुद्दे पर भी गंभीरता से ध्यान देने और नए नीति-निर्देश जारी करने चाहिए। सबसे बड़ी समस्या यही है कि शोधार्थियों को समय पर फेलोशिप मिलना स्वनामधन्य गाइडों पर ही निर्भर है और समय-समय पर फेलोशिप को रोकना गाइड अपना जन्मसिद्ध अधिकार मानते हैं। बेहतर यह होना चाहिए कि अपने शोधार्थियों के प्रति ज़िम्मेदारियों को भी वे समझ पाते।

विश्वविद्यालयों में प्राध्यापकों की नियुक्तियां जिस तरह से विवादित होती हैं, उसे दूर करने के लिए एक प्रावधान बनाए जाने चाहिए कि केंद्रीय विश्वविद्यालयों के प्राध्यापकों की नियुक्ति का अधिकार केंद्रीय लोकसभा आयोग को हो। इससे भाई-भतीजावाद और भ्रष्टाचार पर रोक लगेगी। पिछले वर्ष ही इलाहाबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय में हुई नियुक्तियों पर अदालत ने रोक लगा दी थी। इसी तरह पीचडी और एमफील की प्रवेश प्रक्रिया में भी लिए जाने वाले नाम पहले से तय होते हैं। इस पूरी प्रक्रिया को भी और अधिक पारदर्शी बनाने की ज़रूरत है।

और अंत में प्रार्थना यही की जा सकती है कि उच्च शिक्षा की खोज-परक और विमर्शकारी नए वितान के लिए नए सिरे से व्यवहारिक और तकनीकी युक्त अनुष्ठान किए जाने चाहिए।_____________________________________________________

(लेखिका महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय, वर्धा के कोलकाता केंद्र में शोधार्थी है।)

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