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बंगाल में दलित BJP कार्यकर्ता की हत्या पर इतना सन्नाटा क्यों है?

तूफान के गणित के हिसाब से सन्नाटे दो किस्म के होते है। एक तूफान के पहले वाला और दूसरा तूफान के बाद वाला सियासत की गणित के हिसाब से तूफान दो किस्म के होते हैं, एक वामावर्ती और दूसरा दक्षिणावर्ती। दलित की गणित के हिसाब से दक्षिणावर्ती सियासी तूफान भी दो किस्म के होते हैं एक ‘त्राण दक्षिणावर्ती’ व दूसरा ‘मंद दक्षिणावर्ती।’

राजनीति में दो सन्नाटों के बीच में सियासी तूफान अपनी मौजूदगी लिये होता है, ऐसा सियासी तूफान जो सत्ता के बरगद को उखाड़ फेंके भारतीय सियासत में दलितों के शोषण एवं राजनैतिक हत्याओं पर समय-समय पर वामावर्ती सियासी तूफान आते रहे हैं। रोहित वेमुला से लेकर राजकोट में फैक्ट्री में हत्यित मुकेश तक; वामवर्ती सियासी तूफानों ने खूब भिड़ंत की है, सत्ता से भी एवं सत्ता के अघोषित प्रहरियों से भी। ये तूफान बेहद भीषण होते हैं, इन्होंने वर्तमान केंद्रीय सत्ता के बरगद की जड़ें काफी हद तक हिलाई भी हैं।

पिछले दिनों ही अनुभव हुआ कि वामावर्ती सियासी तूफान भी दलितों में भेद करते हैं। उनके लिए एक किस्म के दलित जो विशेष विचारधारा से ताल्लुक रखते हैं वो तो हृदयस्थ हैं लेकिन विपरीत विचारधारा से ताल्लुक रखने वाले दलित उनके लिए अछूत हैं। ये तूफान इन दलितों के लिए नहीं उठते, इन तूफानों को उठाने वाले चिंतातुर नेता और मसीहा पत्रकार इन दलितों से विरक्त होते हैं।

सामाजिक विज्ञान की परिभाषा के अनुसार दलित समाज का पीड़ित, शोषित, दबा हुआ वर्ग होता है लेकिन चिंतातुर नेताओं और मसीहा पत्रकारों की गणित के हिसाब से दलित दो प्रकार का होता है एक हृदयस्थ दलित जिसके लिए भीषण तूफान उठाया जा सके और दूसरा अछूत दलित जिनके लिए विरक्ति ही इनका तूफान है।

संलग्न तस्वीर ‘धर्मो हाजरा’ की है। धर्मो हाजरा एक दलित थे और पश्चिम बंगाल के मुर्शिदाबाद में BJP के कार्यकर्त्ता थे। इनकी लाश गत सोमवार को एक झील में तैरती हुई मिली। इनके हाथ-पैर रस्सी से बंधे हुए थे ताकि ये तैरकर वापस बाहर ना निकल पाये। कथित तौर पर धर्मो हाजरा को तृणमूल कांग्रेस के लोगों द्वारा जान से मारने की धमकियां मिल रही थी। और आखिरकार हाजरा की हत्या कर दी गई।

इनके लिये दक्षिणावर्ती सियासी तूफान उठा लेकिन बहुत जल्दी फुस्स भी हो गया। इसके कारणों का भी विश्लेषण अलग से हो सकता है।
लेकिन फिलहाल प्रश्न ये कि क्या चिंतातुर नेताओं और मसीहा पत्रकारों ने धर्मो हाजरा को दलित नहीं समझा? और अगर समझा तो इतना सन्नाटा क्यों है?

हर बार तूफान सन्नाटे को चीरता हुआ आता है लेकिन इस बार सन्नाटे ने तूफान को चीर दिया। सन्नाटे ने तूफान को इसलिये चीर दिया क्योंकि धर्मो हाजरा बीजेपी के कार्यकर्त्ता थे। वामावर्ती भीषण तूफान इसलिये नहीं उठा क्योंकि धर्मो हाजरा अपने कर्मों की वजह से चिंतातुर नेताओं और मसीहा पत्रकारों के लिये अछूत हो गये थे।

ना तो कहीं धर्मो हाजरा को न्याय दिलाने के लिए आंदोलन हो रहा और ना ही कहीं कैंडल मार्च निकल रहा। ना जिग्नेश मेवानी सड़कों पर उतरे ना ही कन्हैया कुमार। ना तो प्राइम टाइम में विश्लेषण हो रहा है और ना ही डिबेट। ये सब तो छोड़िये इस खबर को मीडिया में पर्याप्त स्पेस तक नहीं मिला।

सामाजिक विज्ञान द्वारा प्रतिपादित दलितों की परिभाषा में और चिंतातुर नेताओं और मसीहा पत्रकारों द्वारा प्रतिपादित दलितों की परिभाषा में ज़मीन-आसमान का फर्क है। दलितों की हत्याओं और शोषण के मामले में सेलेक्टिव आउटरेज का जीता-जागता प्रमाण धर्मो हाजरा का मामला है। ये सभी चिंतातुर नेता दलितों को एक सामान नहीं समझते।

इनके लिए दलित; दलित नहीं स्वार्थ सिद्धि का वाहन है जिसपर सवार होकर ये सत्ता तक पहुंचना चाहते हैं। अपने वाहन को क्षति पहुंचे तो भीषण तूफान खड़ा कर दो लेकिन अगर इन्हीं की नीति अनुसार दूसरे के वाहन को क्षति पहुंचे तो विरक्ति प्रधान।
इस देश के दलितों को समझना होगा, कोई भी दल उन्हें एक वाहन से ज़्यादा कुछ नहीं समझता जिस पर चढ़कर नेता सत्ता रूपी गंतव्य तक पहुंचना चाहते है। अगर उन्हें वास्तव में अपना हित करना है तो उन्हें हर दल के प्रति मन-मस्तिष्क में विरक्ति का तूफान खड़ा करना होगा। किसी भी दल से आसक्ति नहीं रखनी होगी।

अगर राजनैतिक दलों में आपके वोट के छिटकने का खौफ बना रहेगा तो वे दलित को वाहन नहीं समझेंगे और एक-एक दलित की कद्र करना सीख जाएंगे। अन्यथा दलित हितैषी सेलेक्टिविज़्म से उपजा जो सन्नाटा मुझे आज डरा रहा है आने वाले समय में लोकतंत्र में दलित की स्थिति और भी कमज़ोर कर देगा।

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