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“सोशल मीडिया का सबसे ज़्यादा दुरुपयोग राजनीतिक पार्टियों ने किया है”

वर्तमान दौर में सोशल मीडिया आम आदमी के जीवन का एक अभिन्न हिस्सा बन गई है। आप चाहे पत्रकार हों, चाहे व्यवसायी हों, विद्यार्थी हों या किसी सरकारी विभाग में नौकरी करने वाले आम कर्मचारी। सोशल मीडिया ने खास से लेकर आम लोगों की ज़िंदगी पर गंभीर प्रभाव डाले हैं। व्यवसाय, शिक्षा, पत्रकारिता, राजनीति आदि क्षेत्रों में व्यापक बदलाव लाने में सोशल मीडिया का महत्वपूर्ण योगदान रहा है।

इसका सबसे महत्वपूर्ण पहलू इसकी पहुंच है, जो कि बहुत व्यापक है। आप सोशल मीडिया प्लैटफॉर्म्स के ज़रिये हज़ारों लाखों लोगों से जुड़ सकते हैं, दुनिया के किसी भी कोने में बैठे व्यक्ति से बातचीत कर सकते हैं, सवाल पूछ सकते हैं वो भी बिना जान पहचान के।

सोशल मीडिया के इन्हीं गुणों के कारण व्यवसाइयों से लेकर नेताओं पत्रकारों, आम लोगों द्वारा भी अपनी योजनाओं को अंजाम देने में इसका उपयोग किया जा रहा है।भारतीय समाज एवं इसके विभिन्न क्षेत्रों को भी सोशल मीडिया ने बहुत प्रभावित किया है। शुरुआती दौर में सोशल मीडिया ने भारतीय राजनीति, मीडिया आदि पर व्यापक प्रभाव डाला है। पहले कुछ गिने चुने मीडिया संस्थान, रेडियो, टीवी आदि के मालिकों द्वारा ही तय किया जाता था कि जनता तक कौन सी खबर पहुंचेगी और कौन सी नहीं पहुंचेगी। मतलब, गिने-चुने लोग तय कर लेते थे। वे अपने नफे नुकसान को ध्यान में रखकर खबरों को छापते अथवा प्रसारित किया करते थे परंतु, सोशल मीडिया ने इस प्रक्रिया को पूर्णतः बदलकर रख दिया है।

अब तो हर कोई जिसके हाथ में फोन है पत्रकार बन गया है। इसके सकारात्मक एवं नकरात्मक दोनों पहलू हैं। अब एक आम व्यक्ति बिना अतिरिक्त संसाधनों के अपनी बात को समाज के सामने बड़ी आसानी से रख सकता है, जबकि उसे जांचने वाला कोई नहीं है कि वह सच कह रहा है या झूठ।

इसकी व्यापक पहुंच (पारंपरिक मीडिया से भी व्यापक) के कारण भारत की राजनीति में भी इसका उपयोग शुरू हो गया।

आंदोलनकारियों ने भी चाहे वो भ्रष्टाचार के खिलाफ छेड़ा गया लोकपाल का आंदोलन हो अथवा निर्भया के बलात्कार के पश्चात राष्ट्रीय स्तर पर किया गया आंदोलन, ऐसे अनेक उदहारण हैं, जहां पारंपरिक मीडिया संस्थानों की जगह सोशल मीडिया ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

सोशल मीडिया ने भौतिक सीमाओं को भी मिटाया है। एक गांव में बैठा आम व्यक्ति भी अब सरकारी योजनाओं से असंतुष्ट होने पर अपना रोष प्रकट कर सकता है।

रेल में यात्रा कर रहा व्यक्ति रेलवे की खराब सेवाओं की शिकायत सीधे रेल मंत्री से कर सकता है। विदेश में फंसे नागरिकों ने अनेक बार विदेश मंत्री सुषमा स्वराज से ट्विटर अथवा फेसबुक के ज़रिये सीधे मदद मांगी और उन्हें मदद उपलब्ध भी करायी गयी।

धीरे-धीरे सोशल मीडिया प्रत्येक व्यक्ति के जीवन का हिस्सा बन गई है, जिसके फायदे भी हैं और नुकसान भी। परंतु शुरुआती दौर में तो लगा था कि इसके फायदे ही फायदे हैं। इसी कारण इसका व्यापक उपयोग शुरू हुआ। इसने भौतिक सीमाओं को तो मिटाया ही साथ में लोकतान्त्रिक प्रक्रिया को भी मज़बूत किया, क्योंकि यहां प्रत्येक व्यक्ति को सुना जाता है। हर कोई अपनी बात बिना किसी परेशानी के घर बैठे कह सकता है। इसकी पहुंच जोकी सबसे महत्वपूर्ण पहलू है, इसके ज़रिये आम नागरिक किसी भी बड़े राजनेता, मंत्री अथवा अधिकारी से बड़ी आसानी से अपनी बात कह सकता है और वे भी देश के सबसे दूर दराज के क्षेत्रों में रहने वालों से आसानी से संपर्क कर सकते हैं। स्वच्छता के अभियान को ही देख लें।

सोशल मीडिया आम जनता की राय को समझने का एक बहुत महत्वपूर्ण साधन बन गया है। क्योंकि इसकी पहुंच किसी भी मीडिया संस्थान अथवा कंपनी द्वारा किये जाने वाले सर्वे से बहुत व्यापक है। शुरुआत में एक लोकतांत्रिक साधन की तरह अपनी बात को रखने, जनता की राय को समझने, समस्याओं को सुलझाने, संवाद कायम करने तक ही इसका उपयोग किया गया।

जब इसकी व्यापक पहुंच का आभास हुआ, तब समाज सेवियों द्वारा जनता को जागरूक करने में इसका व्यापक प्रयोग किया जाने लगा। जिसकी परिणति में लोकपाल आंदोलन, निर्भया के बलात्कार के पश्चात महिला अधिकारों के लिए छेड़ा गया आंदोलन ऐसे उदहारण हैं।

सोशल मीडिया की व्यापक पहुंच के कारण नेताओं, राजनीतिक पार्टियों ने अपने हितों को साधने हेतु इसका इस्तेमाल शुरू कर दिया। सर्वप्रथम व्यापक तौर पर चुनावों में सोशल मीडिया का इस्तेमाल 2013–14 में एक विशेष राजनीतिक पार्टी द्वारा किया गया। कहने का तात्पर्य यह कि अन्य पार्टियों ने भी इस्तेमाल किया परंतु उतने व्यापक तौर पर नहीं। इस पार्टी ने सोशल मीडिया के ज़रिए अच्छे दिन का सपना बेचा

2014 के चुनाव परिणामों को देखकर अब तो लगभग सभी राजनीतिक पार्टियों ने सोशल मीडिया को अपनी राजनीतिक गतिविधियों में महत्वपूर्ण जगह दी और लगभग सभी पार्टियों ने अपनी-अपनी आईटी सेल की स्थापना की है। सोशल मीडिया के जानकर लोग इसका संचालन करते हैं।

परंतु एक मूल बदलाव यह आया है कि पहले यह एक आभासी लोकतांत्रिक दुनिया की तरह थी, जिसमें हर एक व्यक्ति को अपनी बात रखने का अधिकार था। लेकिन, जब संगठित तौर पर असीमित संसाधनों के साथ राजनीतिक पार्टियों ने इसका इस्तेमाल शुरू किया तब परेशानी शुरू हुई। इसमें गलती किसी एक पार्टी की नहीं है सबकी है।

अच्छे दिन का सपना दिखाना तो ठीक है परंतु उसे पूरा भी करना पड़ता है। पारंपरिक मीडिया के दौर में बड़े नेताओं और नागरिकों के बीच एक फासला होता था, नेता कभी-कभी जनता से सीधे बातचीत करते थे परंतु, सोशल मीडिया ने इस फासले को पाट दिया है। अब नेता सीधे जनता से बात कर रहा था, इसलिए जनता ने विश्वास भी कर लिया और अच्छे दिन के सपने से अपनी सहमति भी प्रकट की।

यहां तक तो सब ठीक था परंतु, सोशल मीडिया ने सहमति जताने और बातचीत के लिए फासला कम किया। असहमति के लिए भी वो फासला अब कम हो गया था। पहले तो चुनाव के पश्चात नेता जनता के बीच 4 वर्ष तक तो जाते ही नहीं थे। लोग भी कभी-कभी पत्र लिखकर अथवा सीधे नेता से मिलकर अपनी असहमति प्रकट करते थे अथवा मीडिया लोगों की बात रखता था। परंतु अब समीकरण बदल गया था। लगभग सभी नेताओं ने चुनाव प्रचार के लिए ट्विटर, फेसबुक पर अपने अकॉउंट खोले और अच्छे दिन का सपना बेचा लेकिन, वो यह भूल गए कि अब जनता हर रोज़ आकर उनसे सवाल पूछेगी कि कहां हैं अच्छे दिन।

जिसका कि भारत के राजनेताओं को कम अभ्यास है, क्योंकी अभी तक तो एक तरफा संवाद होता था, नेता मंच से भाषण देते थे जनता सुनती थी। कार्यालय में नेता जनता से मिलते नहीं थे अथवा मिलते भी थे तो अकेले में। चुनाव से पहले कभी जनता के बीच जाते नहीं थे। मगर, अब समीकरण बदल गए थे। जनता के पास एक ऐसा साधन था जिसके ज़रिये वह कभी भी कहीं से भी सीधे नेता से सवाल कर सकती थी। अपनी असहमति प्रकट कर सकती थी (उदहारण देखें तो लंदन में भारत के प्रधानमंत्री ने अपने इंटरव्यू में कहा था कि मुझे तो हर रोज़ 2-3 किलो गालियां सुननी पड़ती हैं) और सोशल मीडिया पर लाखों करोड़ों लोग इसे देखते हैं कि नेता ने सवाल का जवाब क्यों नहीं दिया और दिया तो सही दिया या गलत तरीके से दिया। समस्या को हल किया या नहीं। अब सोशल मीडिया नेताओं के गले की फांस बन गया था (सभी नेताओं के चाहे वे विपक्ष के ही क्यों ना हो)।

अब इस समस्या के समाधान हेतु आईटी सेल के ढांचे में परिवर्तन किया गया। पहले उनका काम था ज़्यादा से ज़्यादा लोगों तक अपनी बात पहुंचाना, संवाद कायम करना। संक्षेप में कहें तो चुनाव प्रचार करना परंतु अब ज़रूरत अलग तरह के लोगों की थी। क्योंकि अब समस्या अलग तरह की थी। अब लाखों की संख्या में नागरिकों ने जिनसे 15 लाख का वादा किया था, ने सवाल पूछना शुरू कर दिया था कि कहां है 15 लाख या कहें तो जनता ने सीधे सरकारों से सवाल किया, जो अब तक कम होता था। लाखों लोग एक साथ मिलकर किसी चौराहे पर खड़े होकर कब सवाल पूछते हैं?

सोशल मीडिया पर ऐसा संभव है चाहे एसएससी का आंदोलन हो, जहां आंदोलन तो सिर्फ कुछ हज़ार लोग ही कर रहे थे, पर सोशल मीडिया पर लाखों की संख्या में विद्यार्थी ट्वीट कर रहे थे या फेसबुक पोस्ट कर रहे थे। शिक्षा मित्रों को देख लें उनसे जो वादा किया गया था, चुनाव के पश्चात उन्होंने भी लाखों की संख्या में सवाल पूछने शुरू कर दिए।

रेल में यात्रा कर रहा आम नागरिक कोई भी समस्या होने पर अब सीधे रेल मंत्री को टैग करके ट्वीट कर देता है। ऐसे लोगों की संख्या लाखों में होती है, जो हर रोज़ रेल में सफर करते समय होने वाली समस्याओं के प्रति सोशल मीडिया पर अपना रोष प्रकट करते हैं। शुरुआती दौर में भारत के राजनेताओं ने इसकी कल्पना भी नहीं की होगी, उन्हें लगा होगा कि बस चुनाव प्रचार करो और जीत जाओ।

पहले नेता एक तरफा संवाद का मज़ा लेते थे, अब दोतरफा संवाद का समय आ गया है। तब इस समस्या से निपटने के लिए आईटी सेल में विशेष प्रकार के योद्धाओं की आवश्यकता महसूस हुई और फिर क्या था आभासी पत्थरबाज़ों की एक भीड़ तैयार की गयी। यह काम सभी पार्टियों ने किया। उन्होंने भी जो सत्ता में नहीं थी क्योंकि जनता उनसे भी सवाल पूछ ही लेती थी कि तुम्हारे पास कोई इससे बेहतर उपाय है तो बताओ खाली जुमला नहीं चलेगा।

जो सत्ता में होता है उससे ज़्यादा सवाल किये जाते हैं, हर कोई सवाल करता है, जनता करती है, विपक्ष करता है, पत्रकार करते हैं। सत्तापक्ष को इन सोशल मीडिया के योद्धाओं की ज़्यादा ज़रूरत थी और ज़रूरत के अनुसार योद्धा तैयार किये गए। सोशल मीडिया के प्रयोग के इस छोटे से दौर में ही उसमें 360 डिग्री का बदलाव आ गया। जो पहले मूलतः आम लोगों को अपनी बात कहने की जगह थी अब आईटी सेल में बैठे लोगों को उनको रोकने का काम दे दिया गया।

जो लोग अपने सवाल पूछना चाहते थे अथवा असहमति प्रकट करना चाहते थे, उनपर हमला करने के लिए एक संगठित भीड़ तैयार कर दी गई। ऐसी भीड़ एक ऑफिस में काम करती है, उस काम के लिए भीड़ को तनख्वाह भी मिलती है, इंसेंटिव भी मिलता है। काम आसान है, अगर कोई व्यक्ति मंत्री से सवाल करता है तो हज़ारों की संख्या में उस पर आभासी पथराव शुरू कर दो, ताकि वह अगली बार सवाल ही ना पूछे। क्योंकि इससे पहले भी वो रोज़-रोज़ मंत्री से सवाल नहीं करता था।

कोई पत्रकार सरकार की किसी योजना का खुलासा करता है, उसपर संगठित रूप से हमला कर दो, उसको बदनाम करने के लिए उसका किसी राजनीतिक पार्टी से सम्बन्ध बता दो अथवा उसकी फोटो एडिट करके व्हाट्सएप्प पर वायरल कर दो। झूठी खबर फैला दो, विपक्ष के खिलाफ झूठ फैला दो। सरल भाषा में कहें तो सोशल मीडिया ट्रायल शुरू हो गया। जैसे ही आप उस भीड़ के सरदार के खिलाफ टिप्पणी करते हैं, हज़ारों की संख्या में आभासी पत्थरबाज़ आप पर पथराव शुरू कर देते हैं। ऑन दी स्पॉट फैसला किया जाता है। व्यक्ति देशद्रोही है अथवा दलाल या कुछ और सभी पार्टियों ने इस प्रकार की आभासी भीड़ तैयार कर ली है। वह भीड़ ऑटोमेटिक भीड़ है, बटन दबाने की ज़रूरत नहीं है। आदेश की ज़रूरत नहीं है। आप बस उस भीड़ के सरदार के खिलाफ टिप्पणी कीजिये, भीड़ तुरंत ही आपको घेर लेगी और तुरंत फैसला किया जायेगा।

यह भीड़ अन्य काम भी करती है, जैसे जब कोई योजना असफल हो रही हो तो उसकी सफलता में माहौल बना दो। और ये सब एक संगठित भीड़ द्वारा किया जा रहा है। इसे कहते हैं जनमत की मौत। चाहे बहुसंख्यक लोग नोटबंदी एवं GST से सहमत ना हों अथवा उन्हें नुकसान हुआ हो पर इस आभासी भीड़ ने उसे सफल घोषित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। जो दो तरफा संवाद शुरू हुआ था अब पुनः एक तरफा संवाद में बदल गया है। सरकार चाहे कुछ भी ना कर रही हो यह आभासी भीड़ उसकी सफलता के झंडे सोशल मीडिया पर गाड़ देती है।

फेक न्यूज़ का दौर चल पड़ा है, क्योंकि यहां करोड़ों की संख्या में लोग हैं, कोई जांचने वाला भी नहीं है कि कौन सच कह रहा है कौन झूठ। उस पर भी राजनीतिक पार्टियों ने संगठित भीड़ को इसी काम में लगा दिया है, उनके पास भरपूर संसाधन है।

सोशल मीडिया अपने शुरुआती दौर में जितना उपयोगी साबित हुआ अब उससे ज़्यादा समस्याएं खड़ी कर रहा है। फेक न्यूज़ की समस्या एक बहुत गंभीर समस्या है। वहीं व्हाट्सएप्प के ज़रिये झूठी अफवाहें फैलाई जा रही हैं। जिसके कारण जनवरी 2017 से जुलाई 2018 तक लगभग 33 लोगों की भीड़ ने जान ले ली।

फेक न्यूज़ में तो हम नंबर 1 बन ही गए हैं। चाहे प्रधानमंत्री को यूनेस्को द्वारा दुनिया का सबसे बेहतरीन प्रधानमंत्री घोषित करने की अफवाह हो, चाहे नोटबंदी के बाद नोटों में नैनो चिप अथवा रेडियोएक्टिव इंक से टाइप करने की बात हो। ऐसी ढेरों अफवाहे हैं, जो आग की तरह फैली और उन पर बड़े-बड़े लोगों ने विश्वास भी कर लिया। सोशल मीडिया के ज़रिये फैली नोटों में नैनो चिप की अफवाह के लपेटे में तो बड़े-बड़े मीडिया हाउस तक आ गए।

16 जुलाई को ही गूगल के एक इंजीनियर की व्हाट्सएप्प पर फैली अफवाहों के आधार पर भीड़ ने पीट पीटकर हत्या कर दी। इससे स्पष्ट होता है हम सोशल मीडिया का सही से और ज़िम्मेदारी से प्रयोग करने में असफल रहे हैं।

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