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“हम्बनटोटा पोर्ट का चीन जाना बाकी देशों के हक में है”

श्रीलंका के दक्षिण में एक जगह हुआ करती थी रूहाना, कहते हैं बहुत समृद्ध सभ्यता थी यहां। इतिहास बताता है कि समुन्दर के किनारे बसी यह जगह उपजाऊ थी, सिंचाई की उत्तम व्यवस्था थी और यहां थाईलैंड, चीन और इंडोनेशिया से व्यापारी भी आते थे। चीनी व्यापारी अपनी नौकाओं को “संपन” कहते थे और लंगर वाली जगह को “थोटा” इसलिए इस जगह को “संपनटोटा” कहा जाने लगा और फिर बाद में अपभ्रंश होकर ये जगह हम्बनटोटा हुआ।

पिछले साल श्रीलंका सरकार ने हम्बनटोटा बंदरगाह, चीन को 99 साल के पट्टे पर दे दिया था और अभी हाल की खबरें ये हैं कि हम्बनटोटा एयरपोर्ट के परिचालन की ज़िम्मेदारी भारत को मिली है। यही वजह है कि कुछ सालों से ये जगह सुर्खियों में है।

आखिर क्या वजह रही कि श्रीलंका सरकार को ऐसा करना पड़ा? कौन सी नीतियां इसके लिए ज़िम्मेदार हैं, इसके मायने क्या हैं?

मोटे तौर पर देखें तो इसके लिए कोई पॉलिसी नहीं बल्कि एक शख्स ज़िम्मेदार है और आश्चर्य की बात ये कि उस शख्स का जन्म भी वहीं हुआ, हम्बनटोटा में।

महीन्दा राजपक्षे

श्रीलंका के पूर्व राष्ट्रपति और पूर्व प्रधानमंत्री जिन्होंने कर्ज़ के पैसे से अपने जन्मस्थान का उद्धार करना चाहा और वो इतना उल्टा पड़ा कि वहां का बंदरगाह पट्टे पर देना पड़ गया। महीन्दा राजपक्षे, जिनको लेकर वर्तमान कंफ्यूज है कि उन्हें हीरो बताये कि विलेन लेकिन इतिहास को ये संदेह नहीं होगा। महीन्दा राजपक्षे जो श्रीलंका के छठे राष्ट्रपति हुए और उस से ठीक पहले श्रीलंका के प्रधानमंत्री थे। उनको जो-जो जब-जब होना था, तब-तब वो-वो हुए।

ज़रूरत क्यूं पड़ी?

बात 2004 की है। सुनामी ने हिन्द महासागर से सटे इलाकों में तबाही मचा दी, इसमें अकेले हम्बनटोटा में 4500 से ज़्यादा लोग मारे गए, हज़ारों घर क्षतिग्रस्त हो गए, करोड़ों का नुकसान हुआ, तब महिंदा राजपक्षे ही प्रधानमंत्री थे। पुनरुद्धार के लिए “नैशनल डिज़ास्टर फण्ड” में देश विदेश से बढ़-चढ़ कर फण्ड मिला और फिर उसी में से कुछ फंड “हेल्पिंग हम्बनटोटा” नाम से प्राइवेट बैंक में ट्रान्सफर किया गया। इस करप्शन के मामले में सीधा प्रधानमंत्री का नाम आया और बात आगे अदालत तक भी गई।

खैर, तब तक राष्ट्रपति चुनाव हुए और महिंदा राजपक्षे प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा देकर श्रीलंका के राष्ट्रपति बने। अबकी हम्बनटोटा के विकास के लिए उन्होंने विदेशी कर्ज़ लेना चाहा और तर्क यह दिया कि इस पोर्ट से होने वाली कमाई से कर्ज़ चुकता हो जायेगा पर बात नहीं बनी। भारत से भी बात हुई पर भारत ने इसमें दिलचस्पी नहीं दिखाई।

और फिर आया ड्रैगन

चीन ने सुनामी आपदा को एक मौके की तरह भुनाया और हिन्द महासागर में अपनी पैठ जमाने के लिए कोशिशें तेज़ कर दीं। जैसे ही उन्हें पता चला कि श्रीलंका हम्बनटोटा के विकास के लिए कर्ज़ चाहता है चीन ने मात्र 6.3 प्रतिशत के मामूली ब्याज़ पर 370 मिलियन डॉलर का कर्ज़ ऑफर कर दिया। शर्त यह थी कि हम्बनटोटा को चाईनीज़ कंपनी ही बनाएगी और बनाने वाले लोग भी चाईनीज़ ही होंगे। यानी इस प्रोजेक्ट से श्रीलंका की एम्प्लॉयमेंट पर कोई फर्क नहीं पड़ने वाला था। न्यूयॉर्क टाइम्स की एक रिपोर्ट के मुताबिक चीन ने पहले ही अनुमान लगा लिया था कि यह एक “फेल्ड” प्रोजेक्ट है पर फिर भी उन्होंने कर्ज़ दिया क्यूंकि उनकी मंशा कुछ और थी।

इतने कम ब्याज़ पर मिल रहे कर्ज़ ने महिंदा राजपक्षे को उत्साहित कर दिया और बाद में उन्होंने इसका दुगुना कर्ज़ और ले लिया। जब पोर्ट शुरू हुआ तो यह श्रीलंका के लिए डिज़ास्टर साबित हुआ। 2012 में हम्बनटोटा में सिर्फ 34 जहाज़ों ने अपना लंगर डाला। कोलम्बो पोर्ट पर कोई ओवरबर्डन नहीं था इसलिए जहाज़ के हम्बनटोटा में रुकने का औचित्य ही नहीं था। अब यह तो साफ होता जा रहा था कि श्रीलंका इस कर्ज़ को नहीं चुका पायेगा।

2015 महिंदा के लिए किसी बुरे सपने की तरह आया, पहले राष्ट्रपति का चुनाव बड़े नाटकीय ढंग से हारे और फिर अगस्त के जनरल इलेक्शन में भी हार कर सत्ता से बाहर चले गए। अबकी  मैथ्रिपाला सिरिसेना श्रीलंका के नए राष्ट्रपति हुए और रनिल विक्रमसिंघे प्रधानमंत्री। उनके सामने भी इस लोन से निकलने की चुनौती थी। बहुत सी मीटिंग्स हुईं, पड़ोसी देश भारत का भी ध्यान रखा गया पर हम्बनटोटा पोर्ट को 99 साल की लीज़ पर चीन के हवाले करना ही पड़ा। हालांकि वो यह शर्त मनवाने में कामयाब रहे कि वहां चीन नौसेना का बेस नहीं बना सकता पर भविष्य ही तय करेगा कि कितनी शर्तों पर चीन मानता है और कितनी श्रीलंका मनवा पाता है।

हम्बनटोटा पोर्ट का चीन जाना बाकी देशों के हक में कैसे है?

चीन से “सस्ता कर्ज़” सिर्फ श्रीलंका ने नहीं लिया है बल्कि मालदीव, पाकिस्तान के अलावा लाओस, मंगोलिया, जिबूती इत्यादि देशों ने भी भारी मात्रा में कर्ज़ लिया है और चुका पाने पर प्रश्न चिन्ह हैं। नेपाल और कुछ देश अभी भी चीन से कर्ज़ लेने के इच्छुक हैं, वहीं मलेशिया और म्यांमार ने श्रीलंका का हाल देखते हुए अपने यहां कुछ चीनी प्रोजेक्ट को कैंसिल किया है और कुछ पर अंकुश भी लगाया है। मलेशिया के नवनिर्वाचित प्रधानमंत्री महातिर मोहम्मद ने तो “चाईनीज़ स्टाइल” का खुलके विरोध भी  किया।

हम्बनटोटा पोर्ट के जाने से उन सभी देशों में अलार्म बजा है जो चीन से कर्ज़ लिए जा रहे थे या लेने की सोच रहे थे। पाकिस्तान और मालदीव जैसे देश तो चीन के कर्ज़ तले बुरी तरह फंस गए हैं लेकिन बाकी देशों के पास अभी भी समय है कि सचेत हो जाएं और वो हो भी रहे हैं।

आखिर उस कर्ज़ का क्या फायदा जो घर ही ना रहने दे।

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