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सेफ ऑप्शन के नाम पर कब तक थोपते रहेंगे बच्चों पर इंजीनियरिंग?

भारत में शादियां कई चीज़ों के लिए मशहूर हैं। लेकिन किसी शादी के कार्यक्रम में दूल्हा और दुल्हन के अलावा सबसे अधिक बात जिस चीज़ के बारे में की जाती है, तो वो उन स्कूली छात्रों के बारे में होती है, जिन्हें ना चाहने पर भी इंजीनियरिंग कॉलेज के काउंसलिंग सेशन्स दिए जाते हैं। एक बार ऐसे ही मैं अपनी बोर्ड परीक्षाओं के दौरान एक शादी के कार्यक्रम में शरीक हो रहा था कि कुछ रिश्तेदारों ने मुझसे अचानक पूछना शुरू कर दिया कि मैं इंजीनियरिंग की कौन सी ब्रांच लेने के बारे में सोच रहा हूं। मैंने अचानक खुद को ऐसी स्थिति में पाया जो भारतीय समाज में काफी आम बात है।

चलिए आपको मैं अपने बैकग्राउंड के बारे में भी थोड़ा बता देता हूं, चेन्नई से हाई स्कूल की परीक्षा पास करने के बाद मैंने सी.बी.एस.सी. बोर्ड से साइंस में पढ़ाई करना चुना था। मुझे हमेश से ही साइंस पढ़ना पसंद था, लेकिन उसके साथ-साथ मुझे पॉलिटिकल साइंस और ह्यूमैनिटीज़ भी पसंद थे। मेरे स्कूल में ह्यूमैनिटीज़ ना होने के कारण मैंने साइन्स का चुनाव किया और लोगों ने खुद ही तय करना शुरू कर दिया कि मैं इंजीनियरिंग या मेडिसिन में अपना करियर बनाना चाहता हूं।

जब ग्यारहवीं कक्षा में मैंने वैकल्पिक विषय के रूप में बायोलॉजी को चुना तो सभी का विश्वास और मज़बूत हो गया। लेकिन असल में मुझे ना तो इंजीनियरिंग में और ना ही मेडिसिन में कोई दिलचस्पी थी, मुझे केवल साइंस के मौलिक रूप के कारण यह पसंद था। मैंने तय किया कि मैं कॉलेज में साइंस के साथ ह्यूमैनिटीस भी पढ़ने की कोशिश करूंगा और फिर उसके बाद तय करूंगा कि आगे कॉलेज के बाद ‘मुझे क्या बनना है। लेकिन यह केवल तभी तक रहा जब तक कि मुझे पता नहीं चला कि भारतीय शिक्षा प्रणाली विद्यार्थियों को क्या-क्या विकल्प प्रदान करती है।

भारत की यूनिवर्सिटियां बस नाम की ही यूनिवर्सिटी हैं। ज़्यादातर शिक्षण संस्थानों में सीमित विषयों में ही कोर्स उपलब्ध हैं, और ऐसी जगहें बेहद कम हैं, जहां अलग-अलग विषयों पर कोर्स एक साथ उपलब्ध हैं। यही वह समय भी था, जब मैंने हमारे समाज में मौजूद जेनरेशन गैप को महसूस किया। हालांकि मेरे माता-पिता मेरी पढ़ाई की पसंद को लेकर मेरे साथ थे, लेकिन मेरे कई रिश्तेदार ऐसे भी थे जो इंजीनियरिंग या मेडिसिन को करियर के तौर पर ना चुनने पर भी साइंस लेने की बात को हज़म नहीं कर पाते थे।

बहुत सारे लोगों के लिए मैं इतना स्मार्ट तो था कि इंजीनियरिंग में एडमिशन ले सकता था पर इतना भी नहीं कि मेडिकल की कट-ऑफ में मेरा नाम आ जाता। मुझे यह भी कहा गया कि मुझे क्या पसंद है उसे छोड़कर मुझे इंजीनियरिंग की सीट पर फोकस करना चाहिए।

लेकिन सबसे ज़्यादा चौंकाने वाली बातें मुझे मेरे रिश्तेदारों या परिवार के लोगों की नहीं बल्कि अपने दोस्तों की लगी। मेरे ऐसे भी दोस्त हैं जो प्रैक्टिकल फील्ड के नाम पर उन चीज़ों को छोड़ रहें हैं जो उन्हें सच में पसंद हैं। क्योंकि वो पहले से ही यह मान चुके हैं कि जो चीज़ें उन्हें पसंद हैं वो सब फिज़ूल हैं। ‘इसमें कोई भविष्य नहीं है’ जैसी बातें हमारे देश में उतनी ही आम हो गयी है जितने कि बेरोज़गार इंजीनियर। शिक्षित मां-बाप भी विभिन्न क्षेत्रों में करियर की संभावनाओं को नहीं देख पा रहे हैं, और कुछ अलग करने में उन्हें कोई करियर नज़र नहीं आता। इस तरह की सोच का नज़रिया बच्चों पर भी असर डालता है और वो भी कुछ अलग करने के बारे में नहीं सोच पाता, और करियर के उन्हीं पारंपरिक तरीकों के ही बारे में सोचता है।

कभी-कभी लगता है कि इंजीनियरिंग काफी सारे लोगों को मिलाने का काम कर रही है, ऐसे लोग जो मुझे लगता है कि सिनेमेटोग्राफर, लेखक, कवि, साइंटिस्ट या सामाजिक कार्यकर्त्ता हो सकते थे। एक हद तक मैं समझ सकता हूं जब हमारे बड़े-बुजुर्ग, इंजीनियरिंग या मेडिसिन को एक ‘सुरक्षित करियर’ की तरह देखते हैं, लेकिन जब मां-बाप और उससे भी ज़्यादा विद्यार्थियों को ही ऐसा लगता है कि करियर के बस दो या तीन ही विकल्प मौजूद हैं, यह मेरी समझ में नहीं आ पाता।

इस तरह के छात्र, इस तथ्य से भी प्रभावित हुए हैं कि आज इंजिनियरों की उतनी ज़रूरत नहीं रह गयी है जितनी कुछ दशक पहले थी, जो साफ तौर पर रोज़गार को प्रभावित करता है। औसतन भारत में दस लाख इंजिनियर बनते हैं, जिनमें से केवल 20% को रोज़गार मिल पाता है। इसलिए यह ना तो उतना प्रैक्टिकल है और ना ही सुरक्षित, जितना इसे बताया जाता है।

जहां तक मेरी बात है मुझे इस बात का कोई अंदाज़ा नहीं है कि मैं आगे क्या करूंगा या क्या बनूंगा। लेकिन मुझे पता है कि मुझे क्या पसंद है और मैं ये विषय अच्छे से पढ़ना चाहता हूं, ताकि मुझे पता चल सके कि ये मुझे सही में पसंद हैं या नहीं। मैं करियर के लिए कोई भी एक विषय पर आकर रुकने पर विश्वास नहीं करता क्योंकि मुझे बहुत सारे विषय पसंद हैं। अभी हाल ही में मेरे कुछ दोस्तों ने कहा कि बहुत सारे लोग इंजीनियरिंग कॉलेज में इसलिए एडमिशन लेते हैं ताकि उन्हें पता चल सके कि वो इसे कितना नापसंद करते हैं, और उन्हें असल में क्या पसंद है। कुछ लोग ऐसे भी जरुर हैं जिन्हें सच में इंजीनियरिंग पसंद है, लेकिन अफसोस की बात ये है कि कुछ लोग इंजीनियरिंग केवल इसलिए करते हैं क्योंकि केवल 18 साल की उम्र में उन्हें यह पता नहीं होता कि वो क्या करना चाहते हैं।

भारतीय शिक्षा प्रणाली में कई सारी खामियां होने के कारण इसकी काफी आलोचना होती रही है। लेकिन एक चीज हमें समझना बेहद ज़रूरी है कि व्यवस्था में कानूनी तौर पे बदलाव लाना आसान है, लेकिन अभी जिसकी सख्त ज़रूरत है, वो है सामाजिक बदलाव। जब तक यह नहीं आएगा, व्यवस्था में कितने भी क़ानूनी बदलाव कर लिए जाएं, उनका कोई ख़ास प्रभाव नहीं होगा

हिंदी अनुवाद – सिद्धार्थ भट्ट

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