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ना ज़रूरी ड्रेस कोड ना बेंच सिस्टम, बच्चों को बेहतर इंसान बनाता उमंग स्कूल

कभी-कभार जीवन की घोर व्यस्तताओं के बावजूद कुछ घटनाक्रम ऐसे होते हैं कि वक्त से मुख छिपाककर एकांतवासी बचा रह पाना दुष्कर होता है। बीते दिनों एक साथी द्वारा हरियाणा के सोनीपत के गन्नौर क्षेत्र में अवस्थित उमंग पाठशाला नाम की एक गैर लाभकारी शैक्षणिक संस्था के बारे में जानकारी मिली। साथ ही साथ चलने का न्यौता भी मिल गया, तो मुझ जैसा यायावर आदमी खुद को रोक ना सका और अगले ही दिन निकल पड़ा उमंग की उड़ान देखने।

उमंग पाठशाला कई मायनों में खास है। पहला तो पूर्ण रूप से इसकी अध्यापन प्रणाली वैकल्पिक शिक्षा पर आधारित है। मसलन, यहां छात्रों को शिक्षा कक्षाओं के आधार पर बांटकर नहीं वरन उनकी मानसिक बुद्धिमत्ता के स्तर पर समूहों में वितरित करके दिया जाता है।

दूसरे,अध्यापन कक्षों की संरचना भी खूब आकर्षित करती है। आम स्कूलों की तरह यहां आगे-पीछे बेन्च/कुर्सी लगाकर छात्रों को बिठाने से पूर्णतः परहेज़ किया जाता है। कक्षाओं में छात्र/छात्राओं को वृत्ताकार स्वरूप में बिठाया जाता है। इस संदर्भ में पूछे जाने पर निदेशक महोदय बताते हैं कि-बच्चों को आगे-पीछे बैठाकर/अध्यापक को ऊंची कुर्सी और बच्चों को तुलनात्मक रूप से थोड़ा नीचे बिठाकर, हम बच्चों में शुरुआती दौर से ही असमानता की आग को प्रज्वलित करना आरंभ कर देते हैं।

तीसरी और सबसे रोचक बात यहां का अध्यापन तकनीक है। यहां के बच्चों को ना तो शुरुआत से ही पीठ पर बोरा लदवाकर बाल श्रमिक बनाया जाता है और ना ही कक्षा में ही मारा-पीटा जाता है। यहां के बच्चों को क,ख,ग…की श्रेणी याद नहीं पर ये ‘कमल’ और ‘गगन’ उच्चारण सहित पढ़ और लिख लेते हैं। उसी तरह इन्हें पहाड़ा और गिनती भी रटा हुआ नहीं है परन्तु बड़े-बड़े जोड़, गुणा, भाग करना इनके लिये बायें हाथ का खेल है। उमंग का प्रयास बच्चों को महज़ किताबी कीड़ा बनाने से दूर एक बेहतर इंसान बनने की ओर प्रेरित करता हुआ दिखाई पड़ता है।

केवल तय पुस्तकों के इतर भी उमंग में बच्चों के लिये शारीरिक शिक्षा, संगीत, नृत्य और कम्प्यूटर एवं व्यवहारिक नैतिक शिक्षा जैसे तमाम बेहतरी के प्रशिक्षण कार्यक्रम नियमित रूप से कार्यकारी हैं।

सबसे महत्तवपूर्ण बात कि उमंग पाठशाला में हाल -फिलहाल में तकरीबन सौ के आसपास बच्चे हैं पर उमंग में अपनी शिक्षा-प्रशिक्षण के बदले शुल्क/फीस देने की कोई बाध्यता नहीं है। जो सक्षम हैं देते हैं और ऐसे बच्चों की संख्या केवल चार है। लगभग-लगभग ट्रस्ट और अन्य सहायकों के द्वारा चलने वाला उमंग पाठशाला 21वीं सदी के पूंजीवादी दौर में प्रचलित शिक्षण संस्थाओं पर तमाचे के साथ -साथ नज़ीर भी है।

सुबह की प्रार्थना की भी शुरुआत किसी एकल धर्म के सैद्धान्तिक प्रार्थना से इतर नैतिकता और मानवता की शिक्षा देने वाले गीतों से होती है।पाठशाला में किसी भी प्रकार का थोपा गया निश्चित ड्रेसकोड भी नहीं है। वेशभूषा है पर वह भी स्वेच्छा पर निर्भर। उमंग में केवल सौ बच्चों पर बराबर के अनुपात में छः से सात महिला/पुरुष शिक्षक भी जी-तोड़ मेहनत करते हैं।

कुल मिलाकर,उमंग की कार्यप्रणाली और प्रयास, आज़ाद भारत में भी गुलामी की दास्तां को अभिव्यक्त करने वाले कार्यपालिकाओं, नौकरशाहों को जन्मने के बरक्स समकाल के गाँधी और अंबेडकर को जन्मने जैसा है। उमंग के लिये ‘मजरूह सुल्तानपुरी’ साहब का एक शेर याद आता है…

“मैं अकेला ही चला था जानिब-ए-मंजिल की ओर
मगर लोग आते गए और कारवां बनता गया ”

शुभकामना उमंग!
आप सब भी विजिट करें!

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