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मुसलमानों को रेप का कारण बताने वाले नेता जी ज़रा ये भी पढ़िए

यूपी के अंबेडकर नगर संसदीय क्षेत्र से भाजपा सांसद हरि ओम पांडेय ने बयान दिया है कि देश में बलात्कार और हत्या जैसे गंभीर अपराधों के मामलों में हो रही वृद्धि का कारण देश में तेज़ी से बढ़ रही मुस्लिम आबादी है। अगर सरकार बढ़ती मुस्लिम आबादी को रोकने में विफल रही तो जल्द ही भारत से एक दूसरे पाकिस्तान जैसा देश बनेगा। भारत में प्रचलित आतंकवाद, बलात्कार, यौन उत्पीड़न जैसे खतरे केवल बढ़ती मुस्लिम आबादी के कारण हैं।

इस बयान पर किसी भी तरह की टिप्पणी करने से पहले मैं यहां विगत कुछ सालों में देश में महिलाओं के यौन शोषण के निम्नलिखित मामलों की ओर पुन: ध्यान दिलाना चाहूंगी।

केस 1- पिछले हफ्ते मुज़फ्फरपुर स्थित एक एनजीओ द्वारा संचालित बालिका गृह में रह रहीं 44 लड़कियों में 42 की मेडिकल जांच कराये जाने पर उनमें से 29 के साथ बलात्कार होने की पुष्टि हुई है। मामले में बालिका गृह के संचालक ब्रजेश ठाकुर सहित कुल 10 आरोपियों को गिरफ्तार किया गया है। फिलहाल बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने सीबीआई जांच के आदेश दिये हैं।

केस 2- अगस्त 2013 में बापू आसाराम के ऊपर जोधपुर में उनके ही आश्रम में एक सोलह साल की लड़की के साथ कथित अप्राकृतिक दुराचार के आरोप लगे हैं। नाबालिग से रेप मामले में आसाराम को उम्रकैद, बाकी दो दोषियों को 20-20 साल की सज़ा सुनाई गई है।

केस 3- हरियाणा के सिरसा में स्थित आध्यात्मिक संस्था डेरा सच्चा सौदा के प्रमुख गुरमीत राम रहीम सिंह को एक यौन शोषण मामले में अदालत द्वारा 25 अगस्त 2017 को दोषी करार दिये जाने के बाद 20 साल के सश्रम कारावास व 65 लाख रूपये जुर्माने की सज़ा सुनाई गई है।

केस 4- जून, 2018 में केरल के कोट्टयम के मलंकरा ऑर्थोडॉक्‍स सीरियन चर्च में एक विवाहित महिला का कई सालों से यौन शोषण करने वाले आरोपियों में से पांच पादरियों की अग्रिम ज़मानत को सुप्रीम कोर्ट ने खारिज़ कर दिया है।

केवल ऊपर बताये गये चारों मामले ही नहीं, आये दिन टीवी, अखबार, सोशल मीडिया और अपने आस-पड़ोस से हमें इस तरह की दरिंदगी की घटनाएं देखने-सुनने या पढ़ने को मिल जाती हैं और ऐसी वहशियत को अंजाम देने वाले केवल मुसलमान ही नहीं, बल्कि हर धर्म, मज़हब या कौम के दरिंदे शामिल होते हैं।

हालांकि मेरी राय में तो ऐसे लोग ना तो हिंदू होते हैं और ना मुसलमान। वे सिर्फ और सिर्फ हैवान होते हैं, जिनके लिए इंसानी जिस्म मात्र उनके वहशीपन की भूख मिटाने का एक ज़रिया होता है। उनके अंदर ना तो कोई संवेदना होती है और ना ही कोई ज़हनियत। अफसोस तो इस बात की है कि लगातार ऐसी घटनाएं घटित होने के बावजूद सरकार, प्रशासन या हमलोग उन पर लगाम लगाने में सफल नहीं हो पा रहे हैं।

हर बार ऐसी घटनाओं के बाद टीवी-अखबार, सोशल मीडिया आदि हर जगह काफी कुछ लिखा, देखा और सुना जाता है। लोगों द्वारा जुलूस और आंदोलन किये जाते हैं। इस स्थिति से निपटने के लिए विशेषज्ञों से राय ली जाती है लेकिन, मुझे लगता है ऐसी किसी घटना के बाद सोशल मीडिया पर लंबे-चौड़ी भाषण बाज़ी वाले पोस्ट लिख देने, कैंडल मार्च निकालने या फिर अखबार या टीवी में बड़े-बड़े नेताओं या विशेषज्ञों को बुलाकर उनसे सवाल-जबाव करने से कोई बदलाव नहीं होने वाला है। होगी तो बस राजनीति, कभी धर्म के नाम पर, कभी सिसायत के नाम पर।

अब तो स्त्री और पुरुष के नाम पर भी हमें बांटने की साजिश रची जा रही है। ऐसे में सांसद हरि ओम पांडेय जैसे नेताओं के बयान इस आग में घी डालने का काम करते हैं।

कुछ समय पूर्व बलिया से भाजपा विधायक सुरेंद्र सिंह ने भी ऐसा ही एक विद्वेषी बयान दिया था, जिसमें उन्होंने हिंदुओं को अपनी आबादी बढ़ाने की सलाह दी थी। उनके अनुसार,

हिंदुओं को अपनी आबादी बढ़ानी चाहिए। हर हिंदू युगल को कम-से-कम पांच बच्चे पैदा करने चाहिए, तभी हिंदुस्तान में हिंदुत्व बचा रहेगा, भारतीय ताकत बनी रहेगी।

वर्तमान में मामला चाहे कोई भी हो, जिस तरह हर मसले को धर्म और राजनीति की चादर में लपेटा जा रहा है, वह अपने आप में बेहद चिंता का विषय है। अगर ऐसा ही चलता रहा तो वह दिन दूर नहीं जब हमें सांस लेने और हमारे दिल को धड़कने के लिए भी सियासत में बैठे इन चंद फरमाबदारों से इजाज़त लेने की नौबत आ पड़ेगी।

पिछले कुछ समय से देश में जिस तरह के हालात पैदा किये जा रहे हैं, उसे देखते हुए तो ऐसा लगता है कि धर्म और राजनीति के अलावा तीसरा कोई मुद्दा बचा ही नहीं है चर्चा करने के लिए। देश में छोटी मासूम बच्चियों का चाहे दिन-दहाड़े बलात्कार हो, गरीब किसान चाहे भूखों मरे, देश की सीमाओं की रक्षा करते हुए हमारे सैकड़ों जांबाज सैनिक शहीद हो जायें, पर इससे इन नेताओं और शासन-प्रशासन के ऊपरी स्तर पर बैठे लोगों को कोई फर्क नहीं पड़ता। उन्हें फर्क पड़ता है, तो बस एक बात से कि उनका वोट बैंक कमज़ोर ना पड़े।

राजनीति का इससे विद्रूप स्वरूप और क्या हो सकता है कि कठुवा, सूरत या मंदसौर जैसी वहशियत में भी न्याय दिलाने की जल्दबाज़ी ना करके उसे हिंदू-मुस्लिम चश्मे से परखा जाता है। आखिर इसका मतलब क्या है? क्या जिन बच्चियों का शोषण हुआ है, वे अगर किसी विशेष धर्म या संप्रदाय से हुईं, तो उनके अभिभावकों को न्याय की उम्मीद छोड़ देनी चाहिए या फिर इसी वजह से उन्हें निष्पक्ष न्याय की उम्मीद ही नहीं करनी चाहिए?

इससे क्या फर्क पड़ता है कि मरनेवाली बच्चियों का भगवान कौन था या फिर रब कौन था। क्या वे एक आदमजात थीं या हैं, इतना काफी नहीं है।

सच तो यह है कि आज देश की राजनीति का एक बड़ा हिस्सा सड़ चुका है। कैंसर और कोढ़ से भी भयानक बीमारी ने इसे जकड़ लिया है। इस बीमारी से पीड़ित लोगों में बस सत्ता और कुर्सी पाने की होड़ मची है। इंसानी भेड़ियों के रूप में मौजूद दो पैरों वाले इन जानवरों ने अपना ज़मीर खो दिया है। वे अपने फायदे के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं। देश और अपने विरोधियों को कलंकित करने के लिए राजनीति की बिसात पर जाति-धर्म के षड्यंत्रों का खतरनाक खेल खेला जा रहा है। समाज को गिराने, व्यवस्था को हिलाने और इंसानियत की धज्जियां उड़ाने के लिए इससे ज़्यादा संगीन क्या हो सकता है।

ऐसे संगीन माहौल में सबसे ज़्यादा ज़रूरत अगर किसी चीज़ की है, तो वह है हमें इन नेताओं को अपनी आपसी एकता की ताकत दिखाने की। उन्हें यह बताने की कि उनके सियासी चालों से उलट आम ज़िंदगी में रौनक, अखलाक, बलविंदर और जॉनी सब एक ही हैं। उनके ज़हरीले बयान हमारी ईद और दीवाली की रौशनी को कभी नहीं बुझा पायेंगी। वे कितनी भी कोशिश कर लें, हम एक साथ मिलकर ही होली और बकरीद की खुशियां मनायेंगे, क्योंकि हम हिंदू-मुस्लिम-सिख और ईसाई बाद में हैं, पहले इंसान हैं।

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