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whatsapp, YouTube के फीचर्स ठीक हैं लेकिन क्या हम सजग हैं फेक न्यूज़ को लेकर?

कल कमोबेश हर अखबार ने पूरे एक पेज पर व्हाट्सएप का एक जनसंदेश जारी किया है “हम एक साथ मिलकर गलत-जानकारी की समस्या को दूर कर सकते हैं।” यह व्हाट्सएप द्वारा “फेक न्यूज़” की वायरल हो रही खबरों को रोकने के उपाय का हिस्सा है। हाल ही में व्हाट्सएप ने फेक न्यूज़ के कारण बढ़ती हिंसा के मद्देनज़र “तत्कालीन समाज पर तकनीक का असर” विषय पर रिसर्च करने के लिए 50 हज़ार डॉलर देने का भी ऐलान किया है। इसके तहत चुनाव संबंधी सामग्री, डिजीटल साक्षरता तथा कूट प्रणाली के दायरे में आपत्तीजनक व्यवहार का अध्ययन किया जाएगा।

ज़ाहिर है फेसबुक के स्वामित्व वाला व्हाट्सएप, लोगों को झूठी खबर से बचाने की कोशिश में लगा हुआ है। व्हाट्सएप ने “फारवर्ड मैसेज इंडिकेटर” सेवा शुरू की है जिसमें अब यह पता लगाया जा सकता है कि मिला हुआ संदेश किसी ने फॉरवर्ड किया है या उसका अपना है। जिसके लिए व्हाट्सएप का नया वर्जन अपडेट करना होगा।

व्हाट्सएप के इन कदमों के बाद गूगल के वीडियो प्लैटफॉर्म यूट्यूब भी फेक-न्यूज़ पर लगाम लगाने के लिए खबरों की सच्चाई परखने के लिए 2.5 करोड़ डॉलर खर्च करने की बात कर रही है, उनका यह प्रयास खबरों को ज़्यादा विश्वसनीय बनाने की दिशा में पहल है। ट्विटर ने अपनी पोलिंग एप “माईवोटटुडे” पर रोक लगा दी है।

पिछले कुछ सालों में पहले गो-रक्षा फिर गो-मांस और अब बच्चा चोरी के नाम पर सोशल मीडिया प्लैटफॉर्म पर साझा हो रही “फेक न्यूज़” पूरे देश को भीड़ में तब्दील कर, मॉब लिंचिंग की आग में झुलसा रहा है। व्हाट्सएप पर साझा की जा रही “फेक न्यूज़” की जानकारियां हमारे सामाजिक-धार्मिक जीवन में इस कदर ज़हर बो रही है कि हम समूह बनकर कातिलों की भीड़ में तब्दील होते जा रहे हैं।

कभी भीड़ को कातिल बनाती अफवाहें, तो कभी फर्ज़ी तस्वीरों से किसी की छवि बिगाड़ कर मीम बनाना, कभी जीते-जागते सितारे की मौत की खबर फैला देना, तो कभी स्पष्टता से विचार साझा करने पर महिलाओं का ट्रोल हो जाना। यह सब एक ऐसा सिर दर्द बन गया है, जो ना तो पुलिस प्रशासन से संभल रहा है और ना ही सरकारों से। गोया कहीं-कहीं तो पुलिस भी भीड़ के गुस्से का शिकार बन रही है।

इन तमाम गतिविधियों ने सोशल मीडिया मंचों की सार्थकता को तो बट्टा लगाया ही है, अब समाज के साथ-साथ मानवीय संबंध भी अपनी भावपूर्ण गरिमा की आहूती देने के कगार पर हैं। खुद मेरे ही बचपन के कई मित्र मुझसे इसलिए मुंह फेर चुके हैं क्योंकि व्हाट्सएप ग्रुप में साझा की जा रही समान्य बातचीत पर मेरे और उनके विचार अलग हैं।

भारत सरकार “फेक न्यूज़”  फैलने से रोकने के लिए काफी प्रयास कर रही है, लेकिन सफलता कोई खास नहीं मिली है। स्क्रोल में छपी एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में पिछले वर्ष 70 बार इंटरनेट सेवाएं बंद की गईं। “फेक न्यूज़”  को सोशल मीडिया पर आगे फॉरवार्ड करना भारत के लिए एक नई समस्या बन गई है। यहां करीब 20 करोड़ से अधिक उपभोक्ता व्हाट्सएप पर अरबों सदेशों का आदान-प्रदान करते हैं।

समस्या तब अधिक गंभीर हो जाती है, जब व्हाट्सएप पर वायरल होने वाले संदेशों का इस्तेमाल राजनीतिक और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के लिए किया जाने लगता है। जब राजनीतिक दल ही भीड़ को उन्मादी बनाने वाले लोगों के बचाव में बयानबाज़ी करते हैं, तब कहीं न कहीं वो राजनीतिक और सांप्रदायिक राजनीति का ही ध्रुवीकरण कर रहे होते हैं। इन गतिविधियों से जो लोग उन्माद फैलाते हैं उनको इस बात का एहसास रहता है कि कानून-व्यवस्था उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकती है। ज़ाहिर है यह दलगत राजनीति, समाज और प्रशासन की घोर नाकामयाबी है।

अब चूंकि देश समाधान खोजने के लिए परेशान है, इसलिए यह सोचने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है कि जो लोग एक ही झंडे और धर्म के तहत पूरे समाज को एकजुट करने का दावा करते हैं, क्या वे समाधान का हिस्सा हैं, या वे खुद ही समस्या हैं? मूल्यहीनता और नैतिक बल-विहीनता के दलदल में फंसे समाज को इसके समाधान के लिए बन रही या बनाई जा रही धारणाओं से मुक्ति पाना ज़रूरी है। साथ ही साथ राजनीति ने मानवीय भूमिका में जो नैतिक बल खो दिया है उसको पुन: मज़बूत किया जाए। इस समस्या के समाधान के लिए सारा ठिकरा सोशल नेटवर्किग साइटों पर थोपना, ज़रूरी कदम है, पर पूरी तरह मुफीद नहीं है। धारणाओं और पूर्वाग्रहों में सांस लेकर जीने वाले समाज को भी अपनी नैतिक ज़िम्मेदारी निभाना अधिक ज़रूरी है।

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