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“बलात्कारी को फांसी, समाज की यौन कुंठाओं का समाधान नहीं है”

आज जब निर्भया कांड के आरोपियों की सज़ा सर्वोच्च न्यायालय से खारिज़ हो गई, तब यह शीर्षक गैरवाज़िब लग सकता है। पहले ही स्पष्ट कर दूं, लेख का आशय निर्भया कांड से कतई नहीं है। लेख बलात्कार और बलात्कार जैसी यौन कुंठाओं के कारण की पड़ताल की एक कोशिश भर है।

“थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन” की जारी रिपोर्ट के बाद, महिलाओं की सुरक्षा का दावा साबित करने वाली सरकारों की समझ के ताबूत पर असुरक्षा की कुछ कील तो ज़रूर ठुक गई है। मौजूदा भारतीय समाज में यौन विषयक मामलों में कुंठित निरोध इस तरह का रहा है कि हमारे यहां यौन शोषण के सवालों पर मुखर होना हमेशा से अपमानजनक मान लिया जाता है। इसलिए इन सवालों पर अक्सर चुप्पी छाई रहती है जो ना केवल लड़कियों के लिए लड़कों के लिए भी असुरक्षित है।

हमारे समाज में कुछ इस तरह की वास्तविकताएं हैं, जिसे हम या समाज स्वीकार नहीं करना चाहता, पर यह हमारे समाज में मौजूद है। लड़कियों के साथ-साथ लड़कों का यौन शोषण भी वही सच्चाई है, जिसपर गज़ब की पर्दादारी है।

हाल के कुछ सालों में लड़कियों या महिलाओं के यौन शोषण या दमन और कुंठाओं पर मुखर अभिव्यक्ति कई सोशल मीडिया अभियानों में सतह पर अपनी जगह बना रही है, जो यह सच्चाई सामने ला रही है कि यौन शोषण या दमन हमारे समाज में कई सतहों में मौजूद है। पर सनद रहे, हमारे समाज में यौन-दमन के महा-आख्यान में लड़कों का यौन शोषण भी मौजूद है जो पुरुषत्व और मर्दवाद के समाज में स्थापित मान्यताओं के कारण सिसकियां भी नहीं ले पाती है। यदि कोई शिकायत करता भी है तो वह अपमान झेलने को विवश होता है और कमज़ोर मान लिया जाता है।

अब मुख्य सवाल यह है कि यौन-शोषण या दमन या कुंठाओं के इस एकछत्र मानसिकता पर न्याय का रोड रोलर कैसे चलाया जाए? क्योंकि लड़कियों के यौन-शोषण या दमन की तरह लड़कों के भी यौन शोषण और कुंठाओं के कई आयाम हैं, जो अभी मुखर नहीं है, पर वो मौजूद ज़रूर हैं।

बच्चियों, लड़कियों और महिलाओं के बलात्कार पर बलात्कारी की फांसी की मांग करने वाला समाज, यह समझने को तैयार ही नहीं है कि पितृसत्तामक समाज और बाज़ारवादी सरोकार आपसी ताने-बाने से हर रोज़ नए बलात्कारी को गढ़ रहा है।

भारतीय समाज में यौन-कुंठाओं या दमन की प्रवृत्तियों की पड़ताल की जाए तो दो व्याख्या सतह पर उभर कर आती है। पहली, स्त्रियों पर लैंगिक नियंत्रण का अधिकार और दूसरी, समलैंगिक संबंध में होने वाले यौन शोषण, जिसपर बात ही नहीं होती है।

ज़ाहिर है कि लड़कों का लैंगिक शोषण वैध-अवैध सेक्शुअल संबंधों की ज़मीन तैयार करती है और ठोस निदान की मांग करती है, परंतु, कैसे? लड़कों के साथ लैंगिक शोषण को ना केवल छिपाया जाता है इसे अनैतिक कृत्य माना जाता है, पर कानूनी अपराध की व्याख्या अस्पष्ट है।

भारत सरकार के महिला और बाल विकास मंत्रालय के आंकड़े बताते हैं कि भारत में 52.22 प्रतिशत बच्चों के साथ किसी ना किसी रूप में लैंगिक शोषण हुआ है। 2014 से 2016 के बीच भारत में 18,502 लड़कों से बलात्कार मामले संज्ञान में आए और दर्ज हुए।

सामाजिक यथास्थिति में पुरूषत्व और मर्दवाद की तहे इतनी गहरी तरह से पैठ बनाई हुई है कि लड़कों का लैंगिक शोषण महत्वहीन विषय बनकर रह गया है। जो यह जानने समझने को तैयार तक नहीं है कि नाते-रिश्तेदारों की यौनिक कुंठाओं के आगे लड़कियां ही नहीं लड़के भी क्या-क्या झेल रहे हैं?

यहां तक कि भारतीय कानून नियमावली भी लड़कों के लैंगिंक शोषण के मामलों में संवेदनशील नहीं है। “लज्जा भंग” या लैंगिक रूप से अपमानित करने की व्याख्या महिलाओं के संदर्भ में सोची-समझी और व्याख्या में शामिल की गई है, लड़कों या पुरुषों का इसमें कहीं स्पष्ट संदर्भ नहीं है। यहां तक “बलात्कार” की कानूनी व्याख्या में पुरुष या लड़का गुनहगार के रूप में शामिल है।

भारत में लड़कों के यौन शोषण के पीड़ित लड़कों की हकीकत को नकारे जाने पर फिल्म निर्माता इंसिया दरीवाल की याचिका पर महिला एवं बाल विकास मंत्रालय लैंगिक अपराधों से बच्चों की सुरक्षा अधिनियम, 2012 (पास्को) के तहत बदलाव लाने का प्रयास कर रही है। मौजूदा कानून में, बच्चों के साथ जिन कृत्यों को अपराध माना गया है, इसकी परिभाषा इतनी जटिल है कि सहज रूप से समाज के लिए स्वीकार करना चुनौतिपूर्ण है।

ज़ाहिर है कि यौन शोषण के तमाम मामले चाहे वो लड़कियों से जुड़े हों या लड़कों से, गंभीर चुप्पी के कारण समाज और कानून दोनों के लिए ही चुनौतिपूर्ण बने हुए हैं। सामाजिक संरक्षण के अभाव में अपने साथ हुआ लैंगिक शोषण उनको यौन अपराध की तरफ ढकेल रहा है। कम से कम सोशल मीडिया पर उपद्रवी लड़कों द्वारा बच्चियों और महिलाओं के साथ बलात्कार या शोषण के जो वीडियो वायरल हो रहे हैं, वह यह संकेत तो दे ही रहे हैं कि समाज के भीतर हर स्तर पर जड़ जमाए हुए हैं। लैंगिक शोषण के व्यवहार जो नज़रों से छुपे रहते हैं समाज को बलात्कार की घटनाओं का आरोपी बनने के लिए ढकेल रहा है।

समाज अपने सामाजिक व्यवहार में लैंगिक शोषण को नज़रअंदाज करते हुए चरणबद्ध तरीके से बिना कहे सहमति दे रहा है क्योंकि वह उसके खिलाफ कभी मुखर नहीं होता और उसको नैतिकता के दायरे में समेट कर हीन नहीं बताता। इस तरह कहीं ना कहीं किसी ना किसी रूप में लैंगिक शोषण के लिए प्रशिक्षण भी देता है।

इस समस्या का समाधान बेहतर कानून निमार्ण से कहां तक हो सकेगा? यह तो एक यक्ष प्रश्न है। परंतु, सामाजिक समाजिकरण और सामाजिक ताने-बाने को मज़बूत बनाकर ही इस समस्या से जंग लड़ने की तैयारी समाज को ही करनी होगी? बलात्कारी को फांसी, समाज में मौजूद यौन-कुंठाओं और दमन का समाधान तो कतई नहीं हो सकती है।

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