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डौली बंसीवार की कविता: ‘ये नफरतों का दौर है’

ये नफरतों का दौर है जाना,

नफरतों का दौर!

जिस्म से रूह की बगावतों  का दौर

ये नफरतों का दौर है जाना, नफरतों का दौर!

 

हवाला भगवान का देकर

इंसा से इंसानियत छीन ली,

खोल दी परतें, रूहानियत की,

शिकायतों की, अदावतों की, शराफतों की।

फ़क़त एक लम्स बचा हुआ है,

जिसके चारों तरफ ये गिद्धों की तरह मंडरा रहे हैं,

घूर रहे हैं  मुझे, तुझे और हर सुकूनियत को,

बदल रहा है ये बनके हैवानियत का दौर,

ये नफरतों का दौर है जाना, नफरतों का दौर!

जिस्म से रूह की बगावतों  का दौर!

 

ये नफरतों का दौर है जाना

जिस्म से रूह की बगावतों का दौर!

 

इश्क के नाम पे ये तुझे मुझे छांट रहा है,

ज़ख्म दे रहा है, दर्द बांट रहा है।

तोड़ रहा ही मुझी को मुझ से,

मेरे ख्वाबों को मेरी आंखों से काट रहा है,

ये सर्द लिहाफ के नीचे दबाये है,

ठंडी आग।

जब देखता हूं तेरे रुखसार को,

जो ज़र्द पड़ गया है, इस गर्म आबो-हवा से,

याद आता है मुझे, वो तफसील और मोहब्बत का दौर।

 ये नफरतों का दौर है जाना, नफरतों का दौर!

जिस्म से रूह की बगावतों  का दौर !

 

कत्ल करके मेरा, उस गर्दन को कहां छुपायेगा?

शायद इल्म नहीं है इसे,

जहां मिटाएगा, वहां से हज़ार और पायेगा।

वो लाल  खून; जो चश्म-ए-तर से उम्र भर,

दम-ब-दम बहेगा,

ये वो हौसला है जो ना मिटा है, और ना मिटेगा।

बगावत करेगा, कटेगा, जलेगा, बिफरेगा,

लेकिन हर दौर में नए सिरे से उठेगा,

मैं नहीं तो, कोई और बदलेगा ये घिनौना दौर।

ये नफरतों का दौर है जानां, नफरतों का दौर !

जिस्म से रूह की बगावतों का दौर!!

 

 

 

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