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“अच्छी लड़की” की परिभाषा में आज भी कई लड़कियों के सपने मारे जा रहे हैं

एक पोस्टर अक्सर देखा होगा जहां कुछ चित्रों के साथ बताया होता है कि एक अच्छे लड़के और लड़की में क्या खूबियां होती हैं। एक अच्छी लड़की ने साड़ी या सलवार सूट पहना होता है, वह अक्सर घर पर ही रहती है, अच्छा खाना बनाती है, झगड़ा नहीं करती, बड़ों का सम्मान करती है, धार्मिक है, शादीशुदा है और अपना सारा समय घर और बच्चों के साथ ही बिताती है। यह पोस्टर एक आदर्श लड़की की सीमा रेखा दिखाता जिसे अगर वो पार करती है तो फिर ‘आदर्श’ नहीं रहती।

आज कल देश में गांव की दीवारें एक और तरह के पोस्टर से भरी हुई हैं, ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’। ये सरकार की एक पहल है कि परिवार वाले अपनी बेटियों को महत्व दें, पहले तो उन्हें जीने का हक दें और फिर उन्हें स्कूल और कॉलेज भेज कर उनका भविष्य उज्जवल करें।

मध्य प्रदेश के तीन ज़िलों में जितनी भी लड़कियों से हमने बात की, ऐसा लगा वो अपनी आकांक्षाओं और समाज की उनके लिए बनाई हुई छवि के बीच कुछ उलझी हुई हैं। शिक्षा की, अंग्रेजी में बात करने की और नौकरी करने की आकांक्षा है लेकिन सामाजिक कायदे लड़की के जीवन और सोच को उसकी शादी, बच्चे और घर के काम तक ही सीमित रखना चाहते हैं।

लड़कियां स्कूल, कॉलेज या कोचिंग सेंटर कई कारणों की वजह से जाना चाहती हैं, जिनमें से शिक्षा सिर्फ एक कारण है। इन जगहों पर गांवों की रोकटोक के माहौल से थोड़ी राहत मिलती है क्योंकि गांव में तो आपके हर एक कदम पर नज़र रखी जाती है और उसका नतीजा भी भुगतना पड़ता है।

शिक्षा एक रास्ता बन जाती है गांव के बाहर की दुनिया को जानने का, समझने का और उसमें शामिल होने का। लेकिन इस सफर की कीमत देनी पड़ती है जो सिर्फ पैसों से पूरी नहीं होती, अक्सर आपके चरित्र और चाल-चालन पर बात आ जाती है।

एक लड़की से जब हम बात कर रहे थे तो उसने बताया कि कैसे कॉलेज जाने वाली लड़की दूसरों के लिए जलन का कारण बन जाती है। “कॉलेज जाकर लड़की बिगड़ जाती है”, ये एक बात है जो लड़की, लड़के, परिवार वाले सभी ने हमको बताई। पर कौन है ये बिगड़ी हुई लड़की, क्या मतलब है इसका? इस लेख में हम इन्हीं धारणाओं के बारे में बात करेंगे जिनसे लड़की के कहीं भी आने-जाने पर रोक लग जाती है और बाहर की दुनिया उसके लिए सिर्फ एक आकांक्षा और रहस्य बनकर रह जाती है।

एक परिवार जो निचले वर्ग और जाति से हो और उसमें कम-से-कम दो बच्चे हो, वहां कई बार शिक्षा एक सपना बनकर रह जाती है और अक्सर पहले लड़के को ही यह सपना पूरा करने का मौका मिलता है। “लड़की को इतना पढ़ाने का मतलब ही क्या है, शादी करके चूल्हा-चौका ही करना है” ज़्यादातर परिवार वालों ने यही कहा। लड़कियों ने भी ये बात अपना ली है कि यही उनका जीवन है, इतनी ही उड़ान भरना ठीक है। उनका कहना था, “जो लड़कियां कॉलेज जाती हैं हमेशा अपने परिवार के लिए सर दर्द ही बनती हैं, कुछ तो झमेला करती ही हैं वो।”

तो ये साफ है कि लड़की के कॉलेज जाने से जुड़े हुए हैं कई सारे डर, सवाल और धारणाएं। एक डर तो ये है कि कॉलेज या स्कूल ऐसी जगह है जहां लड़की-लड़के एक दूसरे से बात कर सकते हैं बिना किसी की निगरानी के। गांव के अंदर तो दोनों के बीच बात होने का मौका बहुत ही कम है। जितने भी लड़कों से हमने बात की सबने कहा कि गांव के अंदर तो हम लड़की से बात करने का सोच भी नहीं सकते, एक आम सी बातचीत को भी गलत ही समझा जायेगा और फिर बड़ा बवाल बनेगा।

गांव में निगरानी इतनी सख्त है कि एक लड़के ने बताया, एक पड़ोस की आंटी घर पर आकर उसकी मम्मी से उसके बारे में शिकायत करने लगीं, क्योंकि वो मोहल्ले की एक लड़की को बहुत देर से देख रहा था। ये जो समाज की नज़र है ये लड़की-लड़कियों को अच्छे-बुरे के डब्बे में बंद कर देती है। कौन आवारा है, कौन बिगड़ी हुई है। वो समाज के बनाये ‘अच्छे लड़के और लड़की’ के ढांचे से जितना दूर जाते जायेंगे उतनी ही उन पर नज़र सख्त होती जाएगी।

ऐसा लगता है कि लड़के -लड़कियों के बीच दोस्ती का माहौल गांव के बाहर ही कुछ बन पाता है। कॉलेज और कोचिंग सेंटर गांव के आस-पास छोटे शहर में है। लेकिन यहां भी समाज के कायदे के रखवाले बन जाते हैं प्रिंसिपल और टीचर। “अगर हम कक्षा में या कॉलेज के अंदर किसी लड़की के साथ ज़्यादा बोलते हैं या बैठे हुए दिख गए तो हमारे मम्मी-पापा को बुला लेते हैं कॉलेज में।” फिर भी यहां गांव से ज़्यादा मौका मिलता है, एक दूसरे को समझने का, बात करने का।

ऐसा लगता है कि शिक्षा के केंद्रों पर समाज की बनायी रेखाएं कुछ मिट जाती हैं। अलग-अलग धर्म और जाति के लड़के-लड़की फिर भी एक दूसरे से बात कर पा रहे हैं जो कि गांव में संभव नहीं है, जहां सबके इलाके बटे हुए हैं।

अलग जाति से होने का एक गहरा एहसास बचपन से ही हो जाता है, पानी भरने की अलग जगह, अलग कब्रिस्तान और अलग मंदिर। ये विभाजन इस उम्र में आत्मविश्वास और आकांक्षाओं पर बहुत गहरा असर छोड़ता है। इस एहसास को एक ठोस रूप तब मिलता है जब आप स्कूल में फॉर्म भरते वक्त आरक्षण के डब्बे पर निशान लगाते हैं। इससे अलग होने का एहसास और पुख्ता हो जाता है।

इसके साथ जुड़ जाती हैं कुछ कभी ना मिटने वाली यादें जैसे कि स्कूल में जाति की वजह से क्लास में सबसे पीछे बैठना और टीचर के ताने सुनना। लेकिन कहीं ना कहीं क्लास एक ऐसी जगह भी है जहां इन दायरों के बाहर भी दोस्ती हो रही  है, कुछ अनुभव साथ हो रहे हैं जो घर या गांव में तो बिलकुल मुमकिन नहीं हैं। “मेरी एक दोस्त अलग जाति की है, स्कूल में हम हमेशा साथ रहते हैं, साथ खाना खाते हैं। लेकिन जैसे ही हम गांव के नज़दीक पहुंचते हैं हमें अलग-अलग चलना पड़ता है। शाम को अगर वो कहीं अपने मम्मी-पापा के साथ दिख गयी तो वो डर के मारे मेरी तरफ देखती भी नहीं है।”

शायद इसी तरह से अलग-अलग जाति, धर्म के मिलने-जुलने का डर है समाज को। एक महिला ने बताया कि उसने अपनी बेटी को स्कूल भेजना बंद कर दिया क्योंकि उसे डर था कि उसकी बेटी के साथ रास्ते में छेड़छाड़ हो जायेगी। ऐसा लगता है कि मोहल्ले और गांव की बाहर की दुनिया को एक खतरनाक रूप में पेश करने की कोशिश है।

“हमारे मोहल्ले में हिंसा नहीं होती”, बहुत से लोगों ने हमसे यह कहा। ये एक तरीका हो सकता है डर बैठाने का जहां लड़कियां खुद ही एक जगह से बाहर जाने से घबरायें। जैसे कि चौराहा एक तरह की दहलीज़ बन जाता है मोहल्ले और बाहर की दुनिया के बीच, घर के अंदर और बाहर के दरमियां। अक्सर यहां लड़के इकट्ठे होकर खड़े रहते हैं, बातें करते हुए या मोबाइल पर गाने सुनते हुए।

चौराहा फिर एक प्रतीक बन जाता है बाहर की ‘खतरनाक’ दुनिया का जिसे लड़कियां पार करते हुए घबराती हैं। “कई चौराहे हैं जहां पर जाने से लड़कियां कतराती हैं। मेरे घर के सामने, चौराहे के पास नहीं जाती हूं बहुत लड़के उधर बैठते हैं, गाने बजाते हैं और कॉमेंट मारते हैं। वो घूरते हैं और अवारापंती करते हैं” एक लड़की ने हमें बतााया।

जब लड़कों से हमने इस बारे में बात की तो उन्होंने माना कि हां ऐसा करते हैं, कई बार दोस्तों  के सामने अपनी धाक जमाने के लिए, लड़की देखने के लिए और स्टाइल मारने के लिए। यह तो साफ है कि मर्दानगी और चौराहे का गहरा रिश्ता है।

ऐसा लगता है कि गांव और घर के बाहर की दुनिया के लिये यह डर पैदा करना, समाज का नियंत्रण करने का एक तरीका बन गया है। इसका यह मतलब नहीं है कि इन जगहों पर असल में हिंसा का कोई डर नहीं है, पर हिंसा का डर तो हर जगह लगा रहता है। बल्कि ज़्यादातर हिंसा के केस जो हमने सुने वो घर के अंदर हुए और अपनों ने किये। तो फिर लड़की के बाहर ना जाने से हम उसकी सुरक्षा कैसे सुनिश्चित कर सकते हैं जब वो अपने घर के अंदर ही सुरक्षित नहीं?

एक लड़की ने बताया,

मुझे पढ़ाई में बहुत मन लगता था। पर 12 क्लास के बाद मेरे भाई ने मेरी फीस भरने से मना कर दिया। उसको लगता है कि कॉलेज जाकर लड़कियां बिगड़ जाती हैं, खुद को बहुत बड़ा समझने लगती हैं। मैंने उसे बहुत मनाने की कोशिश की पर वो किसी की नहीं सुनता। तब से घर पर ही बैठी हूं।

लेकिन मुसीबत यहां खत्म नहीं होती। जो लड़कियां कॉलेज जाती हैं उन्हें भी अलग किस्म के ताने सुनने पड़ते हैं।

“मैं कॉलेज खत्म करके अब एक स्कूल में पढ़ाती हूं। लेकिन सब मुझे बातों-बातों में सुनाते रहते हैं कि मैं पढ़ाई की वजह से इतना रौब दिखाती हूं, जैसे मैंने कुछ गलत किया हो पढ़कर।” ऐसा लगता है कि पढ़ाई करने के बावजूद भी लड़कियों को छोटा महसूस कराया जाता है और यह एहसास भी दिलाया जाता है कि पढ़ाई-लिखाई तो एक जगह धरी रह जाएगी लेकिन उन्हें करना तो चूल्हा-चौका ही है।

लड़कियों का आना-जाना और भी तरीकों से रोका जाता है। जब हमने लड़कियों से पूछा कि वो खाली समय में (जो उन्हें घर के काम के बीच मुश्किल से ही मिलता है) या छुट्टी में क्या करती हैं, उन्होंने बताया कि उन्हें बिना किसी साथ के बाहर आने-जाने नहीं दिया जाता। और तब भी वो ज़्यादा-से-ज़्यादा अपने किसी रिश्तेदार के घर या शादी में ही जाती हैं। जो लड़कियां इस पर सवाल उठाती हैं या ज़िद करके कहीं जाती हैं उन्हें घरवालों, रिश्तेदारों और पड़ोसियों के ताने सुनने पड़ते हैं कि इतना घूमने-फिरने की क्या ज़रूरत है, पर निकल आये हैं? और इन सबके बीच लड़कों के कहीं भी आने-जाने पर कोई रोकटोक नहीं बल्कि उनसे कोई सवाल तक नहीं पूछता। हां, उन्हें कभी-कभी ‘आवारा’ बोल दिया जाता है लेकिन यह भी प्यार से, एक नटखट-आवारा लड़के की तरह जैसे की यह तो लड़कों की फितरत ही है। उनके बाहर घूमने पर, या ज़िद या अपने मन की करने पर, उनके चरित्र पर कोई सवाल नहीं उठाता।

आजकल शिक्षा, मीडिया और जानकारी पहले से ज़्यादा आसानी से उपलब्ध है। बावजूद इसके ऐसा लगता है कि ‘अच्छी लड़की’ की जो खूबियां पोस्टर में दिखाई हैं वह और मज़बूत और गहरी होते जा रही हैं। ये रोज़ाना की छोटी-छोटी बातों में दिखता है, “मैंने उस दिन जीन्स टॉप पहना तो भाई ने देखकर कहा, “ये क्या कपड़े हैं, बदल नहीं तो इनको आग लगा दूंगा।”  हिंसा का खतरा लड़की के हर कदम और हरकत पर हमेशा बना रहता है और हर वक्त उसे समाज में अपनी जगह याद दिलाता रहता है।

लड़कियां एक दोराहे पर हैं, एक तरफ गांव के बाहर की दुनिया की चाह तो दूसरी तरफ समाज के उनके लिये बनाये हुए नियम-कायदे की चुपचाप स्वीकृति। इन दोनों के बीच वो खुद को खिंचा हुआ महसूस कर रही हैं जिससे एक असमंजस है, गुस्सा है और डर भी। एक लड़की मुस्कराते हुए बोली “आज कल तो शादी के लिए पढ़ी-लिखी लड़की ही चाहिए लेकिन हां, ज़्यादा पढ़ी-लिखी भी ना हो।” ऐसा लगता है लड़की उड़ान भर सकती है लेकिन उसका आसमान सीमित है, एक “अच्छी” लड़की की परिभाषा तक।

(यह लेख हिस्सा है तीन-लेखों की कड़ी का जहां हमारी कोशिश है कि इस उम्र के लड़के-लड़कियों की दुनिया के सपने, सवाल, चुप्पी, शर्म, डर और चाह का इंद्रधनुष आपके सामने ला सकें। साथ ही यह समझने की कि यौन हिंसा समाज में कैसे पनपती है ताकि हमारी प्रतिक्रिया सिर्फ एक केस या घटना तक सीमित ना हो। ये लेख आधारित है जनसाहस और मरा द्वारा मध्य प्रदेश के तीन ज़िलों में किये गए फील्ड वर्क पर। जनसाहस संस्था जाति आधारित हिंसा और यौन हिंसा के मुद्दों पर काम करती है। मरा एक मीडिया और आर्ट्स कलेक्टिव है जो जेंडर, जाति, वर्ग और मज़दूरी के विषय पर सामुदायिक और लोकल मीडिया के द्वारा काम करती है।)

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