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आज़ादी के 72 वर्ष और लोकतंत्र का अन्तोदय

बड़े देश और बड़े समाज की सबसे बड़ी समस्या ये होती है कि छोटे की सुनने वाला कोई नहीं होता। छोटे इंसान, छोटे गाँव की समस्याएं क्या हैं? वो जाएं कहाँ? वो मिले किससे? शायद हम में से कोई नहीँ जानता। शायद हमने  छोटे लोगों के लिए व्यवस्था बनाई ही नहीं होती।

इस देश मे सबको पता है कि मुसलमानों की, जाटों की, बाघों की ,गायों की, उद्योगपतियों की, यूपी और बिहार की समस्याएं क्या हैं?

पर हममे शायद ही किसी को पता हो कि जैन की, तेलियों की,चींटियों की,बकरों की,फेरी वालों की ,त्रिपुरा और सिक्किम की समस्याएं क्या हैं?

दरअसल बड़ी व्यवस्थाओं का स्ट्रक्चर ही ऐसा होता है जिसमें छोटे लोगों की आवाज़ सुन पाने की व्यवस्था नहीं होती।

आप किसी दफ्तर में अकेले जाइये कोई नहीं सुनेगा, 500 लोगों को लेकर चले जाइए,सब सुनने लगेंगे।

पर एक स्वस्थ तथा सफल लोकतंत्र वही है जिसमें अंतिम व्यक्ति की भी सुनी जाए। वो खुद को हासिये पर और लाचार महसूस न करे। किसी भी समाज या व्यक्ति का संस्कार इसी से पता चलता है कि वो अपने से छोटे व्यक्ति के साथ कैसा व्यवहार करता है। लोकतंत्र को उस दिन सफल कहा जाए, जिस दिन छोटा और गरीब आदमी, थाने, कचहरी, सरकारी दफ्तर आदि में पूरे आत्मविश्वास के साथ घुसने लगे और उसकी भी सुनी जाए।

मैं एक ऐसे गांव से हूँ जो बेहद छोटा और उत्तर प्रदेश के सबसे पिछड़े जिले में स्थित है।(वही से MP की सीमा शुरू हो जाती है)!

कम से कम हम सब अपने जीवन में तो ऐसा कर ही सकते हैं। आप से मिल कर कोई छोटा महसूस न करे,ये जरूर सुनिश्चित कीजियेगा।

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