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कविता: “इन गरीबों के हिस्से कुछ नहीं आयेगा”

दो लोग देखेंगे

चार बातें करेंगे,

हां

आज सिर्फ बात चली है

और मुनासिब है

कि यह कल अखबार के पहले पृष्ठ की हेडलाइन बनेगी

और हो सकता है

कि कल रैलियां निकले

नारेबाज़ी हो

सत्ता के विरोध में,

और उन मार्मिक श्लोकों की गरज शायद इतनी तेज़ हो

कि भनक इन सत्ता के संत और भक्त दोनों के कानों में पड़े,

हो सकता है मुद्दा गरम हो

तो संसद में “गरीबी” नाम के तोते भी उड़ाये जाएं,

और अगर फिर भी बात ना बने

तो शायद पूरा सत्र ही

गरीबी पर भेंट चढ़ जाये

इससे अधिक गरीबों के हिस्से और कुछ नहीं आयेगा।

 

पर ज़रा सोचो

इसका नतीजा क्या होगा?

क्या किसी गरीब के पेट की आग बुझेगी,

या इस आग की चिंगारी से हुक्मरानों की मुंडेर सजेगी।

 

सड़क पर किसी गरीब के घर का चिराग बुझेगा,

या पूंजीपतियों के घर हर रोज़ दिवाली मनेगी।

किसी गरीब के बिलखते बच्चे की आवाज़

सत्ता के गलियारों में गूंजेगी,

या किसी ‘साहब’ के घर शहनाई बजेगी।

 

गरीब बच्चे स्कूल जाने की उम्र में

हाथ में बदनसीबी लिये ठिकाने की गुहार लगाएंगे,

या सत्ता के तानाशाह फिर ‘अतिक्रमण’ हटावाएंगे।

 

शायद यह समझना मुश्किल नहीं कि यहां

गरीबों के दुख-दर्द से राजनीति के पेड़ सींचे जाते हैं ।

और प्रति पांच वर्ष पर

इन गरीबों के ज़ख्मों को कुरेदकर,

एक नया जख्म पैदा किया जाता है

और आने वाले पूरे पांच वर्ष तक

उन पर मरहम लगाने का प्रयास किया जाता है ।

 

लेकिन हां

याद रहे

बस ‘प्रयास’ किया जाता है

उनको भरने नहीं दिया जाता

ताकि पुनः

चुनावी पैंतरों का इस्तेमाल करके

‘जनता और संसद’ के समक्ष

उन ज़ख्मों की नुमाइश की जा सके।

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