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मेरे सह-यात्रियों की झारखंड को लेकर समझ जंगल में रहने वाले शिकारियों तक सीमित थी

बात दिसंबर 2015 की है। मैं अपने परिवार सहित दिल्ली से झारखंड रेल से सफर कर रहा था। हमारी रेल अपने समय से छह से सात घंटे देर से चल रही थी। जम्मू तवी एक्सप्रेस जो राउरकेला तक जाती है, दिल्ली से होकर उत्तर प्रदेश और फिर हटिया झारखंड पहुंचती है।

बड़े मज़े से सफर का आनंद उठाते हुए हम लोग जा रहे थे, हमारे कोच में कई तरह के लोग थे। मज़े की बात यह होती है कि जब आप इस प्रकार का सफर रेल द्वारा करते हैं तो मुसाफिरों द्वारा कई विषयों पर बातचीत होती है और आपको बहुत कुछ सुनने और समझने का मौका मिलता है।

शाम को हमारी ट्रेन हाथरस पहुंची। वहां से कई और लोग हमारे कोच में चढ़े। उन लोगों की बातचीत से मालूम पड़ता था कि वो लोग ठेठ खड़ी बोली बोलने वाले एक छोटा सा कोई धार्मिक गायन मंडली थे। सुबह-सुबह हमारी ट्रेन “गढ़वा” स्टेशन पर रुकी।

अब हम लोग यूपी की सीमा को पार कर चुके थे। हम लोग झारखंड में प्रवेश कर चुके थे। हमारी ही सीट के पास वो गायन मंडली भी बैठी थी। यूपी और बिहार के लोगों की एक खासियत यह है कि उनकी बातचीत में आवाज़ थोड़ी ऊंची होती है। उनके भी अपने विषय चल रहे थे। डालटनगंज के बाद यह इलाका पहाड़ वन एवं ग्रामीण क्षेत्रों होकर गुज़रता है। बड़ा मनोरम दृश्य लग रहा था। अपने देश की मिट्टी की खुशबू किसे अच्छी नहीं लगती।

उन्हीं गायन मंडली में से एक व्यक्ति जो उन लोगों का मुखिया लग रहा था कहने लगा,

देखो जंगली आदिवासी लोगों का इलाका शुरू हो गया है। झारखंड में जंगली लोग रहते हैं। शिकार करना इनका मुख्य काम है। ये जंगली जाति के लोग कुछ भी शिकार करके खा जाते हैं। यहां के जंगली लोग तीर धनुष चलाने में बहुत माहिर होते हैं। अपने तीर की नोक में ज़हरीले सांपों का ज़हर भी लगाते हैं। यहां खतरनाक ‘नक्सली’ लोग भी रहते हैं। यहां की जंगली महिलाएं अर्धनग्न रहती हैं।

मैं उन लोगों की सारी बातें बड़े ध्यान से सुन रहा था। मुझे उन लोगों की बातें सुनकर और रहा नहीं गया। मैं अपनी सीट से उठकर उनके पास गया और बड़े प्यार से मैंने कहा, “श्रीमानजी, क्या मैं यहां बैठ सकता हूं?” उन्होंने कहा, “क्यों नहीं, आप यहां बैठ सकते हैं”।

मैं उनको धन्यवाद देते हुए बैठ गया। बैठने के बाद मैंने पूछा, “आप लोग झारखंड और यहां के इतिहास के बारे में जानते हैं?”

उनके लीडर ने कहा, “जी नहीं, हम लोग मथुरा में रहते हैं, हाथरस में हमारा भजन गायन का कार्यक्रम था अब हम लोग झारखंड जा रहे हैं। ‘मुरी’ के एक गांव में हमारा कार्यक्रम है वहीं जा रहे हैं”।

मैंने कहा, “यह तो अच्छी बात है लेकिन, आप लोगों की जो धारणाएं हमारे इस प्रदेश के लिए हैं वह गलत और सुनी सुनाई प्रतीत होती हैं”।

उन्होंने कहा, “आपके कहने का क्या तात्पर्य है”।

मैंने कहा, “आप लोग थोड़ी देर पहले कह रहे थे कि यहां जंगली जाति के लोग रहते हैं। मैं यहां पर थोड़ा सुधार कर देता हूं। वे जंगली लोग नहीं बल्कि ‘आदिवासी’ समुदाय के लोग हैं, जिन्हें भारत के संविधान मे ‘जनजाति’ कहा गया है। 1950 में जब यहां के ट्राइबल क्षेत्र की बात चली तो भारत के संविधान की अनुसूची में इन्हें ‘अनूसूचित जनजाति’ कहा गया। अभी आप लोग अनुसूची 05 के इलाके में हैं”।

मैंने आगे कहां, “हां, वे लोग शिकारी होते हैं लेकिन जंगली कहना अपमानजनक होगा। झारखंड में 30 से भी ज़्यादा जनजाति समुदाय हज़ारों वर्षों से निवास करती हैं। झारखंड आदिवासी बहुल राज्य है। इसलिए यहां की संस्कृति में आदिम जीवन का रंग-गंध यहां के सभी पर्व-त्यौहारों में बिखरा पड़ा है।

हालांकि, अंग्रेजी शासन के बाद से ही यहां बाहरी समुदायों की बढ़ती हुई भारी आबादी के कारण हिन्दू, मुस्लिम एवं अन्य धर्मावलंबियों की सांस्कृतिक छटा भी देखने को मिलते हैं। फिर भी आदिवासी पर्व-त्यौहारों की बात ही कुछ और है। आदिवासियों का सबसे बड़ा त्यौहार सरहुल और सोहराई है जो मुख्यतः बसंतोत्सव है जो मार्च-अप्रैल महीने में मनाया जाता है। इन लोगों की अपनी प्राकृतिक भाषा है, अपनी संस्कृति है फिर आप  इन्हें ‘जंगली’ कैसे बोल सकते हैं”।

वे लोग मुझे बड़े ध्यान से मुझे सुन रहे थे, मैंने बोलना जारी रखा, “श्रीमान जी, आज इन ‘ट्राइबल’ समुदाय के लिए बाहरी लोगों में बड़ी गलत धारणाएं हैं। कोई इन्हें आपके जैसा जंगली, कोई ‘गिरिजन’ तो कोई ‘वनवासी’ कहते हैं। बिहार का दक्षिणी क्षेत्र आज झारखंड कहलाता है लेकिन, अगर ऐतिहासिक दृष्टि से देखें तो यह प्रदेश अपनी शौर्यता और शहादतों की मिसाल पेश करता है, मगर यह अलग बात है कि उन वीरों की गाथाओं को भारत के लोगों तक पहुंचने ही नहीं दिया”।

उनमें से एक ने कहा, “क्या बात कर रहें यह इतना महत्वपूर्ण है”।

मैंने कहा, “जी हां, यह हमारे देश के लिये और हमारे राज्य के लिये सम्मान जनक  बात होती, पर ऐसा नहीं हो पाया। भारत की आज़ादी में सर्वप्रथम 1857 का सैनिक विद्रोह के रूप में ‘मंगल पाण्डे’ का नाम आता है लेकिन, मैं आपको बता दूं कि हमारे यहां 1770 से 1855 के बीच कई ‘जनजाति’ विद्रोह हो चुके थे जिनमें मुंडा विद्रोह, हो विद्रोह, उरांव विद्रोह और संताल विद्रोह प्रमुख था। सबसे व्यापक रूप से संताल विद्रोह था जिसे ‘हूल क्रांति’ भी कहते हैं”।

हमारी बातचीत चल ही रही थी, बीच में पैन्ट्री वाला चिल्लाया, “चाय बोलो, चाय”।

मैंने पूछा, “क्या आप लोग चाय लेंगे?”

उस वक्त वाकई में एक गरमा गरम चाय पीने का जी कर रहा था। सभी ने हां में अपना सिर हिला दिया।

चाय पीने के उपरांत उनमें से एक ने  कहा, “सर, और भी कुछ बताइये”।

मैंने बताना शुरू किया, “आज़ादी के पूर्व जब उपनिवेशवाद इन प्रदेशों में अपना जड़ ‘इस्ट इंडिया’ कम्पनी के मार्फत पूरे क्षेत्र को अपने चंगुल में ले रहा था, तब यहां के साहूकारों एवं ज़मींदारों की ज़्यादतियां बढ़ने लगी थीं। गरीब तबके के किसान और यहां के आदिवासी समुदायों में लगान और बेलगाम सूद के कारण असंतुष्टि की स्थिति पैदा हो गई। पुलिस और प्रशासन के लोगों का ज़ुर्म यहां के स्थानीय आदिवासियों पर बढ़ने लगा। न्याय व्यवस्था भी स्थानीय लोगों का साथ नहीं देती थी। इन सभी ज़ुल्मों से तंग आकर इन क्षेत्रों में जगह-जगह विद्रोह होना शुरू हो गया। अब सीधे युद्ध की स्थिति उत्पन्न हो गई। इन विद्रोहियों को रोकने के लिये कई अंग्रेज़ी फौजों को भेजना पड़ा। एक विशेष बात यह हुई कि इन जनविद्रोह में पुरुष, महिलाएं और बच्चे भी शामिल थे”।

मैंने कहा, “आपमें से अभी थोड़ी देर पहले कोई कह रहा था कि अगर यहां के किसी गांव में कोई घटना होती है तो प्रशासन वाले को नहीं भेजा जाता है बल्कि आर्मी वाले को बुलाया जाता है। श्रीमान जी, यह पूर्ण सत्य नहीं है। मैं आप लोगों को बता दूं हमारे इस क्षेत्र के लोग सीधे-साधे और सरल प्रवृति के होते हैं। इन जनजाति क्षेत्रों की अपनी शासन व्यवस्था है जिसे “मांझी परगना” व्यवस्था कहते हैं और इनके क्षेत्र में कोई दखलंदाज़ी करें इन्हें पसन्द नहीं है।

चलिये थोड़ा आगे बढ़ते हैं। मैंने उन्हें टटोलते हुए कहा।

सभी ने कहा, “जी सर, हमें यहां के इतिहास के बारे में जानने की उत्सुकता और बढ़ गई है, बताइये ना”।

मैंने फिर शुरुआत की, “झारखंड पहले बिहार राज्य में था। इसका दक्षिणी हिस्सा उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश उड़िसा और बंगाल से सटा हुआ है। झारखंड को 15 नवम्बर 2000 को बिहार से पृथक किया और भारत के 28वें प्रांत के रूप में प्रतिष्ठापित हुआ।

इन क्षेत्र को उत्तरी -दक्षिणी छोटानागपुर और संतालपरगना के नाम से जाना जाता है। झारखंड में  कई जाति के लोग वर्षों से निवास करते आ रहे हैं। इस प्रदेश में प्राकृतिक संसाधनों की प्रचुरता एवं विभिन्न प्रकार के खनिज की बहुतायत ने इस प्रदेश में कई अंतरराष्ट्रीय एवं राष्ट्रीय कंपनियों का विस्तार होने से अन्य प्रदेश के लोग आकर बस गए।”

उनमें से एक ने मुझसे कहा, “सर एक बात मैं आप से पूछना चाहता हूं, आपको यहां के बारे में इतना कैसे पता है”?

मैं हंसने लगा औैर कहा, “मैं इसी झारखंड प्रदेश का रहने वाला हूं और मैं संतालपरगना के दुमका क्षेत्र से हूं और मैं जंगली जाति का नहीं, यहां की संताल जनजाति से सम्बन्ध रखता हूं”।

यह सुनकर उनके लीडर ने कहा, “सर हम लोग बहुत ही शर्मिन्दा महसूस कर रहे हैं। आज आपने अपने प्रदेश की गरिमा का जो बखान किया है उसे सुनकर वाकई में हमें एहसास हुआ कि कितनी गलत धारणाए हैं लोगों के अंदर यहां के मूलवासियों के लिये।

अब से हमलोग कहीं भी जायेंगे अगर कोई कहे कि झारखंड में जंगली लोग रहते हैं, तो सुधार ज़रूर करूंगा और बताऊंगा कि यहां जंगली या वनवासी नहीं बहादुर आदिवासी जनजाति लोग रहते हैं”।

मुझे उन लोगों के ऐसा कहने पर बहुत अच्छा लगा। ट्रेन अब ‘मुरी’ स्टेशन पहुंचने वाली थी सभी लोग अपने-अपने सामान को व्यवस्थित करने में लग गये।

उनके लीडर ने बड़े सम्मान से हाथ मिलाया और अपना कार्ड देते हुए कहा, “कभी मथुरा आये तो मिलियेगा ज़रूर” और सभी मुरी स्टेशन पर उतर गये।

मैं अपनी सीट पर आकर बैठ गया और खिड़की से बाहर सुंदर प्राकृतिक दृश्यों को अपने अन्तः चेतना में उतारने की कोशिश करने लगा, अब मुझे एक असीम शांति का अहसास हो रहा था।

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