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प्रेरित कुमार की कविता: ‘मैं अमर विचार हूं’

जब मुल्क में हर ओर आंधी आएगी तब मैं पहाड़ के चट्टान की भांति डिगा रहूंगा।

जब फासीवाद की धूल हर ओर उड़ेगी तो मैं मानवता का चश्मा लगाए सामने से धूल को निगलता रहूंगा।

जब लोकतंत्र की हत्या विचारधारा की तेज़ आग से की जाएगी तो मैं भले ही कुहासे की एक बूंद बनके टपकुंगा लेकिन,

उस आग की लपटें ज़रूर कम करने की कोशिश करूंगा।

 

मैं कोशिश करूंगा, फासीवादी ताकतों को रोकने की

मैं कोशिश करूंगा लोकतांत्रिक हत्याओं को टोकने की

मैं कोशिश करूंगा मुल्क की तालीम को बचाने की

मैं कोशिश करूंगा खुद को चुनौती देने की

 

तुम अंधेरे के साय में पीपल के घने वृक्ष बने होगे तो मैं जुगनू सी चमकती रोशनी से उजाला करूंगा,

तुम पहाड़ की चोटी से कंकड़ फेंकोगे तो मैं उसे संजोता रहूंगा,

तुम बारिश की धारा में सबको बहाते चलोगे तो उस वक्त मैं किनारे की घास में तिनके की तरह धारा के खिलाफ उलझा रहूंगा,

लेकिन धारा में बहने के खिलाफ अपनी सारी ऊर्जा लगा दूंगा।

 

तुम जानते हो मैं ऐसा क्यों करूंगा,

क्योंकि मैंने भगत सिंह के फंदे को चूमा है

मैंने बिस्मिल्लाह की पीठ पर पड़ी लाठियों को माथे से लगाया है

मैंने राजगुरु के पांव की मिट्टियों को अपनी छाती पर मला है

मैंने आज़ाद की मूंछों में अपनी आत्मा को बसाया है

मैंने गांधी की धोती में भारत की पीड़ा को देखा है।

मैंने अपने धधकते लहू में नेता सुभाष को पाया है।

 

बताओ क्या तुम मुझे मार पाओगे

मेरे हौसलों को दबा पाओगे

मेरे विचारों को नष्ट कर पाओगे

मेरे जज़्बातों को कुचल पाओगे

मेरे लहू को शांत कर पाओगे

 

मुझे मारने से पहले तुम्हें मेरे इस प्रेरकों को मारना होगा।

मेरे जिगर में लहू के दहकते दरिया को शांत करना होगा।

तुम इन सबको मारने के बाद भी मुझे नहीं मार पाओगे

क्योंकि मैं तो एक विचार हूं, जिसने हर दौर में तानाशाही को चुनौती दी है

विरोध का विचार हूं, अवरोध का विचार हूं

क्रांति का विचार हूं, बदलाव का विचार हूं

मैं तो विचारों का बयार हूं।

 

मैं जलियांवाला के बहते लहू के लेपों पर सोया हूं

मैं बंटवारे की स्याह रात में किस्मत पर रोया हूं

मैं खालिस्तानी हमलों में अपने हिम्मत को धोया हूं

मैं 84 के दंगों में सिखों संग खोया हूं

मैं हाशिमपुरा और मलियाना में रोया हूं

मैं गुजरात के नरोदा पाटिया में भी सोया हूं।

 

मैं तो विचार हूं जो हर दौर की विभीषिका को झेल कर जीवित हूं।

तुम इंसानों को मार दोगे, समाज को खत्म कर दोगे लेकिन तुम मुझे कैसे मारोगे।

मैं तो विचार हूं जो तुम्हारे हर किये धरे के बीच में जगता और पनपता रहूंगा।

बताओ कैसे खत्म करोगे मुझे, तुम सिकन्दर हो सकते हो लेकिन बदलाव का विचार नहीं।

क्योंकि तुम क्षणिक हो और मैं अमर हूं,

तुम अत्यचार हो और मैं जीवित विचार हूं।

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