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पुलिस की मौजूदगी में संविधान की प्रति जलाए जाने पर भी सरकार चुप क्यों है?

संविधान का जलाया जाना दंडनीय अपराध है और अपराध को रोकना पुलिस का काम है। दिल्ली में 9 अगस्त को जंतर मंतर में जिस तरह से एक समूह ने संविधान की प्रति जलाई और संविधान निर्माता को गालियां दी, वो भी पुलिस की मौजूदगी में, ये सब कई बड़े सवाल खड़ा करता है।

दी प्रिवेंशन ऑफ इंसल्ट टू नेशनल ऑनर एक्ट (संशोधन) 2005 के अधीन में इस तरह के कृत्य आते हैं, जिसपर संगीन धाराओं में मुकदमा भी चलाये जा सकते हैं। 1971 में बने इस कानून में अगर कोई व्यक्ति देश के संविधान, देश के ध्वज, राष्ट्रगीत आदि का अपमान या किसी भी तरह उसे देश और विदेश में अपमानित करता है तो उसे दंडित किये जाने का प्रावधान है।

फिलहाल देश की राजधानी में पुलिस की आंखों के सामने जिस तरह से इस कृत्य को एक समूह ने अंजाम दिया वह देश की प्रतिष्ठा पर चोट करता है। अमूमन देखा जाता रहा है कि किसी भी प्रदर्शन जैसे नाटक, फिल्म, गीत आदि में देश और देश की अवमानना के खिलाफ किसी भी तरह के कृत्य को सेंसरशिप के ज़रिये हटाया जाता रहा है। आनंद पटवर्धन की फिल्म वॉर एन्ड पीस का उदाहरण यहां सबसे सटीक तौर पर लिया जा सकता है।

दूसरी तरफ अगर देखें तो राज्य सरकारें भी फिल्मों में दिखाए गए राज्य के खिलाफ किसी संदेश को प्रतिबंधित करती रही हैं। खुद सेंसरशिप अधिनियम में इसका ज़िक्र है।

लेकिन जब ऐसे ही घटनाक्रम समाज में घटित हो रहे होते हैं तब सरकारों का ढुलमुल रवैया उनपर प्रश्न चिन्ह खड़ा कर देता है।

सोशल मीडिया में अमूमन देखा जाता रहा है कि किसी भी धार्मिक ग्रंथ या किसी भी धार्मिक स्थल को लेकर दूसरे धर्मों द्वारा की गई टिप्पणी या कोई भी ऐसा कृत्य जो अशोभनीय हो उसको लेकर समाज में हफ्तों चर्चाएं होती हैं लेकिन एक लोकतांत्रिक देश में जिस तरह संविधान की प्रति जला दी गई उसपर सरकारों का किसी भी तरह का कोई पक्ष सामने ना आना क्या कहा जा सकता है?

देश की संसद में बैठे उन सभी सांसदों को भी क्या उनके ग्रंथ (संविधान) जिसकी शपथ लेकर आज वे मंत्री, सांसद बने हैं के जलाए जाने पर कोई धक्का नहीं लगा। क्या उन्हें किसी भी प्रकार से यह नहीं लगा कि उनकी आस्था पर एक चोट की गई है।

देशभक्ति की चाशनी में लिपटे रहने का ख्वाब देखने वाले चुनावी नेता, कार्यकर्ता भी इस मुद्दे पर एकदम चुप हैं। उनके देश के संविधान के साथ हुई इस घटना पर कोई रोष प्रकट नहीं करना है।

यह घटना वही घटी है, जहां भारत माता के खिलाफ लगाए नारों की डॉक्टर्ड वीडियो के सहारे जेएनयू के छात्रों पर देशद्रोह का मुकदमा चल रहा है। देश के खिलाफ होने के चलते भीम आर्मी प्रमुख अभी भी जेल में रासुका के साथ बन्द है।

लेकिन दिल्ली में देश का संविधान जलाए जाने वाले लोगों पर एफआईआर तक के लिए सोशल मीडिया पर आन्दोलन और सरकार से गुहार लगानी पड़ी। देशविरोधी इस घटनाक्रम से देश की वैश्विक छवि को गहरा घाव मिल सकता है। अभी भी भारत में लोकतांत्रिक मूल्यों को लेकर सजगता दिखती है। ऐसे में अगर ऐसे कृत्यों को समय रहते ना रोका गया तो भविष्य में समाज बंटने के आसार बढ़ जाएंगे।

संविधान में आरक्षण को लेकर सबसे ज़्यादा विरोधाभास समाज में है लेकिन आरक्षण को लेकर जब तक स्वस्थ बहसें सरकार और समाज में नहीं की जाएंगी दो धड़ आपस में बंटे रहेंगे। विभिन्न सामाजिक अध्ययन भी यह बताते हैं कि संविधान गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम नहीं बल्कि सामाजिक रूप से पिछड़े लोगों को मुख्य धारा में लाने का एक प्रयास है।यही इस संविधान की मुख्य पहचान में से एक है।

वहीं दूसरी तरफ दलित पिछड़ों को जिस तरह की यातनायें दी जाती रही हैं उसको ध्यान में रखकर विशेष एक्ट भी बनाये गए थे जिससे समाज का उच्च वर्ग शोषण करने से डरे। देश का संविधान उन्हें एक हिदायत देता रहा है। मौजूदा समय में अगर उसमें किसी भी तरह के ज़रूरी परिवर्तन की ज़रूरत है तो सामाजिक शोधों के ज़रिये उसे जानना समझना चाहिए।

ये नहीं कि नफरत का बीज बोकर संविधान को ही आग लगा दें। देश पर वैश्विक नज़र तेज़ी से बढ़ रही है, सरकारों को चाहिए कि निजी मसलों पर वोट की राजनीति को दरकिनार करते हुए हल निकाले ना कि अव्यवस्थाओं को जन्म दे।

संविधान की प्रस्तावना में यकीन किया जाना चाहिए उसे सही अर्थों में लागू किये जाने की भी ज़रूरत है, जिससे 1952 से लागू संविधान के स्वर्णिम निष्कर्ष भी सामने आये।

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