लड़कियों के जन्म से खाली होती हैं उनके हाथों की लकीरें
बताना नामुमकिन है
दुनिया की तमाम ज़िन्दगी में से कौन-सी ज़िन्दगी जियेंगी,
ज़िन्दगी एक पत्नी की, एक बेटी की, एक बहन की, नानी की, दादी की
या फिर एक ऐसी ज़िन्दगी भी
जिसमें ये रिश्ते होते भी नहीं हैं,
होती है तो बस एक कीमत
कीमत एक जिस्म की, एक रात की।
मजबूरी और गरीबी उनके हाथों की वो बेड़ियां बन जाती हैं
जो इस दुनिया में कदम रखते ही विरले को पहनने को मिलती हैं।
यह कहकर कि
तुम्हारे हाथों की लकीरें हैं ये और लकीरें अपनी जगह नहीं छोड़तीं
जीती हैं एक बेरहम ज़ीस्त
जहां छह बाय चार फुट के कमरे में कोई खिड़की नहीं होती
और पैर थिरकते-थिरकते मुजरों के उन गानों से गुज़रते हुए उसमें जा गिरते हैं
फिर छह बाय चार फुट के कमरे में लगा छोटा लट्टू अचानक बुझकर
सुबह पट्टी से टूटे बिखरे घुंघरूओं के पास टेढ़े पड़े पावों पर आ गिरता है
खुद फूट जाता है
उसके पावों को भी फोड़ देता है
खून निकलता है बहुत निकलता है पावों में से, मगर दर्द की आह निकलना खत्म हो जाती है
इसी झुंझलाहट में उठते हुए फिर मुड़ जाती है अंधेरे कमरे की तरफ
शायद इसलिए कि रो देती होगी गुज़री और आती हुई रातों के लिए
चलती रहती है किसी ज़िंदा लाश की मानिंद हर पहर
शाम-सुबह-दोपहर।
ये कैसी लड़कियां हैं?
जो दुनिया को बारह बाय दो फुट की गैलरी की छोटी बालकनी में से देखती हैं अपना मुंह छिपाए
और इन लड़कियों को एक नज़र देखना भी लोगों के लिए
शराफत से चुनौती है
शायद ही इनके नाम, पहचान से हम कभी जानें इन्हें
इनकी चाल, ढाल, फसादात
इन लड़कियों में दिखाई गयी नज़ाकत
मेरे सवाल को और भी खामोश कर देती हैं,
क्योंकि इन लड़कियों की आंखों पर फैला सूरमा
लबों पर बेतरतीब बिखरी हुई लाली
बदन के ज़ख्म, हर तकलीफ बयां करते हैं।
रूह सिहर जाती है, शरीर कांप जाता है उस ‘रोड’ का भी
जो यह मंज़र हर रोज़ देखता है
जी.बी रोड, दिल्ली का जी.बी रोड
ऐसी ही लाखों कहानियां हमेशा देखता है
और ऐसे ही हज़ारों रोड, लाख शहर में
करोड़ों बार देखते हैं ये कहानियां
देखते हैं कि कैसे
छह बाय चार फुट के कमरे में रात को बुझते
सुबह को टूटते लट्टू के साथ ये लड़कियां कितनी ही सफर रोज़ तय करती हैं
ये रोड और ये बेहिसाब ज़िन्दगी की दर्द भरी बेहिसाब कहानियां
काफी हैं हम पूरी कौम को शर्मिंदा करने के लिए
कि भर रहे हैं पेट हमारे और एक हिस्सा इसी कौम का सूखी रोटियों संग गालियों से परोसा जाता है
काफी हैं ये हालात विकास की सीमा को दो हाथ तीन सदी पीछा करने को
अब तो बस यह सूरत बदलनी चाहिए
दो गज ज़मीन पर दस हाथ के पंख अब इन लड़कियों को भी मिलने चाहिए
सुनो, हां तुम, तुम ही सुनो
दीवार पर से यह तस्वीर गिरा दो
ताकि इसके अन्दर का फोटो फट जाये और यह कांच चूर-चूर हो जाये
और मुतमईन लोग फिर लगा सकें नए चमकीलें फ्रेम में एक नयी तस्वीर।