अलग कर देते हो अपनी प्रजाति से
उसे दरिंदा बताकर,
गर्व महसूस करते हो खुद पर
ये फर्क जताकर।
क्या उसी रात जली थी
उसके दिल में हवस की आग,
या वर्षों से इस आग में घी डाल रही थी
पितृसत्तात्मक समाज की निर्विरोध नज़रें?
क्या सूरज की तानाशाही ने पिघला दिया था
उसकी इंसानियत को
उसकी मर्ज़ी के विपरित,
या बह गई थी फेमिनिज़्म की दिखावटी परत
पसीने की बूंदों के साथ?
उस एक रात से पैदा हुए फर्क ने
औरतों के स्तन पर गड़ी नज़रों को,
दोस्तों के साथ बातों में उनके वस्तुकरण को,
पितृसत्ता को बढ़ावा देने
या उसका विरोध ना करने को
दूर रखा है
दरिंदगी की श्रेणी से।
एक रात का दरिंदा
बाकी रातों में इंसान बनकर घूमता है।
जैसे तुम,
जैसे मैं।