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आरा में सिर्फ एक औरत नहीं पूरा समाज नंगा हो गया है

A woman was beaten up, paraded naked on the streets of bhojpur district

“आरा ज़िला घर बा, त कौन बात के डर बा।” ये कहावत बिहार में ही नहीं देश में भी काफी प्रचलित है। बिहार का आरा ज़िला जो कभी वीर कुंवर सिंह के जन्म की पावन धरती के नाम से विख्यात था अब किसी औरत को नंगा कर भरे रास्ते में घुमाये जाने के लिए जाना जायेगा।

यह उस समाज की कहानी है जो अवनति की सीढ़ियां उतर रहा है और अब इस घटना के बाद वह अंतिम सीढ़ी पर उतर चुका है। बिहार अभी मुज़रफ्फरपुर बालिका गृह कांड से उबरा भी नहीं था कि अब आरा में ये घटना हो गई। असल सवाल है कि ऐसा क्यों हो रहा है? ये कैसी भीड़ है जो कुछ भी करने के लिए आमादा है?

बिहार का आरा ज़िला, वही बिहार जहां जंगल राज खत्म हो गया है, जहां की सरकार सुशासन-सुशासन जपते थकती नहीं है। सुशासन की स्थापना आज से लगभग पंद्रह साल पहले ही हो गई थी। ये वही सुशासित बिहार है जहां औरते नंगी कर बीच सड़क पर घुमाई जा रही हैं। जहां मुज्ज़फरपुर में बच्चियां किसी सामंतवादी की वहशीपने का शिकार होती हैं। बिहार में जब भी कुछ हो रहा है वो सिर्फ घटना मात्र में सिमट नहीं सकता बल्कि हमारे सोचने समझने, हमारे समाज होने पर ही सवाल खड़ा कर देता है।

ये बिहार है जिसे अब किसी भी चीज़ के होने से कोई फर्क नहीं पड़ता, क्योंकि जिस समाज ने हर गलत कार्य, कुकृत्य को करने के लिए तर्क गढ़ लिए हों, वहां यही होता है। जहां किसी अच्छे अधिकारी को इसलिए ट्रांसफर कर दिया जाता है कि वह घुस नहीं लेता, जहां ईमानदारी वैल्यू नहीं पॉलिसी मात्र है। बिहार में सब कुछ सही माना जाता है।

ये बिहार है दोस्त, यहां सब बिकता है, नौकरियां बिकती हैं, वोट बिकते हैं, लड़के बिकते हैं। जब भी कोई नौकरी का रिज़ल्ट आता है तो लोग अपनी ज़मीन बेचने लगते हैं, पीएफ तोड़वाने लगते हैं ताकि लड़कों के बाज़ार में दूल्हा खरीद लिया जाए। जब सब बिक गया तो ज़मीर क्यों बचा रहता सो वो भी बिक गया।

बिहार एक प्रैक्टिकल समाज है, उसमें कोई आदर्श नहीं क्योंकि वहां हर चीज़ सही मानी जाती है। बिहार में कोई भी ये कहता मिल जायेगा की मारा! अच्छा किया और मारना चाहिए था। जब ये बात सभी कहने लगे तो आप मान लीजिये कि आप खत्म हो चुके हैं और उबरने की संभावना भी खत्म हो चुकी है।

बिहार अपनी गलती मानने के लिए कभी तैयार नहीं बल्कि बिहार इतिहास के पन्ने में अपना मुंह छुपा लेता है। वही इतिहास जो हज़ारों साल पहले खत्म हो चुका है। वही इतिहास जिसकी ज़रा सी झलक आज के समाज में गलती से भी नहीं दिखती। आखिर ऐसा क्यों होता है। शायद इसलिए भी यह समाज सामंतवाद, ज़मींदारी की गोद में पला-बढ़ा है।

बिहार में लोग नागरिक नहीं बनते, इंसान नहीं बनते, वहां डॉक्टर-इंजीनियर बनते हैं। आईएस-आईपीएस बनते हैं, एसडीएम-डीएसपी बनते हैं, क्योंकि इंसान किसी एक परीक्षा को पास करने से तो बना नहीं जा सकता, वो तो प्रक्रिया है रोज़ बनने की। तो बिहारी इतना लोड नहीं लेते बस एक एग्ज़ाम पास करो और राजा बन जाओ बाकी इंसान बनने, नागरिक बनने की रोज़ की परीक्षा का झंझट क्यों रखना।

जो कोई वहां इंसान है वो इन पाखंडियों के द्वारा कुचल दिए गए हैं। ये जो औरत सॉरी ‘नंगी औरत’ देख रहे हैं ना, यही ‘भारत माता’ है। नंगी, बदहवास, लाचार, बेबस, भागी जा रही है और पीछे से इसी भारत मां के कपूत दौड़े जा रहे हैं।

किसी ने ऐसा क्यों सोचा था कि ये मुसलमानों तक रुक जाएगी, दलितों तक रुक जाएगी, पिछड़ों, अति पिछड़ों तक खत्म हो जाएगी? ये वो भीड़ है जो हर घर से औरते-बच्चे बूढ़े सबको निकालेगी और उसे इतना ही लाचार बना देगी जितनी लाचार ये औरत है।

किसी पुलिस थाने में जाकर रिपोर्ट लिखवाना बेइमानी है। क्या करेगी पुलिस, क्या करेगा प्रशासन? वो कह देगी कि भीड़ थी किसको-किसको अरेस्ट करेंगे। किसी एकाध को पकड़ भी लिया तो क्या? ये व्यक्ति का मामला नहीं है, ये भीड़ का मामला है। ये उस राजनीति का मामला है जिसने नागरिक को ही भीड़ बना दिया है। इसी भीड़ में से कोई आईएस-आईपीएस बनेगा, कोई एसडीएम कोई डीएसपी बनेगा और फिर जनता सालों साल के लिए रोज़ नंगे किये जाएगी, भरी सभा में, भरे बाज़ार में। क्योंकि आजतक पिछले वाले रपट पर कोई कार्यवाही नहीं हुई है तो किस बात के लिए फिर एक नई रिपोर्ट लिखवाये।

क्या बिहार ने अभी तक नहीं माना कि वहां की जनता शासन-प्रशासन के हाथ कठपुतली मात्र है। क्या जनता को पता नहीं चला क्यों हर बिहारी मां-बाप अपने बच्चे को आईएएस, पीसीएस बनाना चाहते हैं ताकि उनकी मां-बहने सुरक्षित रह सकें। अगर किसी बिहारी के घर में आईएस-आईपीएस नहीं है तो वो तैयार रहें और भीड़ के आने का इंतज़ार करें।

जब भी प्रशासन का काफिला निकलता है तो वहां जनता डर जाती है, वो इसलिए क्योंकि लोग वहां कानून से नहीं बल्कि उस व्यवस्था से डरते हैं जिसकी नींव सामंतवाद पर टिकी हुई है।

क्या कभी ऐसा हुआ कि किसी गरीब जनता को देखकर डीएम साहब अभिवादन स्वरूप खड़े हो गए और कहे कि आइये बैठिए? क्या कभी ऐसा हुआ कि अधिकारी ने पूछा हो कि आप जो काम लेकर आये थे वो हुआ कि नहीं? क्या कभी बिहारियों को लगा कि वो लोकतंत्र में हैं और ये कार्यालय लोकतंत्र की रक्षा के लिए है। अगर नहीं तो फिर क्यों है उम्मीद?

बिहार को बेहतर राज्य बनाने से पहले वहां के क्षत-विक्षत समाज को बेहतर बनाना होगा। तभी कोई बिहारी, बिहार को बुद्ध की धरती कहने की हिम्मत करेगा।

ये नंगी औरत को देखकर आंख मत छुपाइयेगा। इसे देखिये, गौर से देखिये, बार-बार देखिये, आदत डालिये। इसी तरह किसी दिन हमारे-आपके घर से जब भीड़ हमें निकालेगी तो हम कम-से-कम मर नहीं जाएंगे। आदत रहेगी तो जी लेंगे।

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नोट- लेखक दीपक भास्कर, दिल्ली विश्वविद्यालय में राजनीति के शिक्षक हैं।

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