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जब अनजाने में अमृता की कलम से एक ही नाम निकला…साहिर, साहिर, साहिर

A Beautiful Love Story of Amrita Pritam and Sahir Ludhianvi

कुछ वक्त पहले एक लेख लिखा था जो आज पन्ने पलटते हुए मिल गया।

ज़हन की सांकल को यूं तो कई बार प्रीत से लबरेज़ इस दीवानी अमृता ने मेरे ख्वाब के सिरहाने खटकाये है मगर मेरे रेटीना में चटखते शब्दों के हर अक्स को इस दीवानी ने हर बार इतना चकाचौंध कर दिया कि शब्दों की दस्तक ना सिर्फ अपना रास्ता भूल जाती थी बल्कि मैं खुद निशब्द हो जाती।

साहिर लुधियानवी और इमरोज़ के साथ बीते वक्त के कुछ लम्हों को अमृता प्रीतम रसीदी टिकट का नाम तो ज़रूर दे गईं मगर मेरे लिए जैसे अमृता प्रेम ग्रंथ छोड़ गई हों, जिसके पन्नों पर बिखरी इश्क की इबारत को लगभग रोज़ ही रात के लिबाज़ की तरह ओढ़ कर सोती हूं और दिन के आगाज़ के साथ सोचकर जिस्म पर बकायदा पहन भी लेती हूं।इसी प्रेम ग्रंथ के कुछ रुहानी एहसासों को अपने ज़हन से उतरते लफ्ज़ों में पिरोकर आपके सामने लाने की कोशिश की है।

एक बार दिल्ली में पहली एशियन राइटर्स कॉन्फ्रेंस में जब साहिर ने अपने कोट से अपने नाम का बैज उतारकर अमृता के कोट पर लगा दिया था और अमृता प्रीतम के कोट से उनके नाम का बैज उतारकर अपने कोट पर लगा लिया था तो किसी के यह बताने पर कि आप दोनों ने बैज गलत लगा रखे हैं, साहिर की ज़ुबां पर दिवानगी से लबरेज़ जवाब था। उन्होंने कहा,

शायद बैज देने वाले से गलती हुई होगी, मगर हमें इस गलती को ना दुरुस्त करना था, ना किया।

उस वक्त अमृता प्रीतम की आंखों में प्रेम का जो सावन फूट रहा होगा, वो किसी पैमाने से ना आंका जा सकता ना ही नापा जा सकता है। अपने कोट पर साहिर के नाम के बैज को अमृता प्रीतम साहिर के दिल की शक्ल में महसूस कर पा रही होंगी, उनका जी किया होगा कि इस बैज की शक्ल में उनके प्रेमी के दिल की परछाइयां मरते दम तक उनकी आत्मा को ओढ़े रखे। इश्क में डूब जाने पर भी पार उतर जाने का रास्ता नहीं मिलता, इश्क के मांझे में सारी कायनात लिपटी हुई नज़र आती हैं कि जब चाहा नयनों के पाश में खींच लिया हर नज़ारा।

वाह री अमृता, दीवानी अमृता।

लफ्ज़ों के शहंशाह गुलज़ार साहब की एक नज़्म है-

मैं सिगरेट तो नहीं पीता

मगर

हर आने-जाने वाले से पूछ लेता हूं

कि माचिस है क्या

क्योंकि

बहुत कुछ ऐसा है

जिसे

मैं फूंक देना चाहता हूं।

यकीनन इस नज़्म में हर लफ्ज़ की आंख से लहू बरसता है, कोई करीबी रिश्ता अपने पार्थिक हो चुके होने की आग में जलता महसूस होता है मगर दूसरी ओर ऐसी ही सिगरेट और राख के एक वाक्ये में अमृता प्रीतम ने खुद को कई ज़िन्दगियां बख्शी हैं।

लाहौर में जब साहिर साहब अमृता प्रीतम से मिलने आते थे तब अमृता को लगता था कि उनकी ही खामोशी में से निकला हुआ खामेशी का कोई टुकड़ा उनसे मिलने आता था, कुर्सी पर बैठता, सिगरेट के कशों में वक्त की दराज़ों को भरता और फिर चला जाता था।

मुलाकात की शक्ल लिए दो धड़कते दिल एक-दूसरे के आमने-सामने तो होते मगर तबियत कुछ अजनबी जामा पहने हुए रहती दोनों की। उस वक्त के दरख्त से अगर उन खामोश दिलों की कोई खास शाख चुरा ली जाए तब भी क्या उस चुप्पी की वजह कोई जान पाएगा भला?

साहिर साहब चुपचाप सिगरेट पीते रहते थे और आधी सिगरेट पीकर राखदानी में बुझाकर फिर से नई सिगरेट जला लेते थे और यही सिलसिला चलता रहता। साहिर के जाने के बाद भी कमरे में उसकी मौजूदगी बनी रहती। साहिर के होंठों को छूकर गुज़रे अधजले या पूरी तरह बुझ चुके सिगरेट के उन बचे हुए टुकड़ों में, कमरे में पसरे ज़मीन के उस टुकड़े के अक्स में जहां साहिर के कदमों के निशां अमृता अपने प्रेम की आंखों से साफ देख सकती थीं।

साहिर के बचे हुए अधजले सिगरेट के टुकड़ों को अमृता इस तरतीब से अलमारी के किसी कोने में संभालकर रखा करती थीं मानो संजीवनी की आखिरी बूंद सारी कायनात से बचाकर उन्हें रखनी हो। हो भी क्यों ना आखिर जब-जब साहिर की याद की संकरी गलियों में अमृता खो जातीं, तब-तब सिगरेट के बचे हुए उन टुकडों को वो इस तरह छूती थीं मानो साहिर की उंगलियों को छू रही हों, मानो सिगरेटनुमा रत्न पर साहिर ने अपनी उन्हीं उंगलियों से अमृता प्रीतम और अपनी किस्मत को एक साथ तराशा हो और कभी-कभार उन बचे हुए टुकड़ों को जलाकर जब धुएं को निहारती तब-तब साहिर की शक्ल को उस धुएं की नक्काशियों से सारे कमरे में सजता हुआ देखतीं। प्रेमी की मौजूदगी का ऐसा आलम कोई दीवानी ही महसूस कर सकती है। साहिर जहां से सिगरेट पकड़ते थे उस हिस्से की छुअन में ज़िन्दगी के सुकून का ताज़ा इश्क अमृता की रगों में लहू की रवानगी से भी तेज़ बहता होगा।

एक बार जब कुछ पत्रकारों ने अमृता प्रीतम की एक किताब के प्रकाशन के दौरान जब उनकी तस्वीर लेनी चाही तब किसी पत्रकार ने उनसे ख्वाहिश ज़ाहिर की कि अमृता किताब पर कुछ लिखते हुए तस्वीर खिचाएं। पत्रकार तस्वीर खींच कर तो चले गए मगर जब अमृता ने वो पन्ना देखा तो उस पर बार बार-बार महज़ एक ही नाम दर्ज़ था, साहिर…साहिर…साहिर…

अमृता, अमृता, अमृता

काश कि तुम्हारे वक्त की

किसी मुंडेर पर

पंछी बनकर मैं बैठी होती,

तेरे प्रेम गीत को सुर देती

तेरी खिड़की पर बैठी

प्रेम से भरे तेरे नयनों को

पहली किरण के साथ

खुलते देख पाती,

साहिर तक पहुंचाती

तेरे खत में लिपटे एहसास

और

देख पाती इमरोज़ की पीढ़ा

जब तुम उनकी पीठ पर

ढो देती थीं दो लोगों का बोझ

गढ़ रही होती थीं सिर्फ एक ही नाम

साहिर…साहिर…साहिर…

काश…

कि तुम्हारे वक्त की

किसी मुंडेर पर

पंछी बनकर मैं बैठी होती।

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