Site icon Youth Ki Awaaz

बेटी का मुखाग्नि देना हमारे लिए चर्चा का विषय क्यों बन जाता है

पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की अंतिम संस्कार की रस्में और मुखाग्नि उनकी दत्तक पुत्री नमिता कौल भट्टाचार्य ने पूरी की। हमारे यहां नमिता कौल भट्टाचार्य के बजाए उनके पति रंजन भट्टाचार्य या घर के किसी और पुरुष द्वारा यह रस्म पूरी की जाती और लोग सहजता से चर्चा कर रहे होते कि दामाद या फलाने ने मुखाग्नि दी है।

जहां ‘सामाजिक नियम कायदे’ दामाद को अनुमति नहीं देते हैं वहां नाती और जहां नाती नहीं है, वहां कोई तीसरा! कारण बेटी मुखाग्नि दे इसकी स्वीकारोक्ति अभी भी ‘उस’ समाज में नहीं है! (संविधान में महिला-पुरुष सब बराबर हैं लेकिन संविधान प्रदत्त अधिकारों के लिए सोशल कस्टम एक चुनौती रही है।)

अगर बेटी मुखाग्नि देती भी हैं तो लोग चर्चा करते हैं, वाहवाही करते हैं या भृकुटी तानकर बताते हैं, अखबारों की सुर्खियां बन जाती हैं। सहज कहां रहते हैं! जो अपने आपको सहज दिखाते भी हैं उनसे खुद के बारे में बात की जाए तो तमाम तर्क-वितर्क शुरू हो जाते हैं।

उत्तर वैदिक काल से कर्मकांड में महिलाओं की भागीदारी घटने लगी। छठी शताब्दी सोलह महाजनपद तक आते-आते यानि ‘स्मृतिकाल’ तक न्यूनतम हो गई। परिणामस्वरूप सत्यनारायण की पूजा पर बैठने से लेकर मुखाग्नि देने तक मोटा-मोटी पुरुषों का एकाधिकार रहा।

एक-बेटी, दो-बेटी, तीन-बेटी के बाद बेटे के इंतज़ार के पीछे मूल रूप से तीन कारण रहे हैं, पहला-वंश बढ़ेगा मतलब बेटे का बच्चा असली वारिस होगा, बेटी तो दूसरे घर जाएगी। दूसरा-पुत्र से मुखाग्नि का रस्म माने सीधा मोक्ष मिलने का गणित! तीसरा-संतान के रूप में बेटा-बेटी दोनों हो यह दंपतियों के लिए भी यह आदर्श स्थिति होती है।

लेकिन जब दो बहनें या तीन बहनें या चार बहनें ही हैं और माता-पिता का अंतिम संस्कार हिन्दू रीति-रिवाज़ कर्म कांड से करना है तो ‘चचेरा-भचेरा’ जो भी भाई हो उसे ढूंढा जाता है। भले ही मृतक का व्यावहारिक संबंध जीते जी उस ‘पैराशूट इंट्री’ करने वाले शख्स से ना हो, भले ही मृतक के जीते जी उस शख्स से बोलचाल या हाय-बाय भी ना हो लेकिन अंतिम क्रिया का रस्म तो पितृ पक्ष से किसी ‘नर’ को ही करना है ना!

बेटी भले ही जान से प्यारी हो। लेकिन मां-बाप खुद भी भतीजे की तरफ देख रहे होते हैं। फिर यह तय करते हैं कि कौन से वाले भतीजे को चुने। जो घर आता-जाता है उसको या जो चाचा जी प्रणाम बोलकर फोन करता है उसको।

उपरोक्त स्थिति तो उनकी है जिन्हें पुत्र रत्न प्राप्त ना हुआ हो लेकिन जिन्हें एक ही पुत्र है उनकी भी एक अलग की स्थिति है। कर्म कांड के मुताबिक मुखाग्नि के बाद जो तेरह दिन की प्रक्रिया होती है उसमें दो मुख्य लोग होते हैं, एक जिसने मुखाग्नि दी यानि कर्ता और दूसरा उसका (कर्ता का) सहयोगी यानि पाचक।

अब जिन्हें एक पुत्र है मतलब की ‘कर्ता’ का काम तो हो जाएगा, अब रह गया पाचक मतलब सहयोगी की भूमिका तो उसके लिए भी बेटी को जगह नहीं दी जाएगी गांव, टोला, मोहल्ला से पाचक ढूंढा जाएगा, भले ही घर बेटियों से भरा हो।

ऐसे तमाम लोगों के लिए मेरी यह बात दिशाहीन और भटकी हुई है और ये लोग नमिता भट्टाचार्य को ‘बड़े लोग हैं’ यह कहते हुए खारिज़ कर देंगे। मैं यह भी जानती हूं जो मैंने लिखा है इन सारी बात को सिरे से खारिज़ कर देना मेरे खुद के लिए कितना कठिन है।

लेकिन इतना तो संभव है कि अगर रीति-रिवाज़ से ही जाना है तो कम-से-कम लिंग आधारित भेदभाव ना हो। अपने जीते जी अपना लीविंग बिल बना कर साफ-साफ लिख दिया जाए, “मरणोपरांत पति/पत्नी (अगर जीवित हों) या संतान (बेटी या बेटा) के माध्यम से अंतिम संस्कार संपन्न होगा। बेटी किसी रिवाज़ को करने से इसलिए नहीं रोकी जाएगी कि ‘वह बेटी’ है। टोला-मोहल्ला से बेटा तलाशने की ज़रूरत नहीं”

हां एक बात और इलेक्ट्रिक शवदाह का विकल्प चुनने से रिवाज़ भी कम होगा और तुलनात्मक तौर पर पर्यावरण के लिए भी फायदेमंद होगा।

Exit mobile version