राष्ट्रीय राजनीति में सबसे ज़्यादा महत्व रखने वाले राज्य उत्तर प्रदेश में 2019 के लिए रणनीति तैयार हो गई है। इसकी शुरुआत सपा (समाजवादी पार्टी), बसपा (बहुजन समाज पार्टी), कॉंग्रेस और रालोद (राष्ट्रीय लोकदल) के गठबंधन से हुई है। भाजपा के खिलाफ चारों पार्टियां 2019 लोकसभा चुनाव मिलकर लड़ेंगी।
राज्य में गठबंधन का पूरा दरोमदार बसपा सुप्रीमो मायावती और अखिलेश पर था। वोट बैंक के लिहाज़ से अगर देखा जाए तो 80 लोकसभा सीटों वाले राज्य में सत्तारूढ़ बीजेपी की मुश्किलें बढ़ सकती हैं। चारों पार्टियों के एक साथ आने से इनके परंपरागत वोटर में सेंध लगा पाना बीजेपी के लिए काफी मुश्किल भरा होगा। क्योंकि पार्टियों के गठबंधन से इनकी पैठ सभी जातियों पर होगी।
यादव और मुस्लिम वोटरों का साथ हमेशा से सपा के साथ रहा है। प्रदेश में ओबीसी वर्ग में सबसे ज़्यादा वोटर यादव हैं। मुस्लिम वोटरों की संख्या भी राज्य में लगभग 7 प्रतिशत है। हालांकि तीन तलाक और हलाला जैसे मुद्दों के बाद महिला वोटरों के रुख का अनुमान नहीं लगाया जा सकता है।
मुस्लिम महिला वोटर्स बीजेपी के पक्ष में भी मतदान कर सकती हैं और ऐसा विधानसभा चुनावों में हुआ भी है। दलित वोटर्स हमेशा से मायावती के साथ हैं लेकिन, भारतीय समाज की नराज़गी की वजह से बसपा से उनकी दूरियां बढ़ी है। कॉंग्रेस का दायरा सिर्फ अमेठी और बरेली तक ही सीमित है।
2014 लोकसभा चुनाव में बीजेपी ने राज्य में सबसे ज़्यादा सीटों पर कब्ज़ा किया था लेकिन, वर्तमान समय का परिदृश्य 2014 से बिल्कुल अलग है। 2014 चुनाव में राज्य की सबसे मज़बूत पार्टियों सपा-बसपा के बीच गठबंधन नहीं था फिर भी राज्य में सपा दूसरे और बसपा तीसरे नबंर पर थी और कई सीटों पर बसपा, सपा से आगे थी।
2014 लोकसभा चुनावों के हिसाब से अनुमान यह भी लगाया जा रहा कि सपा 35, बसपा 33, कॉंग्रेस 12 सीटों पर चुनाव लड़ सकती हैं और रालोद को सपा के खाते में डाला जा सकता है या फिर रालोद को पश्चिमी उत्तर प्रदेश की सीटें दी जा सकती हैं। क्योंकि रालोद की पकड़ पश्चिमी उत्तर प्रदेश में मज़बूत है। इसके पीछे का कारण अजीत सिंह का हमेशा किसानों के साथ खड़े रहना है। अब देखने वाली बात यह कि बीजेपी राज्य में इस गठबंधन को शिकस्त देने के लिए क्या रणनीति अपनाती है।