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सांप्रदायिक सौहार्द की बेहतरीन मिसाल है मेरी दोस्त की शादी

आज के समय में जहां पूरा देश जाति और धर्म के नाम पर हलाल हो रहा है, कुछ नेताओं द्वारा अपने विद्वेषी बयानों से लोगों को बांटने की साजिश रची जा रही है, वैसे माहौल में मेरी दोस्त अनिता की शादी सांप्रदायिक सौहार्द की बेहतरीन मिसाल है।

जी हां, एक ऐसी शादी जिसमें भगवान का आशीर्वाद, अल्लाह का करम और रब की मेहरबानी तीनों शामिल थी। एक ऐसी शादी, जिसमें मां-बाप, पंडित या मौलवी से कहीं ज़्यादा दोस्तों की भूमिका थी। एक ऐसी शादी, जिसमें एक ब्राह्मण बहन का कन्यादान दो मुसलमान भाइयों ने किया, क्योंकि दोस्ती का कोई जात-धर्म या मज़हब नहीं होता। इस नाते भी एक प्रेरणादायी और यादगार मिसाल है यह शादी।

कहते हैं उस इंसान से ज़्यादा खुशनसीब कोई नहीं, जब उसका परिवार ही उसका दोस्त बन जाये लेकिन, जब किसी इंसान का दोस्त ही उसका परिवार बन जाए, तो फिर कहना ही क्या।

अनिता के परिवार वालों ने उससे केवल इसलिए मुंह मोड़ लिया था क्योंकि वह उनकी मर्ज़ी से शादी नहीं करना चाहती थी। वह आगे पढ़ना चाहती थी, अपने दम पर अपनी एक अलग पहचान बनाना चाहती थी लेकिन, उसकी मां को यह मंज़ूर नहीं था।

दरअसल बचपन से ही कैल्शियम कमी की वजह से अनिता थोड़ा झुककर चलती थी। साथ ही उसका रंग भी सांवला है और हमारे भारतीय समाज में लड़की का सांवला रंग+शारीरिक कमी=परिवार की सबसे बड़ी टेंशन।

इसी वजह से अनिता की मां चाहती थीं कि बस किसी तरह से उसकी शादी हो जाये, ताकि उनके सिर से यह बोझ उतरे। उसके बाद वह जैसे चाहे रहे। इन्हीं वजहों से उन्होंने अनिता के बारहवीं पास करते ही उसके लिए लड़का ढूंढना शुरू कर दिया। वह आये दिन कभी किसी कम्पाउंडर, तो कभी किसी चपरासी या फिर किसी मैट्रिक फेल लड़के का रिश्ता लेकर उसके सामने खड़े हो जातीं और जब अनिता इसका विरोध करतीं, तो उसे ताने सुनने को मिलते।

बड़ी मुश्किल से इन तमाम परेशानियों को झेलते हुए अनिता ने अपना ग्रेजुएशन कंप्लीट किया और फिर एक प्राइवेट कंपनी में नौकरी करने लगी। अनीता कहती है,

जॉब करने की वजह से पहली बार घर से बाहर की दुनिया से मेरा सामना हुआ था। मैंने महसूस किया कि दुनिया कितनी आगे जा चुकी है और मैं उसके मुकाबले बहुत पीछे हूं। हालांकि मां की ज़िद थी कि मैं जॉब छोड़ दूं, पर मैं अब और पीछे नहीं होना चाहती थी। मैं अपने पैरों पर खुद खड़ा होना चाहती थी। दुनिया के साथ कदम मिलाकर चलना चाहती थी, इसलिए मैंने मां की बात ना मानकर अपना जॉब जारी रखा।

अनिता आगे बताती है कि धीरे-धीरे अपनी सैलरी से पैसे बचाकर मैंने एमबीए में एडमिशन ले लिया। उसके बाद तो जैसे मां के सिर पर मेरी शादी का भूत सवार हो गया। उन्हें लगता था कि एक तो ऐसे ही मुझमें इतने एब है, उसपर से अगर मैंने ज़्यादा पढ़-लिख लिया, तो मेरी शादी नहीं होगी। इस वजह से वो मुझसे जॉब छोड़ने की ज़िद करने लगीं और मेरे इंकार करने पर मुझे मारा-पीटा जाने लगा। कई-कई दिनों तक मुझे घर में भूखे-प्यासे बंद कर दिया गया। आखिरकार मैंने एक दिन घर छोड़ने का फैसला किया।

घर छोड़ने के बाद अनिता सीधे मेरे पास आयी और मुझसे कहा, “प्लीज़ मुझे बचा लो। मैं अब उस घर में वापस नहीं जाना चाहती। वे लोग मुझे जान से मार डालेंगे।” मैंने देखा उसके पूरे चेहरे और शरीर पर पिटाई के निशान थे। पैर में एक हवाई चप्पल और हाथों में बस एक सर्टिफिकेट्स की फाइल लिये वह मेरे सामने खड़ी थी। उस वक्त मुझे समझ नहीं आया कि उससे क्या कहूं। मैंने उसे अपने पास रहने की इजाज़त दे दी। दो दिन बाद मैं खुद उसके साथ उसके घर गयी, यह सोचकर कि शायद उसके घरवालों को मना कर सकूं, लेकिन ऐसा हो ना सका। उसकी मां की ज़िद के आगे हमारी एक ना चली।

मैंने उसे कानून का सहारा लेने की सलाह दी, पर ऐसा करके वह अपने परिवार की ‘इज्ज़त’ को सरेआम नीलाम नहीं करना चाहती थी। आखिरकार मैं उसे फिर से अपने साथ लेकर वापस आ गयी। हम करीब तीन सालों तक एक साथ या आसपास रहे। उसके बाद परिस्थिति कुछ यूं बनी कि हमें अलग होना पड़ा।

कुछ समय बाद उसकी नौकरी भी छूट गयी। ऐसे में उसे अपना खर्च निकालना भी मुश्किल हो गया, तो किराया कहां से भरती। मुश्किल की इस घड़ी में उसका साथ दिया आरिफ ने। आरिफ, जो कि कभी अनिता के ऑफिस में साथ काम किया करता था और उसे बहन मानकर हर साल उससे राखी बंधवाता था, उसे अपने फ्लैट पर ले आया। आरिफ वहां अपने सात अन्य दोस्तों के साथ रहता था। उन सबों ने भी अनिता का वेलकम किया। उसके वहां पहुंचते ही दो कमरों के उस फ्लैट में से एक कमरा उसके लिए खाली कर दिया गया। फिर कुछ समय बाद जब उन्हें यह पता चला कि घर छोड़ने के बाद भी अनिता हर साल अपने तीनों भाइयों को राखियां भेजती है, लेकिन वे राखियां हमेशा लौट कर वापस आ जाती हैं। तो उन सातों ने अपनी कलाईयों पर राखी बंधवा कर उसे अपनी ‘बड़ी बहन’ का दर्जा दिया।

इस तरह अनिता को आरिफ सहित कुल 8 भाइयों का प्यार मिला। उनके अलावा, उनके बाकी दोस्तों ने भी उसे बहन माना और सबने उसकी किस्मत संवारने की ज़िम्मेदारी आपस में बांट ली। अनिता बताती है कि मैं करीब डेढ़ साल उनलोगों के साथ रही और इस दौरान उन सबने मुझे अपनी पलकों पर बिठा कर रखा। मुझे इतना प्यार और सम्मान दिया, जितना मुझे आज तक अपने सगे भाइयों से भी नहीं मिला था। हम सब अलग-अलग राज्यों के रहनेवाले हैं, हमारा जाति-धर्म भी अलग है, फिर भी हम सब बस एक रिश्ते से जुड़े हैं और वह है दिल का रिश्ता, दोस्ती का रिश्ता, जो दुनिया के हर रिश्ते से ज़्यादा पाक और पवित्र है। इस रिश्ते में हमेशा लेने की उम्मीद से कहीं ज़्यादा देने की ख्वाहिश होती है।

दो महीने पहले दिल्ली के ही एक बिजनेसमैन से अनिता की शादी हो गयी। अनिता के सभी भाइयों और उसकी सहेलियों ने मिलकर उसकी शादी की सारी ज़िम्मेदारी उठायी। दुबई में रहनेवाला उसका भाई इमरान उसके लिए शादी का लाल जोड़ा और जेवरात लेकर आया था। दिल्ली में ही रहनेवाले भाई पंकज के पेरेंट्स ने उसकी शादी की सारी रस्म अदायगी की, तो भाई अकरम ने फोटोग्राफी की ज़िम्मेदारी संभाली। राजस्थान में रहनेवाले भाई सागर की दीदी ने उसके हाथों में मेंहदी रचाई। उसकी पंजाबन सहेली ने उसका मेकअप किया। बाकियों ने भी अपनी तरफ से जिससे, जितना बन पड़ा, मदद की।

सभी भाइयों के घरवालों और साथ ही साथ पूरे मोहल्ले वालों ने भी आठ भाइयों की इस लाडली बहन के ब्याह में बढचढ कर भागीदारी निभायी और उसे सुखी जीवन का आशीर्वाद दिया। इस तरह अनिता की डोली विदा हो गयी। आज अनिता कहती है,

अब मुझे अपनी किस्मत से कोई शिकायत नहीं है, क्योंकि किस्मत ने मुझसे एक मां-बाप का आशीर्वाद छीना लेकिन बदले में मुझे कई मां-बाप का आशीर्वाद दे दिया। मुझसे तीन भाइयों का प्यार छीना, पर बदले में कई सारे भाइयों का प्यार दिया। मैं इतने सालों में अपने मां-बाप और परिवार के बगैर तो रहना सीख गयी, पर अब अपने इन भाइयों के बगैर जीने की सोच भी नहीं सकती।

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