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भारत हो या बांग्लादेश हर जगह आंदोलनों को सरकारी तानाशाही से कुचला जा रहा

आज का दौर काफी उथल-पुथल भरा, विक्षुब्ध करने वाला है। देश-दुनिया की अलग-अलग जगहों पर भिन्न-भिन्न तरह की घटनाएं हो रही हैं, जिसको देखकर यकीन ही नहीं होता कि दुनिया इस हद तक डूबने के करीब पहुंच चुकी है।

आप एक समाधान की ओर बढ़ ही रहे होते हैं कि अचानक मालूम होता है कि अमेरीका में गोली-बारी हो गई, एक तरफ दंगे खत्म होने के आसार नज़र आते हैं और दूसरी तरफ गौरक्षा के नाम पर किसी की लिंचिंग हो जाती है। आंदोलनकारी भी अपने स्तर पर तंत्र का पुरज़ोर विरोध करने में लगे हैं और अपनी-अपनी जगहों पर सफल और असफल रहे हैं।

अभी हाल ही में खबर आई कि बांग्लादेश का ढाका शहर एक ज़ोरदार छात्र-आंदोलन का गवाह बना। स्कूली छात्रों ने सड़क सुरक्षा की मांग करते हुए पूरे शहर को अपनी मौजूदगी और अपने अस्तित्व का अहसास कराया। इसमें कोई दो राय नहीं कि छात्रों की मांगें बुनियादी एवं जायज थीं मगर फिर भी वहां की सरकार ने आंदोलन को नेस्तनाबूद करने के लिए जिस तरीके का तानाशाही रवैया अपनाया वह कहीं से भी जायज़ नहीं ठहराया जा सकता।

वहां की सत्तारुढ़ आवामी लीग पार्टी ने अपने गुंडे भेज छात्रों में दहशत का माहौल पैदा किया ताकि वो भाग खड़े हों, मगर छात्र थे कि डटे रहें। जाने माने बांग्लादेशी फोटोग्राफर शहिद-उल-आलम को आंदोलन से जुड़ी तस्वीरें लेने और अंग्रेज़ी न्यूज़ चैनल अल-जज़ीरा को इंटरव्यू देने के बाद हिरासत में ले लिया गया।

इतना ही नहीं आवामी लीग पार्टी की छात्र‌ इकाई बांग्लादेशी छात्र लीग ने भी दहशतगर्दी फैलाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। हालांकि 9 दिन लम्बे इस आंदोलन का अंत हुआ जब शेख हसीना की कैबिनेट ने एक सड़क सुरक्षा कानून पास किया और आश्वासन दिया कि नियमों की अनदेखी करने वालों पर नकेल कसी जाएगी।

मगर सवाल यह है कि क्या इस प्रकार छात्र आंदोलनों या किसी भी धरना-प्रदर्शन, मोर्चे या रैली में इस तरह हिंसक रूप से सरकारी खलल डालना जायज है? क्या पुलिसिया संसाधनों का प्रयोग कर आमजनों की आवाज़ को दबाना सही है?

ये सवाल और भी ज़्यादा महत्वपूर्ण हो जाते हैं जब ये भारत के संदर्भ में पूछे जाएं, क्योंकि आए दिन हमारे देश में भी आंदोलन, धरना-प्रदर्शन और रैलियां होती रहती हैं। ज़ाहिर है कि अगर तंत्र से रोष है तो प्रर्दशन भी सरकार के खिलाफ ही होंगे। हर एक उठता हाथ और भीड़ की संगठित आवाज़ से सरकार के अस्तित्व पर संकट मंडराने लगता है और यही संकट, यही डर सत्ता में बैठे लोगों को उस आंदोलन को कुचलने की ओर अग्रसर करता है।

हमारी सत्तारूढ़ पार्टी ने भी इस तरह के हथकंडे अपनाने शुरू कर दिए हैं, चाहे वह गुरुमेहर कौर को एबीवीपी द्वारा मिली घृणित धमकियां हो (जिनके कारण उन्हें कुछ दिनों के लिए शहर तक छोड़ना पड़ा था), स्वामी अग्निवेश को पीटे जाने की घटना हो या फिर गौरी लंकेश और कलबुर्गी जैसे पत्रकारों की निर्ममता से हुई हत्या हो, सरकार हर उस आवाज़ को दबाना चाहती है जो उसके खिलाफ उठे।

मुमकिन है कि आगे और भी ऐसे आंदोलनों और आंदोलन के चेहरों को निशाना बनाया जाएगा। कहने वाले तो यह तक कह सकते हैं कि ये सिर्फ अभी कहां हो रहा? सरकार की तानाशाही तो कब से चली आ रही है। पिछली सरकारें भी तो इसी तरह करते आई हैं। तो भैया सीधा सा जवाब यह है कि उधो करे या माधो, तानाशाही कतई जस्टिफाइड नहीं है और पिछली सरकार को उसके किये की ऐसी सज़ा जनता ने दी है कि 4 साल बाद भी उनसे उठकर पानी तक नहीं मांगा जा रहा।

अभी जो सरकार सत्ता में है उसकी खामियों पर चर्चा करने की आवश्यकता है ना कि विपक्ष की। ज़रूरत है तो उस तानाशाही रवैये और दमनकारी नीतियों का एकजुट होकर विरोध करने और आंदोलन की आत्मा पुनर्जीवित करने की क्योंकि लोगों की आवाज़ सुनी जाना ही सही मायनों में लोकतंत्र है।

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