कहा जाता है कि राजनीति की दिशा अपने समय के नेताओं के व्यक्तित्व और उनके किए गए काम-काज से तय होती है। राजनीति के हर दौर में भारत के पास कोई ना कोई ऐसा प्रमुख नेता रहा है जिसके इर्द-गिर्द देश की राजनीति चलती रही। हालांकि माना जाता है कि इन नेताओं के साथ ही उनके दौर की राजनीति भी खत्म हो जाती है। तो क्या मान लेना चाहिए कि अटल बिहारी वाजपेयी के साथ उनके दौर की राजनीति भी चली गई है? खासकर आज के जटिल राजनीतिक दौर में इस पर विचार करना दिलचस्प होगा।
इस सवाल का जवाब ढूंढने के लिए आज की राजनीति की तुलना अटल युग की राजनीति से करना शायद ठीक नहीं है क्योंकि हर बदलते समय का एक मिज़ाज होता है और परिस्थितियों में भी बहुत अंतर आ जाता है। लेकिन, इस पर तो विचार किया ही जा सकता है कि आज की राजनीतिक परिस्थितियों में दूसरा अटल बिहारी वाजपेयी पैदा होने की कितनी गुंजाइश है।
राजनीति का यह दौर मोदी युग कहा जा सकता है, इसमें कोई शक नहीं। मोदी लोकप्रियता के मामले में अपने समकालीन सभी नेताओं से बहुत आगे निकलकर चमके हैं। यह चमक कितने दिन की है यह देखने वाली बात होगी। मोदी के साथ भाजपा का भी अभूतपूर्व उत्थान हुआ है। मोदी के तमाम विरोधी खुद इस बात को मानकर मोदी और भाजपा से लड़ने के लिए महागठबंधन बना रहे हैं। मोदी अटल की तरह भाजपा का सर्वमान्य चेहरा है, लेकिन मोदी के उभार के साथ ही पक्ष-विपक्ष में विरोध भी बहुत तेजी से फैल रहा है। यही मोदी और अटल में एक बड़ा फर्क भी है।
विरोध के नाम पर होने वाली ये राजनीति देखते ही देखते नफरत की राजनीति में तब्दील हो जाती है। अलग विचारधाराओं में बंटे होना, ना तो कोई नई बात है ना ही इसमें कुछ गलत है। लेकिन अटल की सबसे बड़ी खासियत यही थी कि वो अलग अलग विचारों वाले लोगों के बीच भी एक ऐसी कड़ी का काम करते थे। आज के बड़े नेताओं में यह खूबी नदारद है।
भाजपा और संघ से जुड़े होने के बावजूद विरोधियों के भी अच्छे विचारों पर गौर फरमाने की उदारता वाजपेयी को खास बनाती थी। उन्होंने विपक्षी नेता होते हुए भी विदेशों में देश की सकारात्मक छाप छोड़ने का काम किया। आजकल कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी जर्मनी और ब्रिटेन जैसे देशों में भाजपा और संघ के नाम पर देश की जो तस्वीर पेश कर रहे हैं, उससे कम से कम विदेशों में तो भारत की कोई अच्छी पहचान नहीं बनने वाली है।
हालांकि कोई आश्चर्य नहीं होता, यदि इस समय कांग्रेसी सरकार होती तो कोई भाजपा नेता भी विदेशों में ऐसे ही लांछन लगाकर आता। दरअसल विरोध की इस राजनीति की मजबूरी ही यही है कि ना तो यह दूसरे पक्षों की बातों को तार्किकता के पैमाने पर तौलती है, और ना ही यह विरोधियों को उदारता के चश्में से देखती है। विरोधी विचारधारा में भी छुपी अच्छाई को खुले तौर पर स्वीकार किए बिना राजनीति में दूसरा अटल बिहारी वाजपेयी नहीं मिलेगा।
इसके अलावा आज के राजनीतिक हालात पहले से भी पेचीदा हैं। कई लोगों को लगता है कि ये एक उग्र हिंदुवाद का दौर है और इसका विरोध भी उतनी ही उग्रता से करना चाहिए, तो कईयों का मानना हैं कि बाकी पार्टियां केवल अल्पसंख्यक तुष्टीकरण के लिए ही बनी रह गई हैं। सोशल मीडिया के उभार ने हालात को और भी बदतर किया है।
कांग्रेस के 10 साल लंबे शासनकाल के बाद भाजपा ने पूर्ण बहुमत की सरकार बनाई है। उसके सामने चुनौती अपने शासनकाल को जितना लंबा हो सके चलाने की है, तो वहीं कांग्रेस के सामने अपनी दरकती हुई जमीन को फिर से हासिल करने की। मोटे तौर पर इस दौर के सभी नेता इसी जद्दोजहद में उलझे हुए हैं।
फिलहाल ऐसा लगता है कि देश की राष्ट्रीय राजनीति में भविष्य में बड़ी भुमिका निभाने वाले नेता अभी अपने खुद के भी विकास के दौरे से गुजर रहे हैं। वैसे भी व्यक्तित्व निर्माण लंबे समय तक चलने वाली प्रक्रिया होती है लेकिन छवि निर्माण बहुत जल्द हो जाता है। छवि से बाहर निकलना भी बेहद मुश्किल होता है। फिलहाल यही सच है कि अटल बिहारी वाजपेयी सरीखी छवि वाला कोई भी नेता मौजूद नहीं है।
वैसे प्रणव मुखर्जी जैसे वरिष्ठ नेता आज भी हमारे सामने मौजूद हैं जिन्होंने आरएसएस जैसे संगठन के कार्यक्रम में भाग लेकर नफरत और किसी भी कीमत पर केवल विरोध की राजनीति को फिर से आईना दिखाया है। हालांकि, उस समय वे कांग्रेसी चेहरा कम भूतपूर्व राष्ट्रपति अधिक थे और राष्ट्रपति बनने के बाद वे वैसे ही सक्रिय राजनेता की छवि से बाहर आ चुके हैं। इसके बावजूद पक्ष-विपक्ष में इस तरह के कदमों की देश को और जरूरत है।
फिलहाल यही सच है कि अटल बिहारी वाजपेयी सरीखी छवि वाला कोई नेता मौजूद नहीं होने से अटल वाली राजनीति का दौर भी गुजर गया है। समकालीन राजनीतिक फिर से किसी ऐसे व्यक्तित्व की मांग कर रहा है जो एक बार फिर से मतभेदों को मनभेद ना बनने दे।