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भोले बाबा के उदंड भक्तों का तांडव प्रशासन से क्यों नहीं संभलता?

Is there any pressure on police to not control kanwarias Hooligans

हिन्दू कैलेंडर के हिसाब से श्रावण के महीने में श्रद्धालुओं द्वारा बिहार के सुलतानगंज या फिर उत्तराखंड में हरिद्वार, गोमुख और गंगोत्री से गंगा नदी का पानी लेकर हिन्दू धर्म के भगवानों में से एक शिव के मंदिर में चढ़ाने की प्रक्रिया को कांवड़ यात्रा कहा जाता है। ये प्रथा दरअसल उतनी पुरानी भी नहीं है और आम लोगों में इसका प्रचलन 1980 के दशक से ही देखा जाना शुरू हुआ है। बहरहाल, इस बार इस कांवड़ यात्रा में हिस्सा लेने वाले कांवड़ियां खबरों में हैं और ये खबरें चिंताजनक है।

दिल्ली में कांवड़ियों के एक जत्थे ने एक दुर्घटना से उग्र रूप धारण कर लिया और एक महिला की कार को लाठी डंडे से मारकर छतिग्रस्त कर दिया। जब उतने से दिल नहीं भरा तो उस गाड़ी को ही उलट दिया। इसके अलावा और भी खबरें आई हैं, जिनमें कांवरियों द्वारा ट्रैफिक को बाधा पहुंचाई गई है या फिर आम नागरिकों को परेशान किया गया है।

भले ही इस साल इस तरह की घटनाओं ने लोगों का काफी ध्यान खींचा हो लेकिन ये पहली बार नहीं है कि कांवड़िये इस तरह की हिंसक वारदातों में शामिल रहे हों। तो आखिर क्या वजह है कि किसी एक धार्मिक समारोह के दौरान निरंतर ऐसी घटनाएं देखने को मिलती हैं। क्यों साल दर साल ऐसे हालात होने के बाद भी प्रशासन द्वारा कोई भी नियंत्रण नहीं लगाया जाता है।

कांवड़ियों का उत्पाती या उग्र होना कोई आश्चर्य की बात नहीं लगेगी, अगर हम ये देखें कि जो लोग इस यात्रा में भाग लेते हैं उनमें से एक बड़े प्रतिशत का व्यवहार किस तरह का होता है। दरअसल कांवड़ यात्रा में सबसे ज़्यादा संख्या में भाग लेने वाले युवा कांवड़ियों के लिए ये श्रद्धा और धर्म का आयोजन कम और खुद को कूल दिखाने या फिर शक्ति प्रदर्शन का ज़्यादा लगता है।

वो लोग जो कांवड़ यात्रा के रास्ते में आने वाले शहरों और गांव में रहते हैं वो आपको बताएंगे कि कांवड़ियों का नशे में होना या उदंड होना सामान्य सी बात मानी जाती है और ये धर्म की बात नहीं है। अगर कुछ जवान, उदंड और शक्ति प्रदर्शन के उन्माद में चूर मर्द समूह में इकट्ठा होंगे तो इसके परिणाम ज्वलनशील हो ही सकते हैं। यातायात के साधनों जैसे बस, ट्रेन वगैरह में कांवड़ यात्रा के रूट पर यात्रियों को किस तरह कांवड़ियों से खौफ खाकर रहना पड़ता है ये नई बात नहीं है।

इस विषय पर एक विडंबना की ओर ध्यान खींचना ज़रूरी है कि श्रावण के महीने में शाकाहारी खाना अनिवार्य होता है क्योंकि इसे हिन्दू धर्म में ‘सात्विक’ खाना मानते हैं और कहा जाता है कि इसे खाने पर इंसान ‘तामसिक प्रवृतियों’ जैसे हिंसा, क्रोध, व्यभिचार इत्यादि से दूर रहता है। मैं पूछता हूं कि कांवड़ियों द्वारा ये कैसा सात्विक व्यवहार है कि एक शहर में दंगे जैसे हालात हो गए।

इस प्रकार की अनियंत्रित हुल्लड़बाज़ी को देखते हुए प्रशासन क्यों बेअसर रहता है? एक खास धर्म के प्रति शासन व्यवस्था का झुकाव इससे साफ पता चलता है।

इसके अलावा और क्या वजह होगी कि मेरठ के एडीजी जिनका कर्तव्य है कि बिना किसी एक समुदाय की तरफदारी किये न्याय व्यवस्था को बनाये रखे वो करदाताओं के खर्चे पर हैलिकॉप्टर में बैठ कांवरियों पर फूलों की बारिश करते हैं।

जब ऐसे सूरत ए हाल हैं तो हम ये कैसे अपेक्षा कर सकते हैं कि सरकार और प्रशासन बिना पक्षपात किये न्याय व्यवस्था बनाये रखेगी। यही वजह है कि अधिकतर बार कांवड़ियों के कानून तोड़ने पर भी प्रशासन उन्हें शह देता रहता है।

बड़ा सवाल ये होता है कि क्या एक धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र में किसी भी धर्म, चाहे हिन्दू हो, इस्लाम हो या ईसाई, को ऐसी छूट देना वाज़िब है कि वो आम जन जीवन में बाधा पहुंचाए? ये बात बस कांवड़ियों की नहीं, गणपति का विसर्जन, मुहर्रम का ताजिया, उर्स का जुलूस या कोई और धार्मिक अनुष्ठान, धर्म के नाम पर हमेशा व्यवस्था को ताक पर रख दिया जाता है और ये इस देश का दुर्भाग्य है।

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